Skip to main content

अकेला चल रे उर्फ 'एकला चॅलो रे'



किसी भी समूह में उपस्थित साहित्य के समस्त गुणी जनों को  इस नवगीत का यह शीर्षक चौंका सकता है, क्योंकि मनुष्य समूह में रहता है और साहित्य का सरोकार भी सहित से है, जिससे यह शब्द बना साहित्य। वह अकेला चलने वाली बात कैसे कर सकता है? 

फिर भी  'चल अकेला' शीर्षक का यह गीत अवश्य पढ़ें। इसलिए कि इसमें वर्तमान समय की बाह्य और आंतरिक  भयावह स्थितियों का प्रासंगिक चित्रण है। पहले गीत पढ़ें फिर आगे की बात करेंगे। 
0
नवगीत : अकेला चल रे।
*
यदि सुनकर करुण पुकार, न आये कोई तेरे पास
साहसी!  रख खुद पर विश्वास,  अकेला चल रे, 
चल रे, अकेला चल रे, चल रे, अकेला चल रे 

यदि कोई करे ना बात, फेरकर मुंह बैठे।
जब भय की कुंडी मार, घरों में ही पैठे।
सजग उठ, निज प्राणों को खोल,
मुखर हो, मन की पीड़ा बोल, 
उद्यमी!  गा, होकर बिंदास, अकेला चल रे, 
चल रे अकेला चल रे, चल रे अकेला चल रे 

यदि सब हो जाएं दूर, पथिक पथ से तेरे।
यदि एकाकी पा तुझे, कठिन बाधा घेरे। 
चुभें, जो कांटे, सभी निकाल, 
रक्त-रंजित पग, पुनः संभाल,
भुलाकर, तन मन के संत्रास, अकेला चल रे।
चल रे, अकेला चल रे, चल रे, अकेला चल रे 

यदि रखे न कोई दीप, रात अंधियारी हो। 
बादल बिजली का शोर, और मन भारी हो। 
जगाकर मन में नव आलोक,
मिटा दे, तम के सारे शोक, 
खींचकर संकल्पों की सांस, अकेला चल रे।
चल रे, अकेला चल रे, चल रे, अकेला चल रे। 
                          (रवींद्रनाथ टैगोर के बंगाली गीत का छायानुवाद कुमार द्वारा।)
                            0
यदि आपने यह गीत पढ़ा और आगे भी पढ़ने की रुचि रख रहे हैं, तो निश्चित रूप से यह भावना प्रणम्य है।

यहां एक मजेदार बात आपको बताना चाहता हूं।

सन 1969 में एक फ़िल्म आयी थी संबंध। मैंने वह फ़िल्म नहीं देखी है। मेरे जैसे और भी होंगे जिन्होंने यह फ़िल्म नहीं देखी। कुछ ने नाम ही नहीं सुना होगा। लेकिन संभव है 'आओ बच्चों तुम्हें दिखाएं झांकी हिंसुस्तान की' गीत लिखने और गानेवाले कवि प्रदीप का तथा गायक मुकेश का यह गीत अनेक मित्रों ने अवश्य सुना होगा....

चल अकेला, चल अकेला, चल अकेला
तेरा मेला पीछे छूटा राही चल अकेला

हजारों मील लम्बे रास्ते तुझको बुलाते
यहाँ दुखड़े सहने के वासते तुझको बुलाते
है कौन सा वो इंसान यहाँ पर जिसने दुःख ना झेला
चल अकेला...

तेरा कोई साथ ना दे तो खुद से प्रीत जोड़ ले
बिछौना धरती को करके अरे आकाश ओढ़ ले
यहाँ पूरा खेल अभी जीवन का तूने कहाँ है खेला
चल अकेला...
00
एक गीत और प्रस्तुत है...

चल तू चलता रह एकाकी..

जब तेरी पुकार सुनकर भी कोई पास न आए।
चल तू चलता रह एकाकी अविचल कदम बढ़ाए।

हो ऐसा दुर्भाग्य न मुड़कर बात करे जब कोई।
मुख फेरे हों डरकर सबने सारी हिम्मत खोई।
तो निज भाग्य उलीच हृदय का राग-मुक्त तू गाए।
                          चल तू चलता रह एकाकी....

