युद्धोत्प्रेरक सप्तशती है गीता
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वास्तव में प्रतिपक्ष के प्रतिकार का पूर्व-प्रबंधन है गीता। सामना की तैयारी है। सान पर शस्त्रों को पैना करना है। शस्त्रों को धार देने का प्राम्भिक सत्र है गीता। संघर्ष का प्राक्कथन है।
प्रायः पक्ष का प्रबंधन, अहंकार और अहमन्यता पर आधारित स्थापनाओं और उनकी प्रतिरक्षा तक सीमित हो जाता है। उसकी हठधर्मिता का सारा ध्यान निर्माण की अपेक्षा विध्वंस में लिप्त रहता है। इसलिए प्रतिपक्ष वाम-मार्गी होता है। वह विरोध में, असहमति में उठा हुआ हाथ होता है। उसकी वह न्याय के पक्ष में होता है और पक्ष में भांड होते हैं, ताली बजानेवाले किन्नर होते हैं, चारण होते हैं, विचार-विहीन उच्छ्रंखल होते हैं। जैसा कि महाभारत की कथावस्तु में देखते हैं।
महाभारत में दो पक्षों अर्थात पक्ष और प्रतिपक्ष के आपसी अंतिम टकराव, आर-पार की लड़ाई का प्राम्भिक प्रबंधन अर्जुन-कृष्ण संवाद के रूप में महाभारत का सप्तशती-खंडकाव्य गीता है, जो अर्जुन के हतप्रभ और किंकर्तव्यविमूढ़ हो जाने के बाद हथियार डालने के बाद, कृष्ण के प्रेरणास्प्रद उद्बोधन अथवा समकालीन शब्दों में मोटिवेशनल-स्पीच (motivational speech) के साथ प्रारंभ होता है। कह सकते हैं कि हताशा और कुंठा ही गीता के प्रस्थान-बिंदु हैं। अर्जुन का आत्म-संघर्ष, अर्जुन का ऊहापोह, अर्जुन की नीति चिंता का लंबा संवाद अध्याय एक के अंत तक चलता है और 'अर्जुन विषाद योग' नामक पहला अध्याय संजय के इस कथन के साथ समाप्त होता है - "इतना सब कहकर अर्जुन तीर सहित गाण्डीव (धनुष) त्यागकर शोक से घिरकर रथ के फर्श पर ही बैठ जाता है।
सं०: एवमुक्तवार्जुनः सङ्ख्ये रथोपस्थ उपाविशत् । विसृज्य सशरं चापं शोकसंविग्नमानसः {४७/१}
हिं० : सब विषाद कृष्ण से कहकर, छोड़े धनुष बाण शोकार्त्त।
थामे रहे कृष्ण रथ-रासें, शस्त्र रहित हो बैठे पार्थ।{४७/१}
मज़े की बात यह है कि भारतीय लोक संस्कृति में 'महाभारत यानी लड़ाई झगड़ा' के अर्थ में ही महाभारत को मान्यता प्राप्त है। महाभारत का शाब्दिक अर्थ व्यापक तौर पर श्रेष्ठ या वृहद-भारत हो सकता है, किंतु अपने धर्माधर्म के द्वंद्व विषयक कथानक के कारण यह खंड-खंड में निरन्तर अखण्ड-युद्धों की गाथा बन गया है। हम उसके लक्ष्य, प्रयोजन और परिणाम की बात नहीं कर रहे हैं, बल्कि सारतः उस महाकाव्य में उपस्थित विषय-वस्तु को रेखांकित कर रहे हैं। गीता इसी महाभारत का एक अट्ठारह अध्यायी खंडकाव्य है या ७०२ श्लोकों की सतसई या सप्तशतकी है।
महाभारत की तरह गीता को लड़ाई झगड़े का काव्य नहीं कहा जाता बल्कि इसे जीवन जीने की कला का आस्थावान काव्य कहा जाता है। जबकि देखा जाए तो कौरव पांडवों के मध्य जो सकल-भारत युद्ध हुआ उसकी सारी आग इसी गीता रूपी सिगड़ी में दहकाई गयी है।
