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कहानी - बिना सींखचोंवाली धूप

बिना सींखचोंवाली धूप


मुकुल के बहुत बार बुलाने पर एक बार मैं शहपुरा चला आया।

नहीं निकलने पर आंगन तक निकलने में आलस आता है, मगर एक बार घर के बाहर निकल आए तो फिर ऐसा लगता है चलो हिमालय छू आएं। हालांकि जबलपुर से कुण्डम और कुण्डम से शहपुरा के रास्ते भर मुझे लगभग हिमालय पर चढ़ने जैसा ही आभास होता रहा। छोटी बड़ी अनेक पहाड़ियों से घिरा शहपुरा मृदुल का वर्तमान निवास है।

मुकुल मेरा बेटा है और बैंकों के संविलियन के कारण शहपुरा ब्रांच में स्थानांतरित कर दिया गया है। मुकुुुल को जंगल, पहाड़, समुद्र, द्वीपसमूह आदि घूमने में रोमांच होता है, नई ऊर्जा और आत्मविश्वास मिलता है। शहपुरा आकर उसे पहाड़ों के बहुत निकट आने का अनुभव हुआ और उसके अन्दर छुपे रहस्यों का पता चला। मेरी रुचि भी पर्वतों और जंगलों में है, इसलिए वह बार-बार मुझे बुलाता रहा। अन्ततः मैं शहपुरा आ गया।  

जबलपुर से शहपुरा लगभग सौ किलोमीटर है। जबलपुर से निकलने के बाद भी पहाड़ियों से छुटकारा नहीं मिलता। पूरा जबलपुर महानगर पहाड़ों और नर्मदा नदी के घाटों से घिरा हुआ है। कौन सी पहाड़ी कहां से शुरू हुई और कहां खत्म हुई पता नहीं चलता। पहाड़ियों की एक संगठित लश्कर की तरह है पूरा जबलपुर। शहपुरा जाने के लिए भी पूरा रास्ता पहाड़ों से होकर गुजरता है और उधर डिंडौरी और अमरकंटक तक पहाड़ों का लम्बा सिलसिला है। पूरा जबलपुर संभाग पहाड़ों के रोमांचक और कठिन पहाड़ों के पाठ्यक्रम से गुज़रने जैसा है।

शहपुरा भौगोलिक दृष्टि से पांच छः छोटी बड़ी पहाड़ियों पर बसा एक छोटा सा क़स्बा है। कई छोटी बड़ी पहाड़ियों पर चढ़ने और उतरने का अभ्यास रोज़ होता है। कुछ घर इस पहाड़ी पर हैं, कुछ उस पहाड़ी पर। बाजा़र एक पहाडी़ उतर कर है तो कालेज दूसरी पहाड़ी पर चढ़कर। कालेज के कई कर्मचारी इस तराई में रहते हैं तो कई उस तराई में।

कालेज से नीचे उतरने पर बस-स्टेण्ड, सामुदायिक भवन, पंचायत कार्यालय, तहसील और प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्र है। प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्र यानी बुखार, सर्दी-खांसी, छोटी-मोटी चोटों की मरहम-पट्टी, ग्लूकोस चढ़ानेवाला बिल्कुल बुनियादी स्वास्थ्य केन्द्र। बड़ी बीमारियों और चोटों के लिए एक तरफ़ पचास किलोमीटर पर डिंडोरी चिकित्सालय है और दूसरे सौ किलोमीटर पर जबलपुर जैसा महानगर और निगम-चिकित्सालय है। बड़े-बड़े झगड़ों के लिए उच्च न्यायालय भी है।

शहपुरा के चारों ओर रमणीय और अनिर्वचनीय दर्शनीय स्थलों के भंडार हैं। पूर्व में अमरकंटक, कबीरचौरा -सौ सवा सौ कि.मी.। पश्चिम में जबलपुर और भेड़ाघाट -सौ सवा सौ कि.मी.। उत्तर में उमरिया होते हुए बांधवगढ़ -लगभग पचासी कि.मी. और दक्षिण में राष्ट्रीय जीवाश्म उद्यान यानी नेशनल फॉसिल्स पार्क घुघवा-लगभग चौदह कि.मी.।

