Skip to main content

कृत्रिम-बौद्धिकता (A.I.)की भागमभाग में वास्तविकता (Reality) के दो जीवंत पल

 कृत्रिम-बौद्धिकता (A.I.)की भागमभाग में वास्तविकता (Reality) के दो जीवंत पल

    दीपावली मिलन की आकुल अधीरता किसी न किसी कारण से विवशता के दड़बे में बंधी पड़ी थी। बंधन में कौन नहीं है? कोई नौकरी के बंधन में है, कोई व्यवसाय के? किसी की कलाई में पढ़ाई की हथकड़ी है तो किसी को बिगड़ते मौसम ने दबोच रखा है। गोवर्धन-संक्रांति और भाई-दूज के जाने के बाद परिवार विदाई के रोमनामचे लिखने में लगा हुआ था। कोई पल ऐसा नहीं था जिसे सांस लेने की फुर्सत हो। 

    अंततः वही काम आया जिसे निरर्थक बदनाम किया जाता रहा है। शनिश्चर यानी शनिवार अथवा संक्षिप्त में शनि। जो विज्ञानवादी हैं , वे तो चलो, वाम-मार्गी हैं, उनकी बात छोड़ दें तो हम सकारात्मक दृष्टिकोण रखनेवाले भद्रजनों की ही बात कर लें; जो ये कहते हैं कि शनि किसी को हानि नहीं पहुंचाता, किसी की बाधा नहीं बनता, वह तो तुम्हारे हौसले और धैर्य की परीक्षा लेता है। यानी चित (head) भी उसकी और पट (tail) भी उसी का। 

       रविवार को हर व्यक्ति कहीं न कहीं जानेवाला होता है या कोई न कोई हिलगन्ट/फसौअल/मज़बूरी आ ही जाती है। मुझे भी आ गई। बाहर जाना निकल आया। मैंने सोचा कि शनिवार को कलंक से निकालने का प्रयास किया जाए। नगर के एकमात्र कथाकार और वरिष्ठ साहित्यकार आ. ज्ञानचंद बाफना जी से तथा उनके अभिन्न मित्र वरिष्ठ साहित्यकार, गीतकार और ग़ज़लकार आ. युगेश चौबे से दीपावली मिलन  एक-एक दिन करते सप्ताह भर टल गया था। मेरी ही वजह से। सोचा आज मिल लूं। फोन पर बात हुई तो उन्होंने बताया कि पड़पोती के आने के उत्सव एवं पूजा के कारण दो दिन मिलना संभव नहीं। यह शनि की परीक्षा थी। शुक्र हुआ कि मैंने रवि को आगे कर दिया:"अरे, रविवार को बाहर जा रहा हूं सोचा आज ...ख़ैर कोई बात नहीं। शनिवार को तो बाधा आ ही जाती है।"

बाफना जी बोले : "कल कब निकलेंगे और कब तक लौटेंगे?"

मैं : "सुबह ही निकल जाएंगे और लौटने में तो रात हो जाएगी।" 

बाफना जी :"आप ढाई से तीन के बीच आ सकते हैं? तीन बजे मैं एक सगाई के कार्यक्रम में बाहर निकलूंगा।"

मैं : "ठीक है भैया, ढाई बजे आता हूं। कुछ सामान लेने उधर आना ही है।"

ठीक ढाई बजे उनका फोन आया : "आ रहे हैं न?"

मैं : "बस, आ ही गया। संविधान चौक और शास्त्री तिराहे के बीच पहुंच गया हूँ।"

     अगले पांच मिनट में कल्पतरु के नीचे से निकलकर मैं उनके घर पहुंच गया। 

   दरस-परस हुआ। एक दूसरे को देखकर होनेवाली प्रसन्नता छुपाए न छुपी और हमने गदगद होकर पीछे छूट गए पूरे सप्ताह के प्रख्यात दिनों की शुभकामनाएं एक दूसरे के हाथ में, हाथ मिलाने के बहाने सौंप दी। 

    तब तक आ.चौबे जी भी आ गए। प्रायः ऐसा ही कार्यक्रम हम बनाते हैं कि ज्ञान भैया के घर चौबे भैया आ जाएं तो तीनों कम समय में अधिक बातें कर सकें। 

आ चौबे जी अपने साथ अपनी तीन किताबें लेकर आये थे। चुटकियां, गुलाब और नागफनी तथा जंगल गवाह है का प्रथम संस्करण जो 1989 में प्रकाशित हुआ था। उनकी एक पुस्तक जो उनके पास भी नहीं है-"बरगद से बड़े पलाश"। "गुलाब और नागफनी" तथा "बरगद से बड़े पलाश" दोनों सम्मिलित(सांझा) कविता संग्रह हैं, जिसमें बालाघाट के और बालाघाट के बाहर के कवियों की रचनाएं हैं। 

