नाख़ून कब कटेंगे?
@डॉ. आर. रामकुमार
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हमारे बाल और नाख़ून रोज़ बढ़ते हैं. यह प्राकृतिक-शारीरिक क्रिया है. बाल, हड्डी और नाख़ून एक ही प्रजाति के प्रत्यंग हैं. हड्डी काटने और तोड़ने का कोई दिन या मुहूर्त नहीं होता, उसके लिए 'भाव' की भूमिका महत्वपूर्ण है. घृणा या क्रोध जैसे ख़राब समझे जानेवाले 'भाव' आने से, लोग दिन या मुहूर्त का विचार किये बिना ही, किसी भी क्षण हड्डी तोड़ या काट सकते हैं. कभी-कभी ख़राब ही नहीं, अच्छे या ऊंचे 'भाव' होने पर भी हड्डियां काटी या तोड़ी जाती हैं. ऊंचे और अच्छे 'भाव' के कारण ही इस देश में गायों, बकरियों और मुर्ग़ियों की हड्डियां काटी और तोड़ी जा रही हैं. गाय की हड्डियों ने तो राजनीति पर भी बड़ा हल्ला मचाया है. चूंकि इस देश में गाय की तुलना स्त्री से की जाती है, इसलिए देश के धर्मप्राण प्रान्तों में स्त्री और गाय की हड्डियां समान रूप से तोड़ी और काटी जा रही हैं.
अब हम बाल पर आते हैं. बालों की महिमा बहुत है. बाल शरीर पर हड्डियों और नाख़ूनों के साथ आते हैं. एक समय तक बाल बढ़ाने का चलन था. सर और दाढ़ी मूंछें बढ़ाने पर लोग ऋषि मुनि कहलाने लगते थे. सर के बाल कभी कभी खींचने के काम आते थे. जब मनुष्यों ने पढ़ना लिखना नहीं सीखा था, तब बालों को खींचकर सबक़ सिखाया जाता था. मज़े की बात तो यह है कि कभी-कभी बाल खींचकर मज़ा भी चखाया जाता था. इसका मतलब यही हुआ कि मज़ा भी इमली या चटनी है जिसको चखाया जाता है. यही नहीं, बाल आपस के झगड़े निपटाने के काम भी आते रहे हैं. लंबे बाल पकड़कर घसीटने का अपना ही मज़ा है.
सभ्यता के बढ़ने से बालों के बढ़ने का चलन ख़त्म होते चले गया. हालांकि इसके बाद लड़नेवालों और पीटनेवालों ने छोटे बाल पकड़कर दीवार पर मारने की कला भी विकसित कर ली. कुछ शिक्षकों में यह कला आज भी विद्यमान है. हालांकि बहुत समय तक स्त्रियों के बाल छोटे करवाने पर पुरुष-समाज ने बड़ा विरोध किया. स्त्रियों के लम्बे बाल कमज़ोर पुरुषों के लिए सुविधाजनक हुआ करते थे. अब तो स्त्रियों ने मुक्के-बाज़ी में स्वर्णपदक जीतने शुरू कर दिए और छोटी-बड़ी उम्र की महिलाओं ने बॉय-कट बाल रखने शुरू कर दिये. परिणाम स्वरूप धार्मिक संस्थानों ने लाउडस्पीकर लगाकर ज्ञान बांटना शुरू कर दिया कि नारि-मात्र को पवित्र दृष्टि से देखें, उन्हें मां या बहिन मानें. सदियों बाद फिर एक श्लोक का शव जाग गया जिसके अनुसार 'यत्र नार्यस्तु पूज्यंते, रमन्ते तत्र देवताः' अर्थात .. 'जहां नारियों की पूजा होती है, वहां देवता रहते हैं'. हालांकि देवता-गण पूजा का अर्थ आवश्यकतानुसार बदलते रहते हैं.
समय देखकर बालों को काटने के रीतिरिवाज भी बन गए. विभिन्न अवसर पर बाल काटने के भिन्न-भिन्न संस्कार बन गए. झालर से लेकर मरने तक 'बाल-संस्कार' विद्यमान हैं. कुछ स्कूलों में तो बिगड़ैल लड़कों को बाल काटकर दंडित किया जाता था. कारागृह में कैदियों के बाल काटने का अलग नियम है. हिन्दू, मुस्लिम और सिखों के बालों की अलग पहचान है. बालों को देखकर ही कोई साधु या हिप्पी पहचाना जाता है. नायक-नायिकाओं के बाल भी अपनी-अपनी शैलियों के लिए पहचाने गए और पीढियां उसी शैली या कट के दीवाने होकर बाल कटवाने या बनवाने लगे. बाल ही वह विशिष्ट प्रत्यंग है जिसका 'काटा जाना' भी 'बनवाना' होता है. बाल कटवाने जानेवाला ठाठ से कहता है -"बाल बनवाने जा रहे हैं." अन्य शब्दों में कह सकते हैं कि 'बाल बहुत बनते हैं.'