तथापि तनाव-प्रबंधन, अवसाद-उपचार और कुंठा-निदान के क्षेत्र में कृष्ण द्वैपायन व्यास (उपसंज्ञा वेदव्यास) का प्रबंध महाकाव्यांश गीता का बड़ा महत्व है। भारतीय आध्यात्म्य, दर्शन, धर्म, राजनीति, औद्योगिकी, विज्ञान आदि क्षेत्रों के विद्याविदों और मनीषियों में यह 'गीता' अथवा महाभारत का खण्ड-काव्य 'युद्धोत्प्रेरण-सतसई' सामान्य तथा समान रूप से बहुपठित और लोकप्रिय है। कर्मकांडी साधु, संन्यासियों, योगियों, मठाधिकारियों, धर्म-सम्प्रदाय के प्रवक्ताओं द्वारा इसे भारतीय आस्था का अपरिहार्य ग्रंथ माना और प्रतिष्ठापित किया गया है।
मेरी दृष्टि में यह तथ्य अद्भुत है कि इसका मूल संस्कृत-पाठ हिंदी अर्थानुवादों से अधिक लोकप्रिय है। यद्यपि कतिपय विद्वानों और मनीषियों के व्याख्या-ग्रंथ भी अतिशय लोकप्रिय हुए हैं, जिनसे हिंदी साहित्यिकों और पाठकों को यथेष्ट ज्ञान-लाभ और संतुष्टि मिलती रही है।
आधुनिक-काल और सम-कालीन कालखण्डों में गीता को, संकीर्णता और साम्प्रदायिकता का हिंदुत्ववादी ग्रंथ मानकर,अधिकांशतः उपेक्षा की दृष्टि से देखा जाता है। ख़ासकर विज्ञानवादी और वस्तुवादी विद्वानों ने इसके मनोवैज्ञानिक-पक्ष की उपेक्षा करते हुए, मीमांसा और न्याय जैसे षट्दर्शन के समानांतर खड़े दिव्य और विराट स्वरूपवादी अतिवाद के कारण इसे सिरे से ख़ारिज़ कर दिया है। यदि वे उसके उस अतिवाद को ख़ारिज़ कर सकते और इसके मनोवैज्ञानिक विश्लेषण की तरफ़ सैद्धांतिक रूप से ध्यान देते तो इसके महत्व को समझ पाते।
साहित्य के छंदशास्त्र का अवमूल्यन और तिरस्कार करनेवाले तथाकथित नए काव्यशास्त्र के प्रणेताओं ने भी इसकी उपेक्षा का बीड़ा उठाया। किंतु पुरानी पीढ़ी के साहित्य मनीषियों ने गुणवत्ता की कसौटी पर कसकर इसके साहित्यिक सौष्ठव और मनोवैज्ञानिक विश्लेषण को न केवल रेखांकित किया बल्कि उसके महत्त्व को स्वीकार भी किया है।
यही नहीं, प्रत्येक युग और काल में अस्तित्व के द्वंद्व और जय-पराजय के चिंतन का इसमें जो संतुलन दिखाया है, उसका महत्त्व अक्षुण्य है। यह भी कह सकते हैं कि यह वैचारिक-साम्य ही इसका वह गुरुत्वाकर्षण है, जिसमें सब खिंचकर इससे बंध जाते हैं। वनवासी ऋषि वेदव्यास को सृजनधर्मियों का आदि-गुरु कहा जा सकता है, जिससे प्रेरणा ग्रहणकर आदि-कवि बाल्मीकि ने 'रामायणम्' का सृजन किया। यहां 'आदि-कवि बाल्मीकि' की चर्चा इसलिए प्रासंगिक है क्योंकि दो ही ग्रंथ अतिशय आस्था के साथ हिन्दू-समाज की रहलों में स्थापित और पूजित ग्रंथ हैं। हालांकि केवल बौद्धिक-वर्ग ही उनका अध्ययन और विश्लेषण कर सार-सार का ग्रहण करता हुआ, अपनी समसामयिक दृष्टि का परिमार्जन और संवर्द्धन करता चलता है।
इसी दृष्टिकोण से 'युद्धोत्प्रेरण-सप्तशती : गीता' के विमर्श का विचार मन में आया और विचार-वानों के साथ साझा करने की योजना बनी।
हम आज विविध रूप से युद्ध की विभीषिकाओं में उलझे हुए हैं। वैश्विक महाशक्तियों के आपसी युद्धों के एपीसोड पर एपिसोड, एक के बाद एक परिदृश्य पर उभर आते हैं। भारत में आज की स्वातन्त्र्योत्तर पीढ़ी ने 1947 के पहले के विश्वयुद्ध की विभीषिकाएँ नहीं भोगी, लेकिन सन 1962, 1965, 1970 आदि में पड़ोसियों के साथ हुए युद्धों का बारूदी-स्वाद अवश्य चखा है। चीन और पाकिस्तान के साथ छुट-फुट कितनी ही सैन्य झड़पों को नई