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किसान की चिंता : करता है साहित्य


साहित्य ने की है किसान की चिंता

यद्यपि तुलसीदास ने स्पष्ट रूप से आषाढ़ का नाम नहीं लिया, किन्तु उनके कथन से अनुमान लगाया जा सकता है कि वर्षा ऋतु के आगमन का अर्थ है वर्षागमन के पहले मास आषाढ़ के पहले दिन की गणना ...
कह प्रभु सुनु सुग्रीव हरीसा। पुर न जाउँ दस चारि बरीसा।।
गत ग्रीषम बरषा रितु आई। रहिहउँ निकट सैल पर छाई।।
अंगद सहित करहु तुम्ह राजू। संतत हृदय धरेहु मम काजू।।
जब सुग्रीव भवन फिरि आए। रामु प्रबरषन गिरि पर छाए।।
राम सुग्रीव से कहते हैं कि ग्रीष्म ऋतु बीत चुकी है और वर्षा ऋतु आ गयी है। चूंकि मैं चौदह वर्ष के वनवास पर हूं अतः किसी नगर में नहीं रह सकता। तुम अंगद सहित राज करो। यह सुनकर सुग्रीव अपने भवन में चले गए और राम लक्ष्मण सहित वर्षण गिरि पर छा गए। यहीं राम ने पहला चातुर्मास (आषाढ़, सावन, भाद्र, क्वांर) किया। तुलसी लिखते हैं -
फटिक सिला अति सुभ्र सुहाई। सुख आसीन तहाँ द्वौ भाई।।
कहत अनुज सन कथा अनेका। भगति बिरति नृपनीति बिबेका।

यहां विशेष रूप से देखने की बात यह है कि राम अपने अनुज लक्षमन के साथ 'अनेक भक्ति, विरक्ति, नृपनीति और विवेक की कथाएं' करते हुए वर्षावास अथवा चातुर्मास में भी पूर्णतः राग विरक्त नहीं हो पाए। अगले क्षण जब 'आषाढ़ के मेघ' को तुलसीदास राम के मुख से 'बरषा काल मेघ नभ छाए' कहलवाते हैं, तब अपनी मर्यादा का महिमामंडन करते हुए विरही राम कहते हैं, "यद्यपि वर्षा काल के मेघ को देखकर मेरे मन में अत्यंत हर्ष हो रहा है। अनुज लक्ष्मण! बादलों को देखकर मेरे मन का मोर नाच रहा है किंतु इस गृहस्थ के विरति-युक्त हर्ष को विष्णु के भक्त की भांति देख।
किन्तु, इसके बाद ही राम के मुंह से ऐसी बात निकल जाती है जिसको लेकर आज तक 'भौतिकवादी या यथार्थवादी विद्वान' राम के मर्यादा पुरुषोत्तम की उपाधि पर प्रश्न उठाते रहते हैं। वह विवादस्प्रद पंक्ति है :
घन घमंड नभ गरजत घोरा। प्रिया हीन डरपत मन मोरा।।
तदन्तर तुलसीदासजी अनेक उपमा-उपमानों के माध्यम से नीति और रीति के साथ-साथ भारतीय दर्शन का ऐसा इंद्रधनुष बनाते हैं जिसके सौंदर्य में 'प्रिया-हीन डरपत मन मोरा' की दुर्बलता छिप जाती है।
इसी बीच तुलसी ने ऐसी अद्भुत चौपाई दे दी जिससे तुलसी के जन-कवित्व की झलक मिलती है। गूढ़ और गम्भीर नीति और दर्शन के रूपक बांधनेवाले महाकवि तुलसी की 'विहंगम दृष्टि' 'धरतीपुत्र किसान' पर पड़ ही जाती है। लिखते हैं तुलसी-
कृषी निरावहिं चतुर किसाना। जिमि बुध तजहिं मोह मद माना।

यह पंक्ति श्रीमद्भगवतपुराण के द्वितीय खंड में भी आई है। (जेठ के) दावानल को पीकर तथा ब्रजवासियों को बचाकर जब कृष्ण-बलराम ब्रज पहुँचते हैं तब वर्षा-ऋतु (आषाढ़) आ जाती है। ऋषि-कवि कृष्ण द्वैपायन वेदव्यास इसी वर्णन में किसान को सम्मानपूर्वक स्थान देते हैं। दशवें स्कंध, बीसवें अध्याय के बारहवें और इकतालिसवे श्लोक में वे लिखते हैं -"क्षेत्राणि सस्यसम्पद्भि: कर्षकाणां मुदं ददुः"(१२) तथा "केदारेभ्यस्तवपोsगृह्णन् कर्षका दृढ़सेतुभि:"(४१).