आ बाफना जी ने भी अपना रंगीन संग्रह 'नव-वर्षाभिनन्दन' दिया। इस संग्रह में उनके 2000 से 2020 तक के वे वार्षिक अभिनंदन पत्र शामिल हैं, जो अनवरत उत्साह के साथ उन्होंने नववर्ष पर अपने परिचितों और शुभचिंतकों को भेजे। उनका यह क्रम आज भी अक्षुण्य है। पूरे उत्साह और जीवंतता के साथ,  सारे शारीरिक, पारिवारिक, व्यापारिक, व्यावहारिक रोग और शोक की पूर्णतः उपेक्षा करते हुए वे हर वर्ष, समय की तिक्तता के बावजूद आशावाद बांटते हैं। 

 उनका पहला कहानी संग्रह "उजले चौपाये' 1992 में प्रकाशित हुआ था। इसके प्रकाशित होते ही वे प्रथम कथाकार के रूप में प्रतिष्ठित हो गए। मेरी जानकारी में आज भी कहानीकार के रूप में उनका ही एकमात्र स्थान है। 

उल्लेखनीय है कि आ ज्ञानचन्द बाफना और आ युगेश चौबे दोनों बालाघाट के लंबे साहित्यिक परिवेश में ऐसे दो हस्ताक्षर हैं जो आज तक लगातार गलबंहियों में बंधे हुई हैं। जब लोग समय के परिवर्तन के साथ अपनी पाली बदल लेते हैं ये दो मित्र अपने रिश्तों में मज़बूत पकड़ बनाये हुए हैं। दोनों मित्रों ने ज्ञानयुग प्रकाशन आरम्भ किया और पुस्तकें प्रकाशित की। दोनों की प्रारम्भिक पुस्तकें जंगल गवाह है (प्रथम संस्करण, युगेश चौबे,1989) और उजले चौपाये (ज्ञानचंद बाफना,1992) दोनों  राही प्रकाशन, शाहजहांपुर, उत्तरप्रदेश से ही प्रकाशित हुई। अधिवक्ता युगेश चौबे जी की 9 में से तीन किताबें 'जंगल गवाह है' का (पहला संस्करण), नागफनी और गुलाब (1990,) राही प्रकाशन,  शाहजहांपुर, उ.प्र., चुटकियां, 2004 श्रीगणेश प्रकाशन, इलाहाबाद से प्रकाशित हुईं और शेष 6 पुस्तकें  इतना ही वरदान बहुत है, (2004), जंगल गवाह है, दूसरा संस्करण (2005), हाल सखे, (2007), प्रपंचा, (2011), आख़िरी ख़त,(2013) और दस्तक (2023) ज्ञानयुग प्रकाशन से ही प्रकाशित हुईं।  अभी तक ज्ञात रूप से आ. युगेश चौबे सर्वाधिक पुस्तकों के लेखक हैं। वे आज भी लेखन में सक्रिय हैं और नए लेखकों और कवियों को पढ़ रहे हैं और लगातार प्रतिक्रिया देते रहते हैं। जब भी किसी नए कवि या लेखक को पढ़ते हैं, वे फोन करके उस पर चर्चा अवश्य करते हैं। चौबे भैया और    बाफना भैया कृत्रिम-बौद्धिकता (A.I.) के युग में वास्तविक जीवंतता और सामाजिक मूल्यों के प्रामाणिक दृष्टांत हैं। यह जानकर अच्छा लगता है कि आ ज्ञान चंद बाफना जी की तीसरी पुस्तक प्रेस में है जो बहुत शीघ्र लोकार्पित हो जाएगी। 