पीढ़ी ने देखा-भोगा है। पड़ोसी आतंकवाद और कश्मीर का सियासी तनाव भारत की नई पीढ़ी को स्वतंत्रता के लिए निरन्तर संघर्ष की अनिवार्यता को दुर्निवार सिद्ध किये हुए है। पारस्परिक संघर्ष और आतंक जैसे जिजीविषा का पर्याय बन गया है। हर मतावलम्बी दूसरे मत के समर्थकों को आतंकवादी कह रहा है। हर मतावलम्बी अपने अपने मतवाद को धर्मयुद्ध कह रहा है और दूसरे के संघर्ष को आतंकवादी आक्रमण कह रहा है। देश-भक्ति और राष्ट्र-वाद अपनी-अपनी विचारधारा को उदात्त बनाये रखने के लिये निरन्तर आक्रामक बना हुआ है। परिणामस्वरूप हर दिशा से अशांति, असहिष्णुता, आघात-प्रत्याघात, अन्याय, अनाचार, व्यभिचार, कदाचार, बलाचार आदि के समाचार जीवन को अस्त व्यस्त बनाये हुए हैं। प्रायः हर व्यक्ति कुंठा, अवसाद, नैराश्य, हताश्य की आत्महंता परिवेश में घिरकर किंकर्तव्य होकर बैठ गया है, और एन उस समय कर्म छोड़कर अकर्मठ हुआ है, जब उसके कर्म करने की अत्यधिक आवश्यकता है।
यही स्थिति अर्जुन की भी हुई थी। गीता का आरंभ ठीक उसी बिंदु से होता है। कह सकते हैं कि हताशा और कुंठा ही गीता के प्रस्थान-बिंदु हैं।
गीता के नियोजन का प्राथमिक दृश्य यह है कि
युद्ध की ठन चुकी है और दोनों पक्षों के युयुत्सु अर्थात युद्ध के इच्छुक योद्धागण 'तेरे और मेरे' के रूप में आमने-सामने हैं।
'युद्धोत्प्रेरण-गीता-सप्तशती' का पहला श्लोक ही द्वंद्वात्मक {'धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्रे' और 'मामकाः पाण्डवाश्चैव'} है।
पहले दृश्य का पहला संवाद कुरुराज धृतराष्ट्र के मुख से वेदव्यास यह अभिव्यक्त कराते हैं --
धृतराष्ट्र उवाच :-
'धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्रे' समवेता युयुत्सवः।
'मामकाः पाण्डवाश्चैव' किमकुर्वत सञ्जय!{१/१}
०
पूर्वकथा की पृष्ठ-भूमि में वेदव्यास से दिव्यदृष्टि प्राप्त राज-सूत सारथी संजय, महाराज धृतराष्ट्र को कौरव और पांडवों के मध्य होनेवाले युद्ध का वर्णन करने के लिए प्रति-नियुक्त है। यह उल्लेखनीय है कि गीता युद्ध का वर्णन नहीं करती, युद्ध की रणभेरी बजने के बाद, लड़ने के लिए प्रवृत्त होने की अपेक्षा, अवसाद-ग्रस्त होकर अर्जुन के हथियार डालने, अकर्मण्य हो जाने पर उसे युद्ध के लिए मानसिक रूप से तैयार करने की कथा है। यह है वह श्लोक जिसमें अर्जुन सम्भ्रम, कुंठा, अवसाद और हताशा में डूबकर हथियार डालकर बैठ जाता है :-
यहां यह उल्लेखनीय है कि युद्धोत्प्रेरण-गीता सप्त-शती' के सात सौ दो श्लोकों में से युद्धार्थ उत्प्रेरित करने के लिए सीधे-सीधे सोलह और प्रक्षिप्त चार, इस प्रकार कुल बीस श्लोक हैं।
उत्प्रेरण के लिए कृष्ण जब बोलना प्रारम्भ करते हैं तो उनके संवाद का दूसरा वाक्य यह होता है-
1. (उत्तिष्ठ परंतप)
क्लैब्यं मा स्म गमः पार्थ नैतत्त्वय्युपपद्यते ।
क्षुद्रं हृदयदौर्बल्यं त्यक्त्वोत्तिष्ठ परन्तप ॥{३/२}
2. (सञ्जय उवाच) [न योत्स्य = मैं नहीं लड़ूंगा]
एवमुक्त्वा हृषीकेशं गुडाकेशः परन्तप।'न योत्स्य'इति गोविन्दमुक्त्वा तूष्णीं बभूव ह।।{९/२}
3. तस्मात युद्धस्व भारत!