मित्रों! कुछ पता चला क्या? आप मेघ के साथ-साथ चलते हुए दक्षिण से उत्तर पहुंच गए हैं। कबीर, सूर, तुलसी आदि के स्थानों पर। ठीक उसी सरलता के साथ जैसे भक्ति को लेकर रामानन्द दक्षिण से उत्तर पहुंचे थे। वो दोहा याद आया होगा "भगती द्राविड़ ऊपजी, लाये रामानंद। परगट कियो कबीर ने सप्त द्वीप नव खंड।" काशी में कबीर ने उस भक्ति को पकड़ा और जन-जन की शक्ति बना दिया।
साहित्य के मध्यकाल का पूर्वार्ध कबीर के गर्जन और सूर-तुलसी के भजनों से भरा हुआ है। उत्तरार्ध में रसखान, घनानंद और बिहारी के छंदों की छटा बिखरी पड़ी है। परन्तु इन दोनों से लगभग 600 साल पहले के आदिकाल या वीर गाथाकाल में कहीं रासो है तो कहीं वेली। आषाढ़ को ढूंढने की चेष्टा में मुझे वहां भी भ्रमण की जिज्ञासा हुई। आदिकाल या वीरगाथा काल के दो ग्रंथ हाथ की पहुंच में थे। एक "कृष्ण रुक्मिणी री वेली" और दूसरा "बीसलदेव रासो"। पहला ग्रंथ डिंगल का सर्वश्रेष्ठ ग्रंथ होने के गौरव से मुग्ध, दूसरे के रचयिता के बारे में कर्णिक अपघात होने से वह निकृष्ट होने के अभिशाप से दग्ध।

और यही वह स्थल है जहां 'आषाढ़' के 'पहले मेघ' का महत्व है। यह बड़े आश्चर्य की बात है कि जेठ की 'दावाग्नि'-सा ताप, विरह की आग से मिलकर जैसे आषाढ़ की प्रिया का आवाहन करता है। कालिदास, कबीर, सूर, तुलसी, रसखान, घनानन्द, जायसी आदि सभी ने विरह में दग्ध प्रिय-प्रियाओं/ ईश-जीव के प्रसंग में ही 'मेघों' को स्मरण किया है। यह प्राकृतिक भी है। ग्रीष्म के बाद ही तो मेघों की अभीप्सा होगी। कहा भी है -"जितनी उत्कट प्यास होगी, उतना मीठा जल लगेगा।"
घनानन्द ने कालिदास की तरह 'मेघ (पर्जन्य)' को दूत बनाया और कहा-
परकाजहि देह को धारि फिरौ परजन्य जथारथ ह्वै दरसौ।
निधि-नीर सुधा के समान करौ सबही बिधि सज्जनता सरसौ।
घनआनँद जीवन दायक हौ कछू मेरियौ पीर हियें परसौ।
कबहूँ वा बिसासी सुजान के आँगन मो अँसुवानहिं लै बरसौ॥
(पर्जन्य : पुल्लिंग, बरसनेवाला बादल, मेघ,)

