छील रहे कंधे दीवारों के
अंदर का खालीपन छैनी हथोड़ा है।
सुब्ह फिर दराती सी आयी है
हैं उसके हाथों में अंकुड़े सवालों के।
खींच रही है सबकी पीठों से
भरे हुए बोरे सब पिछले उजालों के।
भगदड़ में दहशत धकेली है
राहत के हर पल को छेड़ा, झंझोड़ा है।
पढ़े लिखे होने के दम्भों को,
खुलेआम नोंच रही नथुने के बालों सा।
खुजलाती घूम रही औरों को,
अपनी ही कुंठा के टीस रहे छालों सा।
क्रांति-भ्रांत अधकचरी पगलट ने
अपने ही फोड़ों को खुलकर नकोड़ा है।
सपनीली आंखें अपराधी हैं,
बाज़ों ने चिड़ियों पर बंदिश लगाई है।
घोंसलों के अंदर उड़ानें हों
सांपों ने पंखों पर उंगली उठाई है।
चौकड़ियाँ वर्जित हैं जंगल में
शेरों की नज़रों में हर हिरण भगोड़ा है।
@कुमार,
Comments