हार्दिक शुभकामनाएं। 







Comments

Popular posts from this blog

काग के भाग बड़े सजनी

पितृपक्ष में रसखान रोते हुए मिले। सजनी ने पूछा -‘क्यों रोते हो हे कवि!’ कवि ने कहा:‘ सजनी पितृ पक्ष लग गया है। एक बेसहारा चैनल ने पितृ पक्ष में कौवे की सराहना करते हुए एक पद की पंक्ति गलत सलत उठायी है कि कागा के भाग बड़े, कृश्न के हाथ से रोटी ले गया।’ सजनी ने हंसकर कहा-‘ यह तो तुम्हारी ही कविता का अंश है। जरा तोड़मरोड़कर प्रस्तुत किया है बस। तुम्हें खुश होना चाहिए । तुम तो रो रहे हो।’ कवि ने एक हिचकी लेकर कहा-‘ रोने की ही बात है ,हे सजनी! तोड़मोड़कर पेश करते तो उतनी बुरी बात नहीं है। कहते हैं यह कविता सूरदास ने लिखी है। एक कवि को अपनी कविता दूसरे के नाम से लगी देखकर रोना नहीं आएगा ? इन दिनों बाबरी-रामभूमि की संवेदनशीलता चल रही है। तो क्या जानबूझकर रसखान को खान मानकर वल्लभी सूरदास का नाम लगा दिया है। मनसे की तर्ज पर..?’ खिलखिलाकर हंस पड़ी सजनी-‘ भारतीय राजनीति की मार मध्यकाल तक चली गई कविराज ?’ फिर उसने अपने आंचल से कवि रसखान की आंखों से आंसू पोंछे और ढांढस बंधाने लगी। दृष्य में अंतरंगता को बढ़ते देख मैं एक शरीफ आदमी की तरह आगे बढ़ गया। मेरे साथ रसखान का कौवा भी कांव कांव करता चला आया।

तोता उड़ गया

और आखिर अपनी आदत के मुताबिक मेरे पड़ौसी का तोता उड़ गया। उसके उड़ जाने की उम्मीद बिल्कुल नहीं थी। वह दिन भर खुले हुए दरवाजों के भीतर एक चाौखट पर बैठा रहता था। दोनों तरफ खुले हुए दरवाजे के बाहर जाने की उसने कभी कोशिश नहीं की। एक बार हाथों से जरूर उड़ा था। पड़ौसी की लड़की के हाथों में उसके नाखून गड़ गए थे। वह घबराई तो घबराहट में तोते ने उड़ान भर ली। वह उड़ान अनभ्यस्त थी। थोडी दूर पर ही खत्म हो गई। तोता स्वेच्छा से पकड़ में आ गया। तोते या पक्षी की उड़ान या तो घबराने पर होती है या बहुत खुश होने पर। जानवरों के पास दौड़ पड़ने का हुनर होता है , पक्षियों के पास उड़ने का। पशुओं के पिल्ले या शावक खुशियों में कुलांचे भरते हैं। आनंद में जोर से चीखते हैं और भारी दुख पड़ने पर भी चीखते हैं। पक्षी भी कूकते हैं या उड़ते हैं। इस बार भी तोता किसी बात से घबराया होगा। पड़ौसी की पत्नी शासकीय प्रवास पर है। एक कारण यह भी हो सकता है। हो सकता है घर में सबसे ज्यादा वह उन्हें ही चाहता रहा हो। जैसा कि प्रायः होता है कि स्त्री ही घरेलू मामलों में चाहत और लगाव का प्रतीक होती है। दूसरा बड़ा जगजाहिर कारण यह है कि लाख पिजरों के सुख के ब

सूप बोले तो बोले छलनी भी..

सूप बुहारे, तौले, झाड़े चलनी झर-झर बोले। साहूकारों में आये तो चोर बहुत मुंह खोले। एक कहावत है, 'लोक-उक्ति' है (लोकोक्ति) - 'सूप बोले तो बोले, चलनी बोले जिसमें सौ छेद।' ऊपर की पंक्तियां इसी लोकोक्ति का भावानुवाद है। ऊपर की कविता बहुत साफ है और चोर के दृष्टांत से उसे और स्पष्ट कर दिया गया है। कविता कहती है कि सूप बोलता है क्योंकि वह झाड़-बुहार करता है। करता है तो बोलता है। चलनी तो जबरदस्ती मुंह खोलती है। कुछ ग्रहण करती तो नहीं जो भी सुना-समझा उसे झर-झर झार दिया ... खाली मुंह चल रहा है..झर-झर, झरर-झरर. बेमतलब मुंह चलाने के कारण ही उसका नाम चलनी पड़ा होगा। कुछ उसे छलनी कहते है.. शायद उसके इस व्यर्थ पाखंड के कारण, छल के कारण। काम में ऊपरी तौर पर दोनों में समानता है। सूप (सं - शूर्प) का काम है अनाज रहने देना और कचरा बाहर निकाल फेंकना। कुछ भारी कंकड़ पत्थर हों तो निकास की तरफ उन्हें खिसका देना ताकि कुशल-ग्रहणी उसे अपनी अनुभवी हथेलियों से सकेलकर साफ़ कर दे। चलनी उर्फ छलनी का पाखंड यह है कि वह अपने छेद के आकारानुसार कंकड़ भी निकाल दे और अगर उस आकार का अनाज हो तो उसे भी नि