बीहड़ पथ में छोड़ तुझे सब बने पलायनवादी।
कोई मुड़कर भी न लखे जब तुझे समझ उन्मादी।
तब तेरे नव-रात अगुन से पथ कंटक बिछ जाए।
                          चल तू चलता रह एकाकी....

जब बरसाती रैन अँधेरी बन जाये तूफानी।
सब के द्वार बंद हो जाएं मिले न ज्योति ईशानी।
तब सीने पर वज्राघात रख अंतर स्वयं जलाए।
                          चल तू चलता रह एकाकी....

                                              (@अज्ञात)

 विद्वतजनों ने इन गीतों में एक समानता देखी होगी। दोनों गीतों की भाव-भूमि एक ही है। ऐसा लगता है दोनों गीत एक दूसरे के अनुवाद हैं। क्या अपने आपमें समर्थ कवि प्रदीप किसी का अनुवाद कर सकते हैं?
आपका उत्तर है नहीं।
किन्तु ऐसा हुआ है। संस्कृत साहित्य के सूक्तियों और श्लोकों को आधार बनाकर अनेक कवियों ने गीत प्रसंगवश लिखे है।
कवि प्रदीप ने भी यह गीत भी एक बंगाली गीत का अनुवाद करते हुए लिखा है।
चूंकि आज उस बंगाली गीत की चर्चा का प्रसंग बनता है इसलिए कवि प्रदीप जी के गीत को  प्रस्तुत करना पड़ा।

क्योंकि आज 7 मई है

गुरुदेव कविवर रवींद्रनाथ टैगोर का जन्म आज के दिन हुआ था।
उनका एक  गीत ' एकला चलो रे' बहुत लोकप्रिय हुआ। उसी गीत का हिंदी अनुवाद हैं ये दोनों गीत।  ७ मई, १८६१ को जन्मे कविवर रवींद्रनाथ टैगोर ने १९०५ में एक संगीत एल्बम तैयार करवाया, जिसमें यह गीत सम्मिलित हुआ। तब उनकी आयु ४४ के आसपास रही होगी। १९१३ में साहित्य के लिए संपूर्ण एशिया में पहली बार नोबल पुरस्कार से नवाजे जानेवाले वे पहले भारतीय थे। उनको इस गीत को लिखने और संगीतबद्ध करने की क्या विवशता पड़ी? जबकि गुरुदेव के नाम से साहित्य जगत में सम्मानित कविवर  का पूरा परिवार साहित्य, अध्यात्म, संगीत और ललित कला के लिए प्रसिद्ध था।  ऐसा व्यक्ति अकेला चलने की बात करे और यह गीत रचे, आश्चर्य होता है। परन्तु एक-एक पद में, पंक्ति में कवि ने जिस संघर्ष और जीवंतता की बात की है और अपराजित भाव से अकेले ही संघर्ष करने, बाधाओं का साहसपूर्वक सामना करने की बात की है वह अनुकरणीय है। 
आज भी यह गीत उन सभी जीवंत व्यक्तियों के लिए प्रासंगिक है जो अपना एक भिन्न सपना लेकर अकेले चल रहे हैं इस विश्वास के साथ कि एक दिन  उसके मिज़ाज़ के लोग आएंगे और कारवां बनता चला जायेगा। उन सबके लिए है यह गीत.
आप सभी को गुरुदेव कविवर टैगोर के जन्म दिन की बधाई!
प्रस्तुत है उनका गीत हिंदी अनुवाद के साथ....