हालांकि कुछ सरों से बाल रूठ भी जाते हैं. आकर चले जानेवाले बालवाले 'सर' को 'टकला' कहा जाता है. लोग इसका मज़ाक बनाते या उड़ाते हैं क्योंकि बाल तो बन नहीं सकते और हैं ही नहीं तो क्या उड़ेंगे? किंतु 'टकला' अनेक अर्थों में शुभ कहलाता है. 'टकलों' की मान्यता है कि टकला या तो अमीर होता हैं या अक्लमंद. हालांकि कहीं-कहीं यह सिर्फ़ कहने की बात है और कुछ नहीं.
ख़ैर, अब स्त्रियों के बालों की तरह स्त्रियों के 'जान से भी प्यारे' नाख़ूनों पर आते हैं. स्त्रियों के बालों और नाख़ूनों के बल पर दुनिया भर में पार्लर आबाद हैं और इन्हें चलनेवाले प्रशिक्षित केश-कर्त्री या बार्बर करोड़ों से खेल रहे हैं. शादी-ब्याह, पार्टी-शॉर्टी या घूमने-फिरने के समय पार्लरों में 'बाल और नाख़ून' की बहार दिखाई देती है. वहीं बालों के जुड़वा-भाई नाख़ूनों के रख-रखाव तथा श्रृंगार इन्हीं पार्लरों में संभव हो पाता है. स्त्रियों से दो चीजें छीनना नामुमकिन है- एक तो पर्स दूसरा नाख़ून. नाख़ून स्त्रियों के अस्त्र का भी काम करते हैं. कुत्ते, बाल और नाख़ून स्त्रियों को अपने पति से भी अधिक प्रिय होते हैं.
साहित्यकारों ने स्त्रियों के साथ-साथ इनकी भी बड़ी महिमा गायी है. टैगौर की विश्वभारती, बनारस के हिन्दू विश्वविद्यालय और दिल्ली के जवाहरलाल यूनिवर्सिटी के आचार्य डॉ. हज़ारी प्रसाद द्विवेदी को तो नाख़ूनों पर एक विश्व-प्रसिद्ध निबंध लिखना पड़ा. शीर्षक था "नाख़ून क्यों बढ़ते हैं?" इसमें नाख़ूनों के बढ़ने के जीवशास्त्र और मनोविज्ञान की अच्छी पड़ताल की गयी है. इसी के साथ राहुल सांकृत्यायन की तरह उन्होंने मानव विकास का भी चित्र इस निबंध में किया है. इसी में थोड़ा सा विवेचनात्मक परिचय उन्होंने नाख़ूनों के काटने का भी किया है.
इसी निबंध के साथ नाख़ून काटने की परंपरा शुरू हुई. हालांकि इसकी तिथियों में विद्वानों के मतभेद हैं. कुछ लोगों का कहना है कि नाख़ून प्राचीनकाल से काटे जाते रहे हैं. उसका मनोवैज्ञानिक विश्लेषण आधुनिक-कालीन आचार्य ने बीसवीं सदी में किया. ख़ैर किसी को श्रेय देने का इरादा प्रस्तुत पंक्ति के लेखक का भी नहीं है.
वास्तविकता यह है कि सफ़ाई की दृष्टि से नाख़ून काटे जाते हैं. नाख़ून काटने का चलन बढ़ा तो कुछ शुभाशुभ की गणना करनेवालों को अवसर मिल गया. जिन्हें अवसर मिलता है और वे उसका फ़ायदा उठा ले जाते हैं, उन्हीं को अवसरवादी कहा जाता है. ऐसे अवसरवादियों ने नाख़ून काटने के शुभ-अवसर की गणना कर डाली. ऐसे अवसरों का लाभ आप भी उठाएं, मात्र इसी दृष्टि से प्रस्तुत है, उनके दृष्टिकोण...
सामान्यतः लोग नाख़ून काटते समय शुभाशुभ का विचार करते हैं और 'दिन' या 'वार' को लेकर असमंजस की स्थिति में रहते हैं. कई लोग सुविधानुसार अवकाश के दिन नाख़ून काटने को प्राथमिकता देते हैं. ऐसे में ये जानना ज़रूरी है कि किस 'दिन' या 'वार' को नाख़ून काटना शुभ, अशुभ, फायदा या नुकसान दायक होता है.