अन्तवन्त इमे देहा नित्यस्योक्ताः शरीरिणः।
अनाशिनोऽप्रमेयस्य तस्माद्युध्यस्व भारत।।{१८/२}
4.{युद्धाछ्रेयो}
स्वधर्ममपि चावेक्ष्य न विकम्पितुमर्हसि।
धर्म्याद्धि युद्धाछ्रेयोऽन्यत्क्षत्रियस्य न विद्यते।{३१/२}
5. {क्षत्रियाः पार्थ लभन्ते युद्धम्}
यदृच्छया चोपपन्नं स्वर्गद्वारमपावृतम्।
सुखिनः क्षत्रियाः पार्थ लभन्ते युद्धमीदृशम्।{३२/२}
6.{सङग्रामं न करिष्यसि}
अथ चेत्त्वमिमं धर्म्यं सङग्रामं न करिष्यसि।
ततः स्वधर्मं कीर्तिं च हित्वा पापमवाप्स्यसि।{३३/२}
7. {तस्मादुत्तिष्ठ कौन्तेय युद्धाय}
हतो वा प्राप्स्यसि स्वर्गं जित्वा वा भोक्ष्यसे महीम्।
तस्मादुत्तिष्ठ कौन्तेय युद्धाय कृतनिश्चयः।।{३७/२}
8. {ततो युद्धाय युज्यस्व}
सुखदुःखे समे कृत्वा लाभालाभौ जयाजयौ।
ततो युद्धाय युज्यस्व नैवं पापमवाप्स्यसि।।{३८/२}
9. {युध्यस्व विगतज्वरः}
मयि सर्वाणि कर्माणि संन्यस्याध्यात्मचेतसा।
निराशीर्निर्ममो भूत्वा युध्यस्व विगतज्वरः।।{३०/३}
10. {उतिष्ठ भारत!}
तस्मादज्ञानसम्भूतं हृत्स्थं ज्ञानासिनात्मनः।
छित्त्वैनं संशयं योगमातिष्ठोत्तिष्ठ भारत॥{४२/४}[तस्मात् अज्ञान संभूतं हृत्-स्थं ज्ञान असिन आत्मनः छित्वा एनं संशयं योगं आतिष्ठ उतिष्ठ भारत॥४२/४}
11. {मामनुस्मर युध्य}
तस्मात्सर्वेषु कालेषु मामनुस्मर युध्य च।
मय्यर्पितमनोबुद्धिर्मामेवैष्यस्यसंशयम्।{८.७}
12. कालोऽस्मि लोकक्षयकृत्प्रवृद्धो
लोकान्समाहर्तुमिह प्रवृत्तः।
ऋतेऽपि त्वां न भविष्यन्ति सर्वे
येऽवस्थिताः प्रत्यनीकेषु योधाः।।{३२/११}
13.तस्मात्त्वमुत्तिष्ठ यशो लभस्व
जित्वा शत्रून् भुङ्क्ष्व राज्यं समृद्धम्।
मयैवैते निहताः पूर्वमेव
निमित्तमात्रं भव सव्यसाचिन्।।{३३/११}
14.द्रोणं च भीष्मं च जयद्रथं च कर्णं तथाऽन्यानपि योधवीरान्।
मया हतांस्त्वं जहि मा व्यथिष्ठा युध्यस्व जेतासि रणे सपत्नान्।।{३४/११}
15. {युद्धे चाप्यपलायनम् :क्षात्रं कर्म स्वभावजम्}
शौर्यं तेजो धृतिर्दाक्ष्यं युद्धे चाप्यपलायनम्।
दानमीश्वरभावश्च क्षात्रं कर्म स्वभावजम्।।४३/१८।।
16. {यदि---'न योत्स्य' इति मन्यसे}[चरमोत्कर्ष]
यदहङ्कारमाश्रित्य 'न योत्स्य' इति मन्यसे।
मिथ्यैष व्यवसायस्ते प्रकृतिस्त्वां नियोक्ष्यति।{५९/१८}
उपसंहार : प्रेरण स्वप्रेरण
17. {माया की गाड़ी : यन्त्रारूढानि मायया}
ईश्वरः सर्वभूतानां हृद्देशेऽर्जुन तिष्ठति।
भ्रामयन्सर्वभूतानि यन्त्रारूढानि मायया।।{६१/१८}
18. {यथेच्छसि तथा कुरु}
इति ते ज्ञानमाख्यातं गुह्याद्गुह्यतरं मया।
विमृश्यैतदशेषेण यथेच्छसि तथा कुरु।।{६३/१८}
19. {मामेकं शरणं व्रज}
सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज।
अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः।{६६/१८}
और अंत में गीता का लक्ष्य प्राप्त हो ही जाता है। कृष्ण की युद्ध-प्रेरणा काम कर जाती है।
20. (अर्जुन उवाच : करिष्ये वचनं तव)
नष्टो मोहः स्मृतिर्लब्धा त्वत्प्रसादान्मयाच्युत।
स्थितोऽस्मि गतसन्देहः करिष्ये वचनं तव।{७३/१८}
हिं० : कृष्ण तुम्हारे दिशा-ज्ञान से, नष्ट-मोह मैं जाग गया।
सब संदेह मिटे, मुझमें अब आत्म-बोध उत्पन्न हुआ।।
@डॉ. आर. रामकुमार
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जय हो आदरणीय👌🙏🙏🙏