अट्ठहासों के भरोसे
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जब कभी प्रतिमा गढूं मन की शिलाओं पर
चित्र तो बनते नहीं, चिंगारियां निकलें।
चित्र तो बनते नहीं, चिंगारियां निकलें।
कंटकों की यात्रा के घाव गहरे हैं।
शूल से चुभते हुए उद्भ्रांत चहरे हैं।
भूल जाता क्यों नहीं मन चोट सब पिछली,
क्या समय के चिकित्सक निरुपाय ठहरे हैं?
इस नगर से उस नगर तक, भाग कर देखा-
हर अपरिचित विषमता से यारियां निकलें।
शौर्य के, उत्साह के दिन सींखचों में हैं।
और सद्भावों के सपने खंढरों में हैं।
जो निराशाएं गड़ा आया था मलबों में
वो निकाली जा चुकी हैं, आहतों में हैं।
हर चिकित्सालय से मैं भयभीत रहता हूँ
क्या पता, मुर्दा कहां, खुद्दारियाँ निकलें!
मर चुकी पाने की इच्छा, कुंद अभिलाषा।
दोगली लगने लगी है - आज की भाषा।
वाम, द्रोही, नास्तिक, कुंठित, भ्रमित, विक्षिप्त,
छद्म-जीवी गढ़ रहे हैं मेरी परिभाषा।
अट्ठहासों के भरोसे जी रहे जुमले,
घोषणाओं में भी जिनकी, गालियां निकलें।
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@कुमार, १५ अगस्त २०२२, ५.३० प्रातः
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Comments
दोष देने से ही सार्थक नहीं हो जाता ।
यूँ आक्रोश में लिखा अच्छा है ।
फिर इस निर्णय से गहरी नींद आयी कि..
सुना भी है और चखकर भी देखा है कि सच कड़वा होता है,
किंतु यह भी सच है कि हर कड़वी बात सच नहीं होती।