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सोमवार- शरीर का संबंध मन से होता है. शरीर की गतिविधि मन से ही संचालित होती है. सोमवार को मन का कारक माना गया है. ऐसे में अगर कोई सोमवार को नाखून काटता है तो उसे 'लगाव' से मुक्ति मिलने में मदद मिलती है. वह बेमन से मन की बातें करने लगता है. इसलिए उसे कोई सुनना भी पसंद नहीं करता. अनेक विद्वान जानते हैं कि 'सोम' का अन्य नाम 'चन्द्र' है. पा'मेस्ट्री या हस्तरेखा-शास्त्र के अनुसार मस्तिष्क रेखा अगर चन्द्र क्षेत्र में अधिक झुकती है तो ऐसे 'हाथधारी' में पागलपन के लक्षण उत्पन्न हो जाते हैं और वह रोने की स्थिति होने पर भी ठहाके लगाता है.
मंगलवार- लोग अन्धविश्वास के कारण मंगलवार को नाखून काटने से बचते हैं. वे नहीं जानते कि इस दिन नाखून काटने से कर्ज़ से मुक्ति मिलने में मदद मिलती है. वहीं, कर्ज को लेकर होने वाले वाद-विवाद से भी बचाव होता है. आप बैंक से करोड़ों की संपत्ति लेकर भाग भी सकते हैं और इस दिन नाख़ून काटने मात्र से आपको सरकारें अभयदान दे देती हैं. भारत में कई उदाहरण हैं।
बुधवार- इस दिन नाखून काटने से धन लाभ होने की संभावना बढ़ जाती है. इसीलिए बुद्धिमान व्यक्ति इस दिन नाख़ून काटते हुए, विश्व में नंबर एक के धनी हो जाते हैं और अपने देश की रेलगाड़ी, वायुसेवा, संचार सेवा और देशभर की अचल संपत्ति सहित सत्ता ख़रीदने की योग्यता पा जाते हैं. देश का प्रधान भी इनके उड़न-खटोले में विहार करते रहता है.
गुरुवार- बृहस्पति आध्यात्मिक ग्रह है. इस दिन नाखून काटने से सत्त्व गुणों की वृद्धि होती है. पूजा-पाठ और आध्यात्म की तरफ आकर्षण पैदा होता है. लोग शिरडी, बनारस, संगम वगैरह न केवल जाते हैं बल्कि पांच दस साल तक वहीं जमे रहने या आने-जाने का जुगाड़ जमाने लग जाते हैं.
शुक्रवार- प्रेम और कला के दिन के लिए मशहूर 'शुक्रवार' को नाखून काटने से करीबी दोस्तों या परिवार से मिलने के अवसर प्राप्त होते हैं. इसके लिए लंबी दूरी की यात्रा तक करनी पड़ सकती है. खोई हुई लोकप्रियता प्राप्त करने और बहुजन को जोड़ने का अभियान इस दिन नाख़ून काटने से शुरू होता है. अगर आपके संबंध बन नहीं पाए या बिगड़ गए हैं तो ज़रा नाख़ून काट कर देख लीजिये. डॉक्टर भी तो आप पर प्रयोग करता है और तीन-तीन दिन के हिसाब से दवाइयां बदलता है.
शनिवार- शनिवार को भूलकर भी नाख़ूनों को काटने से बचना चाहिए. इससे दिमाग़ कमज़ोर होता है और मानसिक दिक्कतें पैदा होती हैं.जिनका दिमाग़ ख़राब है वे ही इस दिन नाख़ून काटते हैं. राजनीति में ख़रीद फ़रोख़्त कर दूसरों का दल तोड़ने और अपने दल में ग़द्दारों को शामिल करने वाले लोग इसी श्रेणी में आते हैं. बात बे बात बिगड़ जानेवाले लोग भी तो पागल ही कहे जाते हैं. आपने काट लिए क्या, कोई बात नहीं बुधवार को नेलकटर झूठ-मूठ चला लेना. शनिवार को क्या पता चलता है, बुधवार तो आपकी बुद्धि देखकर प्रसन्न हो जाएगा.
रविवार- लोग अवकाश या छुट्टी होने की वजह से रविवार के दिन नाखून काटते हैं. इस दिन नाखून काटने से बचना चाहिए, क्योंकि इस दिन शाही मुलाज़मत या राजकीय सेवा करने में समय की बर्बादी होती है. अवसरवादी और दलबदलू लोगों की संख्या रविवार को नाख़ून काटने से बढ़ रही है.
@डॉ. आर.रामकुमार.
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