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रचनाकारों के लिए अनिवार्य सूक्त

किसी भी रचना, गीत, ग़ज़ल, मुक्तक, कविता, लेख आदि के लिए अनिवार्य नियामक सूक्त :

( *अनुरोध* : कृपया प्रथम दृष्टया पढ़कर न तो धार्मिक हो जाएं  न हंसने लगें।) 


दोहा : 

*स्नान, ध्यान, चिंतन, मनन, समिधा, वस्तु प्रबंध।* 

*फलाहार, उपवास, व्रत, साधक के अनुबंध।* 


शब्दार्थ :

*स्नान* : अवगाहन, किसी विषय का डूबकर अध्ययन, स्नातक होने की दिशा में चेष्टाएँ। 

*ध्यान* : एकाग्रता, अपने कर्त्तव्य के प्रति पूर्ण निष्ठा, आपने उद्देश्य की सतत स्मृति।

*चिंतन* : अपनी, अपने परिवार की, अपने परिवेश, प्रान्त और देश की दशा दुर्दशा पर विचार, सतत निरीक्षण, समस्या से मुक्त होने/समाधान की तलाश।

*मनन* : किसी भी समस्या की जड़ तक पहुंचने और उसके उन्मूलन का अनुसंधान, अब तक उस विषय में हुए अनुसंधानों का अनुशीलन। 

*समिधा* : जिस विषय /विधा के पूरा करने का मानसिक संकल्प लिया है, उसमें सहायक समस्त सामग्रियों के चयन- संचयन  का ईमानदार प्रयास, शिल्प, भाषा,  शब्द सम्पदा, शब्द शक्ति, रस ,छंद, अलंकार, सम्बन्धित विधा या विषय में प्रसिद्ध कृतियों का सिंहावलोकन। 

*वस्तु-प्रबंध* : उपयोग में आनेवाली सहायक सामग्री, तथ्यात्मक अनुभव, घटनाएं, वक्तव्य, विचार, विचारधारा। 

*फलाहार* : परिणाम स्वरूप प्राप्त, सृजित रचना का बारम्बार अध्ययन, आत्मालोचन, रचना पर लाभ-हानि की दृष्टि से पूर्वावलोचन। फल स्वरूप प्राप्त रचना की गुणवत्ता, व्याकरण की दृष्टि से गुण-दोष पर विचार। 

*उपवास* : सामान्य मनोविकारों और मानवीय कमज़ोरियों से सायास उदासीनता अपनाना, निंदा, आलोचना, प्रत्यालोचना, द्वेष, उपेक्षा, मनमुटाव, दम्भ, दुराग्रह, अलगाव, अहंकारात्मक अनदेखियाँ, आदि दुर्गुणों से मानसिक रूप से दूर रहना। सम्पूर्ण रूप से एकाग्रता और एकाकी होकर अपनी रचनाधर्मिता के निकट बैठना। 

*व्रत*: किसी भी विधा या विषय में एक निश्चित रूप, आकार या प्रमाण का निर्धारण कर जब तक कार्य पूरा न हो, उसे न छोड़ने का संकल्प लेना ही व्रत है। यही 'प्राप्य वरान्निबोधत' व्रत है। 

*साधक* : कार्यशील व्यक्ति या सृजन-धर्मी।

*अनुबंध* : यम-नियम, शर्त, आचार-संहिता, पालनीय नियम, समय-सारिणी। 

डॉ. आर. रामकुमार, 

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