गीता, गीत, गीतांजली!!
0.
भूलकर सारी दुनिया की रंगीनियां,
रंग में मेरे, मन तुम रंगाओ प्रिये।
दुःख के बादल ये काले बिखर जाएंगे,
ठोस विश्वास मुझ पर जो लाओ प्रिये। *
1.
गीत, गीतांजली और गीता सभी,
मन की गहराइयों के विविध-चित्र हैं।
द्वेष के, ईर्ष्या के सघन द्वंद्व में,
मोह, अनुराग, निष्ठा, सहज-मित्र हैं।
इनसे लड़ना भी है, इनसे बचना भी है,
कोई रणनीति तुम भी बनाओ प्रिये! ♂♀
2.
कर्म के मार्ग पर नागफणियाँ उगीं,
वृक्ष फलदार होंगे, ये मत सोचना।
रोपकर मात्र कर्त्तव्य, क्यारी में तुम
भाल से जो पसीना बहे, सींचना।
कल के श्रम-वृक्ष से आज के फल मिले,
बीज उपवन में उनके उगाओ प्रिये। ^
3.
काल के तार में क्षण के मनके हैं हम,
रेत नदियों में जैसी बहे, हम बहें।
रंग रूपाकृति भाव व्यवहार सब,
हर युगों में बदलते हैं, क्या कुछ कहें।
कौन तुम, कौन हम, कल कहाँ, कब हुए,
आज जो भी हैं वैसा निभाओ प्रिये!°~™
@कुमार,
रविवार, २१.०८.२२, अपरान्ह ०१.१५-०२.००
संश्रोत :
०
0. • सर्वधर्मान्परित्यज्य,
मामेकं शरणं व्रज।
अहं त्वा सर्वपापेभ्यो,
मोक्षयिष्यामि मा शुचः।।१८.६६।।
.....
1. ♂♀ ध्यायतो विषयान्पुंसः
सङ्ग: तेषु उपजायते।
सङ्गात् संजायते कामः
कामात्क्रोधोऽभिजायते।।२.६२।।
....
2. ^ कर्मण्येवाधिकारस्ते
मा फलेषु कदाचन।
मा कर्मफलहेतुर्भू:
मा ते सङ्गोऽस्त्वकर्मणि।। ०२.४७।
....
3. ° बहूनि मे व्यतीतानि
जन्मानि तव चार्जुन।
तान्यहं वेद सर्वाणि
न त्वं वेत्थ परन्तप।।४.५।। 1
~ देहिनोऽस्मिन्यथा देहे
कौमारं यौवनं जरा।
तथा देहान्तरप्राप्ति:
धीरस्तत्र न मुह्यति।।२.१३।। 2
™ वासांसि जीर्णानि यथा विहाय
नवानि गृह्णाति नरोऽपराणि।
तथा शरीराणि विहाय जीर्णानि
अन्यानि संयाति नवानि देही।।२.२२।।
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