महाभारत की कूटनयिक जंगी प्रासंगिकता
रूस से अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ते हुए यूक्रेन ने भारत से सहायता और सहयोग की अपील की है और उसे महाभारत की दुहाई दी है। इसके पीछे के निहितार्थ को कितने प्रतिशत भारतीय समझ पाए, यह आंकलन मुश्किल है। हम सामान्य जनों से मिलकर बने भारत से इस जानकारी की उम्मीद नहीं रखते कि महाभारत युद्ध में किस विदेशी सत्ता ने किस हैसियत से सहायता पहुंचायी और किसे पहुंचाई?
महाभारत का जाना-पहचाना प्रसंग यह है कि एक ही वंशवृक्ष की दो शाखाएं आपस में टकरा रहीं थीं। सत्ता पर आसीन शाखा अपना वर्चस्व सिद्ध कर रही थी और दूसरी शाखा अपनी नीति की लड़ाई लड़ रही थी। जो सत्ता पर है, वह भी भारत है और उसी भारत से यूक्रेन की सत्ता, महाभारत के नाम पर सहयोग की गुहार कर रही है। सत्तासीन भारत अपने मित्र राष्ट्र की सत्ता से अस्तित्व की लड़ाईवाली सत्ता द्वारा की गई सहायता की गुहार के किस निहितार्थ को समझ रहा है, इसका अनुमान राजनैतिक समीक्षक ही लगा सकते हैं। दूसरी तरफ आकार और संभवतः शक्ति में रूस की तुलना में छोटा देश है यूक्रेन, जो अपनी अस्मिता और स्वन्त्रतता बनाये रखने के लिए लड़ रहा है। यानी नीतिगत लड़ाई लड़ रहा है। अमेरिका जैसे देश ने उसका सहयोग करने से अपने दूतावास सहित अपनी सहमति पीछे खींच ली है। राजनैतिक चिन्तकों, विचारकों और प्रचारकों का कहना है कि अमेरिका अगर यूक्रेन का साथ देगा तो विश्व युद्ध होगा। विश्वयुद्ध और महाभारत के परिणाम घातक ही होते हैं।
महाभारत, (भावार्थ युद्ध) और सत्ता एक दूसरे के पर्याय हैं। सत्ता पाने और बनाये रखने के लिए युद्ध एक आवश्यक अनिवार्यता है, जैसा कि महाभारत की प्रासंगिकता से स्पष्ट होता है। युद्धोत्पन्न आधुनिक महाभारत स्वतंत्रता के बाद लगातार युद्ध कर रहा है। अपनी सीमाओं की रक्षा के लिए और अपनी आंतरिक और बाह्य सार्वभौमिकता बचाये रखने के लिए।
भारत अद्भुत प्रासंगिकताओं का देश तो है ही, अद्भुत संयोगों का देश भी है। यह आज के प्रसंग में संयोग है कि रूस स्वतंत्र भारत का मित्र राष्ट्र रहा है। यह भी अद्भुत संयोग था कि नई सामरिक कूटनीतियों पर दो दो संधियों पर हस्ताक्षर के बाद लगातार पहले और विधि-सम्मत दूसरे प्रधानमंत्री की हृदयगति रुकने से मृत्यु हो गयी।
किन्तु यूक्रेन ने इस प्रसंग की याद दिलाकर भारत से सहायता नहीं मांगी है। महाभारत में एक प्रबल प्रसंग है जिसमें कृष्ण शांतिदूत बनकर पांडवों और कौरवों के बीच शांति स्थापित करवाना चाहते हैं, केवल पांच गांव लेकर। किन्तु सत्ताधारी दुर्योधन एक इंच जगह देने को राजी नहीं होता। यूक्रेन ने यहां स्पष्टतः रूस को दुर्योधन कहना चाहा और स्वयं पांडव की तरह नैतिकता की लड़ाई लड़नेवाला हो गया। इस प्रसंग में भारत कृष्ण की भूमिका के लिए आमंत्रित किया गया है। भारत ने अपनी भूमिका निभा ली और रूस से शांति वार्त्ता कर ली।
युद्ध के प्रसंग में अब फिर भारत-रूस-मैत्री नए संयोग की तलाश कर रही है। यह भी संयोग है कि रूस यूक्रेन को जीतने के लिये युद्ध कर रहा है और भारत चुनावी लड़ाई में व्यस्त है। राजनैतिक विश्लेषक कह रहे हैं कि इसका अच्छा असर सत्ताधारी-भारत के पक्ष में पड़ेगा।
क्या महाभारत की प्रासंगिकता अपने अनेक अमर पात्रों की तरह अमर है और सम्पूर्ण विश्व अनंतकाल तक महाभारत को युद्ध का प्रतीक समझकर भारत से सहायता मांगेगा?