सबसे निकट घुघवा ही है। दो तीन घंटे में घूमकर वापस आ सकते है। समय बहुत रहेगा। इसलिए घुघवा से आगे बढ़कर नब्बे किलोमीटर पर मंडला को घेरकर बहनेवाली नर्मदा की उत्तरी धारा को सहस्रधार बनकर बहते देखना रोमांचक तो होगा ही।

घुघवा के विषय में मुकुुुल ने सारी जानकारी ले ली है। साढे़ छः सात करोड़ साल पुराने जीवास्म वहां पचहत्तर एकड़ भूमि पर फैले हुए मिलते हैं जो अधिकांशतः पेड़ के तने, शाखाओं, शंखों आदि के रूपांतरण हैं। यहां इतने ही वर्षों पुराने जूरासिक काल के डायनासोर के अंडों के फॉसिल्स भी मिले हैं। जूरासिक पार्क से मिली डायनासोर की प्रसिद्धि के बाद, उसके नाम से ही लोग आकर्षित होने लगे हैं। पर्यटन का यही मंत्र है कि लोकेषणा को भुनाया जाये।  

नर्मदा के उद्गम-स्थल अमरकंटक और जीवाश्व के भंडार देखने के प्रलोभन में बंधकर मैं चला आया हूं। कल मुकुुुल की छुट्टी है, इसलिए घुघवा राष्ट्रीय उद्यान के लिए कार्यक्रम बन गया है। मुझे भी वर्षों से कल की तीव्र प्रतीक्षा रहती है। आज भी मैं आनेवाले कल के रोमांचक विचार से ही व्यग्र हो उठता हूं।

मुकुुुल के बैंक से लौटने का समय तै नहीं है। रात के आठ-नौ बज ही जाते हैं। मैं सारा दिन पुस्तक, नोटबुक लेकर, पीछे  रीडिंग-रूम में बैठकर या लेटकर पढ़ता या लिखता रहता हूं। रूम में छः  बाई चार फुट के लोहे के सींखचोंवाली खिडकी है। जनवरी के अतिशय ठंडे दिनों में कभी तेज़ कभी कुनकुनी धूप इसके स्लाइडर कांच से दिन भर अंदर बनी रहती हैं। दिन भर सींखचोंवाली खिडकी के कांच से धूप अंदर आकर मुझसे हंस-मुस्कुराकर बतियाती रहती है। वही जैसे किताबें पढ़ती है और नोटबुक के पन्नों में आड़ी तिरछी इबारतें लिखती रहती है। आश्चर्य यह कि वह सारी मेरे मन की बातें होती है। सीखंचों से आनेवाली धूप कितना कुछ जानती है मेरे बारे में।

इन दिनों धूप का बड़ा सहारा रहता हैं। मैंने आदतन कुर्सी खिड़की के कांच के बिलकुल सटाकर लगा ली है, ताकि धूप के एकदम नजदीक रह सकूं। धूप से दूर मैं रह नहीं सकता। मेरी इस कोशिश में धूप भी सर्वांग मेरे ऊपर फैलकर जैसे खिलखिलाकर हंस पड़ी है। पर्दे मैंने एक तरफ़ हटा दिए हैं ताकि धूप और मेरे बीच कुछ भी अवरोध ना रहे। पर सींखचों का क्या करूं? कमबख़्त धूप के साथ-साथ, उसके चौखानेदार साये लिबास की तरह मुझसे लिपट जाते हैं। मैं उन्हें शरीर से लिपटाना नहीं चाहता, पर विवश हूं, हटा भी नहीं सकता। सींखचे जैसे धूप के बुर्के हैं, उन्हें हटाना घूप को नाराज़ करना होगा। धूप को नाराज़ करने का साहस मुझमें नहीं है। अपनेे ऊपर बाबुर्का बेसुध पड़ी धूप को संभाले हुए मैं सींखचेवाली खिड़की के बाहर देखने लगता हूं।  

