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Showing posts from April, 2023

बहुरेंगे दिन

 नवगीत : बहुरेंगे दिन मत उड़, मत उड़ ठूंठ की चिड़िया  बहुरेंगे दिन। मत उड़, मत उड़.... ताप तापकर  तपे हुए दिन  निखर जाएंगे।  अंधड़ वाली  धूल ओढ़कर  सँवर जाएंगे।  आती ही हैँ  भोरें स्वर्णिम  रातें गिन-गिन। मत उड़, मत उड़....  हरे हो गए  जलते जंगल  छाँह बनेंगे।  धुआँ धुआँ  आहोँ के बादल  नीर सनेंगे। मन मयूर  नाचेंगे खुलकर  ताक धिनक धिन। मत उड़, मत उड़.... फूल खिलेंगे  सपन सजेंगे  पिक बोलेंगी।  दबी दबाई  गूढ़ गुत्थियां  कल खोलेंगी।  क्यों फीके हों  भावी उत्सव  हम बिन, तुम बिन। मत उड़, मत उड़.... @ कुमार, २१.०४.२३,

भारत की ख्याति : 20 दोहे

   भारत की ख्याति : 20 दोहे धोखा खाकर धूप से, लौटा मैं बीमार। सींग कटा बछड़ा बना, बैल हुआ बेकार।। 1  बहुत भरोसा स्वयं पर, दुर्घटना  की मांग।  रखे सुरक्षित मनस ही, मन तुड़वाता टांग।।  2   बस्ती के विश्वास को, लोभ रहा है लील। मुकर रहे मुखिया सभी, सुआ हो रहे चील।।  3  बकरी, मुर्ग़ी हो रही, अब घर-घर की लाज।  छूरी जिनके हाथ वे, कहलाते सरताज।।  4  खुले आम होने लगे, बलवे, दंगे, ख़ून।  संसद में हुड़दंग है, जख़्मी पड़ा सुकून।।  5  एक हाथ में सौंपकर, बहुमत का विश्वास।  संविधान ने ले लिया, तलघर में संन्यास।।  6   ईसाई, सिख, मुसलमां, हरिजन, आदिमजाति। अगड़ों, पिछड़ों से मिली, इस भारत को ख्याति।। 7  गुण्डागर्दी साफ़ या, गुण्डागर्दी माफ़। किन गुण्डों के वास्ते, यह झूठा इन्साफ़।। 8  पक्षहीनता ही खड़ी, पक्ष-विपक्षों बीच।  सब जन कचरा खींचकर, उस पर रहे उलीच।। 9   पक्ष एक निष्पक्ष है, पक्ष विपक्ष समक्ष। अभिमन्यु सा वही घिरा, हो कितना भी दक्ष।। 10  पारस पत्थर काल्पनिक, करे लौह को स्वर्ण। उस पाले में जो पड़े,...

जामुन का पेड़ निष्कासित

 1960 की कहानी  #जामुन_का_पेड़ निष्कासित 0 #कृश्नचंदर मेरे प्रिय लेखक रहे हैं। उनकी लेखन शैली, उनकी चुटकियां मुझे अंदर से गुदगुदाती थीं।  हजारों दीवाने पाठकों की भीड़ में मैं भी दबा हुआ, अपने दुख दर्द, उनकी कहानियां और उपन्यास पढ़कर दूर किया करता था, अकेला होकर भी मुस्कुराता था। वे हमारे जैसों के, दीन, हीन, दुखी, पीड़ित, वंचक, उपेक्षितों के लेखक थे। यह तो बाद में पता चला कि वे एक डॉक्टर के बेटे थे और उस वर्ग के लोगों में वे भी पीड़ित और शोषित थे। 'सफेद मूठ वाला चाकू' उनकी यह पीड़ा बयान करती है। उनके पास अपने वर्ग का आत्मविश्वास था और हमारी यानी सर्वहारा वर्ग की कहानियां लिखकर वे अपनी और हमारी पीड़ा कम कर रहे थे।  मैंने बचपन में ही उनकी दो बेहद दिल छू लेने वाली कहानियां पढ़ीं। एक 'जामुन का पेड़' और दूसरी 'गूंगे देवता'। दोनों कहानियां 'जामुन का पेड़' नामक कहानी संग्रह में थीं। और भी कहानियाँ थीं, पर ये दोनों मेरे अंदर किसी थक्के की तरह जम गईं थीं। न घुलती थीं न दिल को धड़धड़ाने से रोकतीं थीं। मेरे खून में उनके अंदर होने का अहसास हमेशा बना रहता था। जब भी कोई नाटक लिखता...

आज का सच : और सदा का....

 आज का सच : और सदा का....  * पढ़ता रहता मन जाने क्या  छत पर लिखा हुआ!  * अपढ़ आस्था बांच न पाती  सच की एक इबारत!  अनगढ़ गढ़े हुए शिल्पों की  पूजित शून्य इमारत!  दिव्य-भव्य परलोक प्रचारित  लौकिक असफलता के,  सन्नाटों के घंटे बजते  आहत किंतु अनाहत!  साष्टांग ही समर्पितों की  गर्वित शिखा हुआ!  * खुली हवा को मंत्रित करना,  लहरों को सम्मोहित!  बुद्धि-शुद्धि के बीजक रचना,  मन को कर संशोधित!  नदियों का घाटों में बंटन,  वृक्षों का भूतों में,  प्रकृति के हर प्राण तत्व में  योजित द्रव्य नियोजित!  व्यक्ति व्यक्ति निद्रित उच्चारे,  सब कुछ सिखा हुआ!  * अवचेतन की पृष्ठभूमि में  आठ गगन अनुलेखित!  खुली आंख के कोटर में हैं नौ सागर उद्वेलित!  अपने अंतरिक्ष में अपना  अमित सौर मंडल है,  आग्रह के अनगिनत ग्रहों से  आकर्षित आवेशित!  अनदेखी किरणों में भासित  अदिखा दिखा हुआ!  * 😈 @ कुमार,  2.4.17, 9.29 am,  रविवार, जबलपुर