महाभारत साहित्य और मीडिया के लिये भी प्रासंगिक रहा है। भारत बाहरी और आंतरिक युद्धों से निरंतर घिरा रहा है। अखंड को खंड खंड होते और खंड खंड को अखंड करने के लिए युद्ध प्रासंगिक हो जाता है। ऐसे भारत में महाभारत का प्रासंगिक बना रहना स्वाभाविक ही है। महाभारत और रामायण युद्धों पर आधारित महाकाव्य हैं। इसलिए बीसवीं सदी के अंतिम दो दशकों में जब भारत ने स्वयं एक ही परिवार के दो सदस्यों को निजी सुरक्षा सैनिकों और आंतरिक अलगाववादी संगठन के बारूदों के शिकार होते हुए देखा तो रामायण और महाभारत फिर प्रासंगिक हो गए। फ़िल्म बनानेवाले कुशल व्यापारियों ने घर घर में स्थापित डिब्बेनुमा थिएटर अर्थात् टीवी के माध्यम से नौवें दशक के अंत में रामायण और महाभारत का प्रसारण किया। यह जादुई प्रसारण जनता को घरों में और नुक्कड़ों में घंटों बांधे रखने में सफल हुआ। जनता देश की और अपनी तकलीफें भूलकर रामायण और महाभारत के तकनीकी युद्ध कौशल में तली तक डूब गयी। अजीब संयोग है कि यह युद्ध-प्रसंग औद्योगिक, सांस्कृतिक, तकनीकी और धार्मिक विकास के जादू की तरह देखा जाने लगा।
संबंध भी द्वंद्वात्मक होते ही हैं। दोनों महाकाव्यों में यही द्वंद्वात्मक युद्ध कदम कदम पर दिखाई देते है। जनतंत्र में, संबंधों के अंतर्गत जाति, कुनबे, संस्कृति, समाज, वाद, विचार, संगठन सभी के द्वारा, अपने-अपने प्रसंगों में, खंड-खंड पात्रों और कथाओं को रेखांकित करने की स्वतंत्रता मिली और अवसर मिले।
रामायण और महाभारत के पात्रों को लेकर अनेक खण्ड में कथाख्यान या उपन्यास लिखनेवालों में राजनीतिज्ञ भी हुए और अध्यापक भी। स्वतंत्र भारत अहिंसात्मक युद्ध का तथाकथित उत्पाद है। विश्वशक्ति से महासमर के बाद आज़ाद भारत ने अपना संविधान लिखना आरम्भ किया तो उस संविधान सभा में गुजरात के विद्वान मुंशी कन्हैयालाल माणिकलाल (भार्गव) भी थे जिन्होंने चार राजनीतिक दलों में लक्ष्यप्राप्ति का संघर्ष किया। महाभारत और रामायण उनके लिए भी प्रासंगिक थी। 'कृष्णावतार' के सात खण्ड और 'भगवान परसुराम' लिखकर उन्होंने अपने मन्तव्य का प्रक्षेपण किया।
गुलाम भारत के अंतिम गवर्नर जनरल चक्रवर्ती राजगोपालाचारी ने नए भारत के मंत्रीमंडल में रहते हुए 'रामायण' और 'महाभारत' ग्रंथ लिखे।
भारतीय राष्ट्रीय कवियों में डॉ.रामधारी सिंह दिनकर और मैथिलीशरण गुप्त ने क्रमशः महाभारत और रामायण को आधार बनाकर 'रश्मीरथी' और 'साकेत' लिखा। छायावादी प्रगतिशील कवि सूर्यकांत त्रिपाठी निराला भी रामायण और महाभारत की प्रासंगिकता से अछूते नहीं रहे। 'राम की शक्तिपूजा' और 'महाभारत' उनकी प्रसिद्ध रचनाएं हैं। डॉ. धर्मवीर भारती की काव्यकृति 'अन्धायुग' भी महाभारत की कविता-कथा है।
समकालीन भारत में नरेंद्र कोहली ने महाभारत और रामायण की पृष्ठभूमियों पर उपन्यास श्रृंखलाओं का एक युग दिया। इनमें 'पृष्ठभूमि', 'अवसर', 'महासमर', 'युद्ध' और 'संघर्ष की ओर' का उल्लेख प्रासंगिक है।
शिवाजी सावंत पेशे से अध्यापक थे। उन्होंने महाभारत में कृष्ण और भीष्म के बाद के तेजस्वी और नीति निष्ठ चरित्र कर्ण पर एक उपन्यास लिखा 'मृत्युंजय'। इस उपन्यास में उन्होंने कृष्ण, कुंती, दुर्योधन और कर्ण की दृष्टि से कर्ण के उदात्त चरित्र का अवगाहन किया।
अतः तथा अस्तु, जब तक युद्ध के संयोग आते रहेंगे, रामायण और महाभारत प्रासंगिक बने रहेंगे।
1-2 फरवरी 2022,
लिंक 1
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लिंक 2
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