घुघवा रोड पर स्थित ‘जुरासिक एन्कलेव’ नाम की बहुमंजिला बिल्डिंग में, थ्री-बी-एच-के का एक ‘होम’ मुकुल ने ले लिया है। बैंक ने ही मैनेजर के लिए उसे लीज़ पर लिया हुआ है। चार मंजिला इमारत में नीचे बेसमेन्ट है और उसके ऊपर चार माले हैं। पांचवा माला खुली सार्वजनिक छत है। मुकुल का ‘होम’ चौथे माले में है। इन तमाम ‘घरों’(होम) में न छत अपनी है, न ज़मीन।

चौथेे माले की सींखचों वाली खिड़की से पूरा पूर्वी और उत्तरी दक्षिणी हिस्सा दिखाई देता है। इन हिस्सों में ही शहर का सारा सौन्दर्य है। डिंडोरी रोड, उमरिया रोड, और एक ऊंची पहाड़ी पर शारदा, भैरव, सिंहवाहिनी, हनुमान आदि के मंदिर हैं, जिनमें चैत्र और शारदीय नवरात्रि में अपार भीड़ रहती है। जनवरी में, माघ मास के आरंभ के साथ ही श्रद्धालुओं की भीड़ कल्पवास के स्नान दानादि से मोक्ष और कल्याण प्राप्त करने मंदिरों में आना जाना करते हैं। भीड़ इन दिनों उधर ही जा रही है।

मेरी नज़र नीचे बेसमेंट की तरफ़ चली गई है। इस बहुमंजिला बिल्डिंग के पहलू में एक थ्री-बी-एच-के का ड्यूपलेक्स है। बिल्डिंग की ओर उसमें जो कमरा है, उसमें भी चार गुणित छ: फीट की कांचवाली स्लाइडर खिड़की है। बिल्डर एक होने से सारे ड्यूपलैक्स और अपार्ट्समेंट के कंस्ट्रशन कमोबेस एक से हैं। कांच बाहर की तरफ़ से आइने की तरह काम करते हैं मगर अन्दर से उसमें बाहर का सब दिखता है। जैसे मैं खिड़की के कांच से सारी दुनिया देख रहा हूं लेकिन दुनिया मुझे नहीं देख रही हैं। ऐसे ही उस ड्यूपलैक्स के स्लाईडर से अंदर का तो कुछ नहीं दिखता, लेकिन बेसमेंट की सारी गतिविधियां दिखती रहती है। शायद नीचे के सभी मालों के इस तरफ़वाले कमरों से बेसमेन्ट की सारी हलचलें, ड्यूपलैक्स की खिड़की के कांच पर दिखाई देती होंगी। कौन आ रहा है? कौन जा रहा है? क्या आ रहा हैं? क्या ले जाया जा रहा है? आदि।

अचानक मैंने स्लाइडर कांच में देखा कि स्कूटी पर एक लड़की हड़बड़ी में चढ़ी और स्कूटी को तेज़ी से घुमाकर पासिंग पैसेज में ले आई। उसने सफेद रंग का सूट पहन रखा था और गुलाबी रंग का फूलों वाला पुलओवर डाल रखा था। उसका चेहरा नीले रंग के दुपट्टे से पूरी तरह ढंका हुआ था, जैसा कि आजकल रिवाज़ हो गया है। सुरक्षा की दृष्टि से यह ठीक है। उसने आंखों पर गुलाबी फ्रेमवाला गहरे काले रंग का गागल भी डाल रखा था। वह ज़रा छरहरी थी। उम्र का अंदाजा़ चेहरा देखे बिना लगाना मुश्किल था।

लड़की अपनी पार्किंग से निकलकर पासिंग पैसेज से स्कूटी दौड़ाती हुई घूम कर एक्जिटवाले पैसेज पर आ गई। अचानक स्लाइडर कांच के आगे आकर उसकी स्कूटी बंद हो गई। वह जतन करने लगी। बार-बार स्टार्ट स्विच दबाकर इंजन को उकसाती रही, लेकिन इंजन गुर्राकर रह जाता। स्कूटी को कोई फ़र्क़ नहीं पड़ा। अब वह उतरी। उसने स्कूटी को हिलाया डुलाया। शायद पेट्रोल की जांच कर रही थी। चाबी घुमाकर आन-ऑफ़ किया और फिर स्टार्ट किया। इंजन पहले की तरह घुरघुराकर रह गया। एक क्षण उसने कुछ सोचा। आसपास देखा, और स्कूटी को सेन्टर स्टैण्ड पर खड़ा किया और किक बाहर निकाल कर किक मारने लगी। पर स्कूटी पर कोई असर नहीं हुआ। झुंझलाकर उसने एक किक स्कूटी की बॉडी को मारी और फिर आसपास देखने लगी।          

