रत्नाकर_की_वंशबेल : नवगीत
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धीरे धीरे सही, खुल रहा,
गुप्त-गुफ़ा का द्वार।
गुप्त-गुफ़ा का द्वार।
कुछ रहस्य है
सम-धर्मा लोगों में
बढ़ा खिंचाव।
आगे दम्भ,
आक्रमण-मुद्रा,
पीछे हुआ लगाव।
संवादों को आशंकाएं
रहीं मौन दुत्कार।
दकियानूसी भाईचारा
मेल-जोल, सह-जीवन।
तर्कों के भाले चमकाता
कट्टरपंथी दुर्जन।
दुआ सलामी और प्रणामी
ले निकलीं हथियार।
रत्नाकर की वंश बेल में
हृदय नहीं फलते हैं।
कंक्रीट के क्रूर क्रोड़ में
लूट लोभ पलते हैं।
इस जंगल में कोई हो जो
छुपकर करे न वार।
@कुमार, दि.२१.०४.२०२२, गुरुवार।
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