मोर संग चलव रे उर्फ संगच्छध्वम् किसी भी शहर की सुंदरता, सुगढ़ता और जीवंतता की रीढ़ उस शहर के मजदूर हुआ करते हैं जो अनेक भेष में हमें मिल जाते हैं। कोई रिक्शा खींच रहा है, कोई हाथ ठेला पर भरे हुए बारदाने ढो रहा है। कोई गड्ढे खोद रहा है, घास खरपतवार उखाड़ रहा है, बगीचे साफ़ कर रहा है। मजदूरों को काम करते हुए देखकर ही लगता था कि शहर के फेफड़े कैसे और किनसे धड़कते हैं। एक तरह से जीवन की धड़कने सुनने मैं उस राह से गुज़रता था जहां मजदूर दिखाई पड़ते थे। राजनांदगांव में उस समय बंगाल नागपुर कॉटन मिल (कपड़े का कारखाना) हुआ करती थी। इस कारखाने में ही जगत्प्रसिद्ध मच्छरदानियाँ बना करती थीं। शाम को साढ़े पांच - छः के आसपास कारखाने के सामने कतारों में बैठे हुए मजदूर, अपने सामने बैठी हुई अपनी पत्नियों द्वारा लाया हुआ भोजन या कलेवा करते थे। मेरे लिए यह दृश्य दुख, पीड़ा और सुख की द्वंद्वात्मक अनुभूति कराया करते थे। फिर भी, मैं प्रायः रोज़ उसी रास्ते का उपयोग करता था, जो आगे चलकर रानी सागर के सामने से गुज़रते राष्ट्रीय राजमार्ग 7 उर्फ़ गांधी नेहरू रोड पर खुलता था। उस दिन भी मैं इसी रास्ते गुज़र रहा...