शायद उसे मदद की जरूरत थी। बेसमेंट में कहीं कोई दिखाई नहीं दे रहा था। मुझसे रहा नहीं गया। मैने पैरों में चप्पलें डाली और दरवाजा यूंही ठेलकर लिफ्ट के दरवाजे पर पहुंचा। यह संयोग था कि लिफ्ट फ़्लोर चार पर ही थी। मुश्किल से एक मिनट में मैं नीचे आ गया। उसका चेहरा आहट पाकर मेरी तरफ़ घूमा। मैं उसके पास चला गया। मदद करने आया था, फिर भी शिष्टाचारवश बोला: ‘मैं ट्राई करूं?’

उसने हताश स्वर में कहा - ‘जी!’

मैंने ऊपर से सब देखा था और जो एक कोशिश छूट गई थी, उसी से मैंने कार्यवाही शुरू की। मैंने पेट्रोल के स्विच को घुमाया। वह उसे ऑन करना भूल गई थी या हड़बड़ी में बंद हो गया था। हो सकता है बंद स्थिति में ही शायद पहले स्कूटी काफी चल चुकी थी। पेट्रोल ऑन करने के बाद मैंने कहा -‘अब स्टार्ट कर के देखें।’

उसने स्कूटी का स्टार्ट बटन दबाया और वह स्टार्ट हो गई। वह झेंप-भरी आवाज़ धीरे से बोली -‘थैंक यू सर, सॉरी आपको कष्ट दिया..’

‘अरे नहीं...इसमें क्या ...आप बहुत हड़बड़ी में हैं शायद।’ मैं चाहता था मैं उसकी हड़बड़ी और परेशानी का कारण पूछूं और संभव हो तो उसकी सहायता करूं। लेकिन उसकी परेशानी में समय का अभाव था।

उसने जल्दबाज़ी में सिर्फ़ ‘जी’ कहा और तेज़ी से निकल गई।

उसके जाने के बाद इत्मीनान से मैंने बिना सींखचोंवाली खुली और बेबुर्का धूप में बांहें फैलाई और तनकर अंगड़ाई ली। खुली बेपर्दा धूप में मैं बहुत अच्छा महसूस कर रहा था। कुछ देर वहां रहना चाहता था इसलिए जहां ज़्यादा खुली धूप थी, वहां खिसक गया। आह .. बिना सींखचों वाली धूप का तो कहना ही क्या।

मुझे एक मिनट भी नहीं हुआ कि लिफ्ट से एक युवक निकलकर सीधा मेरी तरफ़ आया।  बोला -‘नमस्ते अंकल! आपसे क्या बोली सुकृति..’

मैंने चौंक कर कहा-‘आप कौन? ऐसा क्यों पूछ रहे हैं? क्या कुछ हो गया है?’

‘ओह! हां, उसने तो बताया ही नहीं होगा’ थोड़ा सोचकर बोला-‘मुकुल सर को भी नहीं मालूम शायद। अंकल! मैं आपके ठीक नीचेवाले अपार्टमेंट में रहता हूं और वहीं से नीचे का सब देख रहा था। आने ही वाला था कि आप आ गये। अच्छा हुआ। अंकल ये सुकृति हमारे ही फ्लोर में रहती है। अभी पिछले महीने ही इसने स्टेट सर्विस ज्वाइन की है .. एन टी हुई है। नायब तहसीलदार। .. बहुत मेहनती है ...  लेकिन इसका एक भाई है ...वह गलत संगत में है। पढाई वढ़ाई में उसका ध्यान नहीं है। वह सब कर्मकांड करता है। दोनों नवरात्र में नौ दिन का कठिन व्रत रखता है ..  जब सुकृति का आर्डर आया तब शारदीय नवरात्र खत्म ही हुए थे। सिंहवाहिनी मंदिर में रोज सुबह नंगे पांव वह जाता था। सुकृति का आर्डर आया तो चिल्ला-चिल्लाकर पूरे जुरासिक एन्कलेव में बोलता फिरा कि मेरी तपस्या का फल अम्बे ने दे दिया। अब धूमधाम से अम्बे को दिया वचन पूरा करूंगा। जीभ काटकर चढ़ाउंगा और फिर भंडारा करूगां।