একলা চলো রে : (एकला चॉलो रे, अकेला चल रे)
যদি তোর ডাক শুনে কেউ না আসে তবে একলা চলো রে । একলা চলো একলা চলো একলা চলো একলা চলো রে ।।

যদি কেউ কথা না কয়, ওরে ও অভাগা,
যদি সবাই থাকে মুখ ফিরায়ে,  সবাই করে ভয় তবে পরান খুলে ও তুই মুখ ফুটে তোর মনের কথা একলা বলো রে ।।

যদি সবাই ফিরে যায়, ও রে ও অভাগা, যদি গহন পথে যাবার কালে কেউ ফিরে না চায় তবে পথের কাঁটা ও তুই রক্তমাখা চরণতলে একলা দলো রে ।।

যদি আলো না ধরে, ওরে ও অভাগা, যদি ঝড়-বাদলে আঁধার রাতে দুয়ার দেয় ঘরে তবে বজ্রানলে আপন বুকের পাঁজর জ্বালিয়ে নিয়ে একলা জ্বলোরে ।।

Here is the translation in prose of the Bengali original rendered by Rabindranath Tagore himself.[6]

If there is no-one responding to your call - then go on all alone.

If no-one speaks (to you), don't think you are unfortunate, if no-one speaks (to you),
If everyone turns away, if everyone fears (to speak), then with an open heart without hesitation speak your mind alone

If everyone walks away, O unlucky one, everyone walks away
If no-one looks back towards the (your) unpredictable path, then with thorn pricked (of the path) bloodied feet, walk alone.
If no-one heeds your call - then walk alone.

If no-one shines a light (on the path), O unlucky one,
If the dark night brings thunder and storm at the door - then let the lightning ignite the light in you alone to shine on the path.
If no-one heeds your call - then walk alone

हिंदी अनुवाद
यदि तुम्हारी पुकार सुनकर कोई नहीं आता, तब अकेले चलो रे।
अकेले चलो, अकेले चलो, अकेले चलो, अकेले चलो रे!

यदि कोई बात ना करे, जब सभी मुंह फेरे बैठे हों, सब भयभीत हों, तब पूरे प्राणों से (दिल खोलकर), मुखर होकर अपने मन की व्यथा अकेले बोलते (गाते) चलो।

यदि सारे लोग दूर चले जाएं, यदि गहन (लंबे) पथ पर चलते हुए कोई तुम्हारी ओर ना घूमना चाहे ( तुम्हारा साथ ना दे), तब पथों के कांटों  को अपने रक्तसने पैरों से अकेले ही दलों, (अकेले ही कुचल दो).

यदि तुम्हारे मार्ग में कोई दीपक ना रखे, यदि घने बादलों वाली अंधेरी रातों में घर बिजलियों से घिरा हो, तब अपने ही भीतर की ज्वाला जगाकर अकेले ही जलो रे।
{Single by Rabindranath Tagore [1] from the album Record no 357 [1]  Released sometime between 1905 and 1908 [1] LabelH. Bose Swadeshi Records[1] Songwriter(s) Rabindranath Tagore.}

















Comments

Popular posts from this blog

तोता उड़ गया

और आखिर अपनी आदत के मुताबिक मेरे पड़ौसी का तोता उड़ गया। उसके उड़ जाने की उम्मीद बिल्कुल नहीं थी। वह दिन भर खुले हुए दरवाजों के भीतर एक चाौखट पर बैठा रहता था। दोनों तरफ खुले हुए दरवाजे के बाहर जाने की उसने कभी कोशिश नहीं की। एक बार हाथों से जरूर उड़ा था। पड़ौसी की लड़की के हाथों में उसके नाखून गड़ गए थे। वह घबराई तो घबराहट में तोते ने उड़ान भर ली। वह उड़ान अनभ्यस्त थी। थोडी दूर पर ही खत्म हो गई। तोता स्वेच्छा से पकड़ में आ गया। तोते या पक्षी की उड़ान या तो घबराने पर होती है या बहुत खुश होने पर। जानवरों के पास दौड़ पड़ने का हुनर होता है , पक्षियों के पास उड़ने का। पशुओं के पिल्ले या शावक खुशियों में कुलांचे भरते हैं। आनंद में जोर से चीखते हैं और भारी दुख पड़ने पर भी चीखते हैं। पक्षी भी कूकते हैं या उड़ते हैं। इस बार भी तोता किसी बात से घबराया होगा। पड़ौसी की पत्नी शासकीय प्रवास पर है। एक कारण यह भी हो सकता है। हो सकता है घर में सबसे ज्यादा वह उन्हें ही चाहता रहा हो। जैसा कि प्रायः होता है कि स्त्री ही घरेलू मामलों में चाहत और लगाव का प्रतीक होती है। दूसरा बड़ा जगजाहिर कारण यह है कि लाख पिजरों के सुख के ब

