अगर फिरदौस बर रूए ज़मीं अस्त
यह शेर कश्मीर के संदर्भ में इतने अधिक बार बोला गया है कि अब यह कश्मीर पर ही लिखा हुआ लगता है और इसी रूप में स्थापित भी हो गया है। यद्यपि इस पूरे शेर में कश्मीर कहीं आया नहीं है। फ़िरदौस शब्द जन्नत के लिए है। यह ज़मीन के हर उस हिस्से का प्रतिनिधित्व करता है जो स्वर्ग की तरह है। लेकिन स्वर्ग देखा किसने है कि कहां है और कैसा है। स्वर्ग एक ख़्याली पुलाव है। भारत और दुनिया के लोगों ने कश्मीर ज़रूर देखा है। ग़रीबों ने और मध्यमवर्गी लोगों ने फिल्मों के माध्यम से कश्मीर देखा है। कश्मीर की वादियों पर बहुत फिल्में बनीं जैसे कश्मीर की कली, जंगली, आरज़ू, जब जब फूल खिले, बेमिसाल, शीन आदि। कुछ गीत भी रचे गए हैं जिससे कश्मीर का पता चले। जैसे "कितनी ख़ूबसूरत ये तस्वीर है, ये कश्मीर है।" या फिर "ये तो कश्मीर है, इसकी फ़िज़ा का क्या कहना।" यह भी गीत है,"काशमिर की कली हूँ मैं, मुरझा गयी तो फिर न खिलूंगी, कभी नहीं, कभी नहीं।"
लेकिन कश्मीर की कली तमाम विपरीत परिस्थितियों में खिल रही है।
1947 के बाद जितना भी कश्मीर भारत में आया वह हमेशा विवादों में रहा है। जम्मू और कश्मीर नाम से जो प्रान्त बना, वह भी विशेष दर्ज़े में रहा। कश्मीर का एक भाग पाक अधिकृत कहलाता रहा और उसके भारतीयकरण की आजमाइशें चलती रहीं। लेह और लद्दाख का कुछ हिस्सा अक्साई चीन या सियाचिन होकर रह गया, जो कुछ काल पूर्व तक कश्मीर होने के भ्रमजाल में फंसा रहा। अब भारत के पास नया नक़्शा है, जिसके मुताबिक़ पाक-अधिकृत कश्मीर, कश्मीर का हिस्सा और चीन-अधिकृत सियाचिन, लद्दाख और लेह का हिस्सा।
जम्मू कश्मीर में श्रीनगर भी है। यह पुराने कश्मीर की ग्रीष्म कालीन राजधानी भी है। हिमालय श्रृंखला का सबसे बड़ा, सुन्दर और झीलों के लिए प्रसिद्ध नगर यही है जिसने कश्मीर को स्वर्ग बनाया। यह जम्मू के बहुत ऊपर बसा है। जम्मू कश्मीर की शीतकालीन राजधानी है। यहां की डल-झील पर्यटन और फिल्मकारों का स्वर्ग है। इसी क्षेत्र में स्वतंत्रता के तीन दशक बाद ही हिंदुओं को पलायन, बलात्कार और सामूहिक हत्याओं का शिकार होना पड़ा।
इतने जुल्मों के बाद भी कश्मीर ने अपना सौंदर्य नहीं खोया।
यह अजीब बात है कि इतिहास अपना रूप खो देता है। अपने सच और झूठ खो देता है। लेकिन ज़मीन अपना सौंदर्य अपनी सच्चाई के साथ कभी नहीं खोती। कश्मीर भारत जैसे सुंदर देश का अगर सिर है तो झीलों का नगर श्रीनगर उस पर जगमगाता किरीट है। जिस किसी ने भी कश्मीर की सैर की है, वह उसके स्वर्गोपम अर्थात् अतुलनीय सौंदर्य से प्रभावित हुए बिना नहीं रहा।
अगर फिरदौस बर रूए ज़मीं अस्त
अमी अस्तो अमी अस्तो अमी अस्त।।
अगर आप यह जानना चाहते हैं कि यह शेर किसका है तो आपको अब बहुत भटकना पड़ेगा। गूगल गुरुजी भी इन दिनों चकराए हुए हैं। उनके पास किसी भी विषय की कोई प्रामाणिक जानकारी नहीं है। तरह तरह के आई टी सेलों ने, तथ्य इतने तोड़-मरोड़ डाले हैं कि हर विषय में गूगल महाराज भ्रमित और सन्न दिखाई देते हैं। अब इसी शेर को लीजिए। कोई कहता है इसका शायर अज्ञात है। इसकी फारसी देखकर कोई इसे अमीर खुसरो का कहता है। किसी ने इसमें आये फिदौस शब्द को और शायर फिरदौसी के घालमेल से इसे एक नए शायर का जन्म करवाकर फ़िरदौस बना दिया। डॉ. मलिक मुहमद की पुस्तक 'अमीर खुसरो' में इस शेर का कहीं ज़िक्र नहीं है। यानी यह शेर अमीर खुसरो का नहीं है। और फ़िरदौस कोई है ही नहीं पुराना फ़ारसी शायर तो उसका भी नहीं हो सकता। यह इतना धर्म निरपेक्ष और सार्वभौमिक शेर है कि किसी भी फ़िरदौस पर लागू हो सकता है। कश्मीर हो या पेरिस। रोम हो कि टोकियो।
मगर चूंकि अमीर खुसरो ने हिंदवी की शान बढ़ाई, फ़ारसी और हिंदवी को अगल-बगल बिठाए रखा तो लखनऊ में इसे अमीर खुसरो के नाम से याद किया गया।
हजरत निजामुद्दीन औलिया के शिष्य अमीर खुसरो को हिंदी प्रिय थी। इतनी कि वे कहते थे -
शक्कर-इ-मिस्री न दरम कज़ अरब गोयं सुखन।।
यानी मैं हिंदुस्तानी तुर्क हूं और हिंदवी में जवाब देता हूं। मैं मिस्र (इजिप्ट) की शक्कर नहीं खाता कि आपको अरब में जवाब दूं।
चूं मन तूती-इ-हिन्दम अर रस्त पुरसी।
ज़े मन हिन्दवी पुरस्ता नग्ज़ गोयम।।
अर्थात् मैं तो हिंदुस्तानी तोता हूँ। आप मीठा ही बोलना चाहते हैं तो हिंदी में बोलिये।
इसे सच्चा राष्ट्रवादी नहीं कहेंगे? काफ़िर की परिभाषा यहां लागू होगी क्या? ग़द्दार का फतवा दोगे क्या? हिंदी साहित्य के पहले लेखक गार्सा द तासी ने उन्हें तूती-ए-हिंदी के रूप में ही मान्यता दी। ऐसे 'हिन्द-भक्त' से जुड़कर ही यह शेर भारतीय हो जाता है और फ़िरदौस निश्चित रूप से कश्मीर।
@डॉ. आर.रामकुमार,
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