वह कोई काम नहीं करता था। कुंठित और सरफिरा भी था। उसकी बातों पर घरवाले ध्यान नहीं देते थे। बहुत कुछ बोलता रहता था वह। लेकिन आज सुबह वह अपनी मां से बोलकर निकला कि अम्बे को प्रसन्न करने जा रहा हूं। आकर भंडारा करूंगा। मां ने झिड़ककर कहा कि पहले कमाई कर, फिर भंडारा करना। हवा में नहीं होता भंडारा कि मुंह से निकला और हो गया।

 मां की झिड़की से भुनभुनाता वह निकल गया। मां भी काम धंधे में लग गई। कुछ ही घंटों बाद ख़बर आई कि पगले ने मंदिर में सचमुच अपनी जीभ काट ली है। 

     पूरे गांव में हल्ला मच गया। सब गये। हम लोग भी गए। वह सुबह से बेहोश पड़ा हैं। ख़ून फैला हुआ हैं। बाद में पंचनामा हुआ, पुलिस आई और उसे अस्पताल ले गई।

मुझे झुरझुरी आई। अफसोस के साथ बोला -‘हां, यह तो पुलिस केस हो गया। बच गया तो आत्महत्या का प्रयास और नहीं तो आत्महत्या।’ मैं एक पल स्तब्ध रहा फिर सुकृति का ख्यााल आया तो बोला-‘‘तो सुकृति इसलिए इतनी परेशान और हड़बडाई हुई थी। अब उसका क्या होगा?’

‘कुछ नहीं होगा अंकल। इधर इस तरह की घटनाएं बहुत होती हैं। अजीब अजीब देखने में आता है। नवरात्र में कोई चार फीट, पांच फीट का बाना (त्रिशूल) मुंह के आर पार किये हुए जा रहा है। लोग इसे आस्था और चमत्कार की तरह लेते हैं।’ मैं हैरान था। युवक कितनी सरलता से बोल गया। न अफसोस न दुःख।

‘नगर में क्या स्थिति है?’ मैंने जिज्ञासा की।

‘कुछ नहीं। ठलुए लोगों की भीड़ पहले मंदिर की तरफ़ लपकी थी। अब अस्पताल की तरफ मुड गई है। मेला लग गया है।’ युवक के स्वर में थोड़ी सी खटास आ गई।

‘अस्पताल में क्या स्थिति है? क्या कहते हैं डॉक्टर?’ मैने उत्सुकता से पूछा।

‘खून तो बहुत बह गया है लेकिन ख़तरा नहीं है .. शाम तक होश में आ जायेगा।’ इतना कहकर वह हड़बड़ाया। शायद उसे कुछ याद आया। बोला-‘‘अच्छा अंकल, बच्चे को स्कूल से लेने जा रहा हूं। फिर शाम को बात करते हैं।’ युवक जल्दी में, बिना दुःख और परेशानी के अपनी बाइक उठाकर चला गया।

मैं थोड़ी देर तक क्या करूं, क्या न करूं के अंदाज़ में स्तब्ध खड़ा रहा।

मेरे लिए घटना नई थी। थोड़ा सा परेशान तो हुआ। अपना ध्यान दूसरी ओर हटाने के लिए मैंने हाथ फैलाकर धूप को जैसे अपने अन्दर समेट लेना चाहा। कुछ देर धूप को हाथों से अंगोरते हुए मैंने अपने अन्दर की जकड़न को अपदस्थ कर दिया।

जब मैं अपने अंदर पदस्थ ऊर्जा के साथ लौट रहा था तो सोच रहा था कि सींखचों के पर्दोंवाली धूप और बिना सींखचों की बेपरदा धूप का व्यवहार एक सा नहीं होता। 

 -रा. रामकुमार,

202, सेकंड फ्लोर, किंग्स केसल रेसीडेंसी, ऑरम सिटी, नवेगांव-बालाघाट। 481001





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