काग के भाग बड़े सजनी

पितृपक्ष में रसखान रोते हुए मिले। सजनी ने पूछा -‘क्यों रोते हो हे कवि!’ कवि ने कहा:‘ सजनी पितृ पक्ष लग गया है। एक बेसहारा चैनल ने पितृ पक्ष में कौवे की सराहना करते हुए एक पद की पंक्ति गलत सलत उठायी है कि कागा के भाग बड़े, कृश्न के हाथ से रोटी ले गया।’ सजनी ने हंसकर कहा-‘ यह तो तुम्हारी ही कविता का अंश है। जरा तोड़मरोड़कर प्रस्तुत किया है बस। तुम्हें खुश होना चाहिए । तुम तो रो रहे हो।’ कवि ने एक हिचकी लेकर कहा-‘ रोने की ही बात है ,हे सजनी! तोड़मोड़कर पेश करते तो उतनी बुरी बात नहीं है। कहते हैं यह कविता सूरदास ने लिखी है। एक कवि को अपनी कविता दूसरे के नाम से लगी देखकर रोना नहीं आएगा ? इन दिनों बाबरी-रामभूमि की संवेदनशीलता चल रही है। तो क्या जानबूझकर रसखान को खान मानकर वल्लभी सूरदास का नाम लगा दिया है। मनसे की तर्ज पर..?’ खिलखिलाकर हंस पड़ी सजनी-‘ भारतीय राजनीति की मार मध्यकाल तक चली गई कविराज ?’ फिर उसने अपने आंचल से कवि रसखान की आंखों से आंसू पोंछे और ढांढस बंधाने लगी। दृष्य में अंतरंगता को बढ़ते देख मैं एक शरीफ आदमी की तरह आगे बढ़ गया। मेरे साथ रसखान का कौवा भी कांव कांव करता चला आया।

सूप बोले तो बोले छलनी भी..

सूप बुहारे, तौले, झाड़े चलनी झर-झर बोले। साहूकारों में आये तो चोर बहुत मुंह खोले। एक कहावत है, 'लोक-उक्ति' है (लोकोक्ति) - 'सूप बोले तो बोले, चलनी बोले जिसमें सौ छेद।' ऊपर की पंक्तियां इसी लोकोक्ति का भावानुवाद है। ऊपर की कविता बहुत साफ है और चोर के दृष्टांत से उसे और स्पष्ट कर दिया गया है। कविता कहती है कि सूप बोलता है क्योंकि वह झाड़-बुहार करता है। करता है तो बोलता है। चलनी तो जबरदस्ती मुंह खोलती है। कुछ ग्रहण करती तो नहीं जो भी सुना-समझा उसे झर-झर झार दिया ... खाली मुंह चल रहा है..झर-झर, झरर-झरर. बेमतलब मुंह चलाने के कारण ही उसका नाम चलनी पड़ा होगा। कुछ उसे छलनी कहते है.. शायद उसके इस व्यर्थ पाखंड के कारण, छल के कारण। काम में ऊपरी तौर पर दोनों में समानता है। सूप (सं - शूर्प) का काम है अनाज रहने देना और कचरा बाहर निकाल फेंकना। कुछ भारी कंकड़ पत्थर हों तो निकास की तरफ उन्हें खिसका देना ताकि कुशल-ग्रहणी उसे अपनी अनुभवी हथेलियों से सकेलकर साफ़ कर दे। चलनी उर्फ छलनी का पाखंड यह है कि वह अपने छेद के आकारानुसार कंकड़ भी निकाल दे और अगर उस आकार का अनाज हो तो उसे भी नि