यह भाव-साम्य व्यास जी ने 'भागवत' के दशम स्कंद के अंतिम 90 वे (नवतितम्) अध्याय के 20 वे श्लोक में देखने मिला, जब अपनी सोलह हजार पत्नियों के साथ विहार करके कृष्ण द्वारिका में राज-कार्य करने चले जाते हैं तो वे विरहिन हो जाती हैँ। बेसुध होकर कुररी, चकवी, समुद्र (द्वारिका जिसके बीच थी), चन्द्रमा मलयानिल, आदि से बातें करके अपनी व्यथा कहतीं, उसे अपने समूह में सम्मिलित करतीं। इसी क्रम में आये *श्रीमान मेघ*। आप मेघ का मान देखिये, कुररी चकवी तो ठीक है, सम्बोधन में 'अरी एरी' की ही योग्यता रखती हैं किंतु समुद्र और चन्द्र जैसे संभ्रात देव भी केवल *भो* (हे) में निपट गए। मेघ की बारी आई तो द्वारिकाधीश की रानियां उन्हें सम्मान से 'श्रीमन' कहकर संबोधित करती हैं... अद्भुत .. आप 'श्रीमान मेघ' का गौरव देख रहे हैं न, तभी महोदय इतना गरजते हैं। श्लोक देखें..
मेघ श्रीमन् त्वमसि दयितो यादवेंद्रस्य नूनम्
श्रीवत्सांक वयमिव भवान् ध्यायति प्रेमबद्ध:।
अत्युत्कण्ठ: शबलहृदयोsस्मद्विधो बाष्पधारा:
स्मृत्वा स्मृत्वा विसृजसि मुहुर्दु:खस्तत्प्रसंग:।।२०/९०.श्रीमद्भा.२
अर्थात् "श्रीमान मेघ महोदय, आप भी (मेघवर्णी) यादवेंद्र कृष्ण से कम आकर्षक नहीं हैं। 'हम भी' प्रेम में आबद्ध होकर (उनके अंग लग-लगकर) 'उनके' जैसी (मेघवर्णी) हो गयी हैं। तुम भी उन्हीं के प्रेम में मेघ-वर्ण हो गए हो क्या? तुम उड़-उड़ कर बरस रहे हो, हम उत्कंठित होकर बरस रही हैं। (मेघजी! सच कहना,) उनके प्रसङ्गों को बार-बार याद कर-करके हम अपने ही दुख नहीं बढ़ा रहे हैं क्या?

श्रीमद्भागवत में द्वारिका की '16 हजार रानियों' ने जो वार्त्ता मेघ से की, क्या वहीं से संस्कृत के कवि कालिदास ने मेघ को दूत बनाकर भेजने का विचार उठाया होगा? क्या जागृत कवियों को सामग्रियां ऐसे ही व्यापक अध्ययन से मिलती हैं? शोध-मर्मज्ञों को इन तथ्यों पर विचार करना चाहिए।
कवियों के इसी सामग्री-संग्रहण के परिणाम-स्वरूप चौदहवीं शताब्दी में डिंगल काव्य 'बीसलदेव रासो' में कालिदास की मेघ के 'स्वरूप'(मत्त गयंद) की कल्पना यथावत ले ली गयी है। बीसलदेव रासो के बहाने अजमेर के राजा बीसलदेव चव्हाण की तथा धार के परमार नरेश भोजराज की कन्या राजमती के विवाहेतर-वियोग की कहानी कवि नरपति नाल्ह ने कही है। जहां एक ओर 'मेघदूत' में एक वर्ष के लिए यक्ष को पत्नी से दूर होने का दंड मिला था, क्योंकि वह उससे प्रेम कर रहा था। वहीं दूसरी ओर बीसलदेव अपनी रानी राजमति के उलाहने से पीड़ित होकर बारह वर्ष के लिये स्वयं सुदूर पूर्व उडीसा चला गया था, जहां राजमति के अनुसार, अधिक सम्पन्नता थी। राजा हमेशा अजमेर की सम्पन्नता के गुण गाता था जो राजा भोज की बेटी को खटकता था। उसने भी अजमेर को पूर्व के प्रदेश से हीन बताकर राजा को नीचा दिखाया। फलस्वरूप दाम्पत्य में खटास आयी। राजा ने बारह वर्ष पूर्वी-देश में जाकर सम्पन्न होने का संकल्प लिया और चल पड़े। सजनी लाख मनाती रही लेकिन पुरुष के अहं को लगी चोट इतने से कैसे भरती। अस्तु विरही यक्ष को प्रेम का दण्ड मिला और विरहिन राजमति को उलाहने का। दोनों पीड़ितों ने मेघ को मतवाले हाथी के समान डोलते देखा। यक्ष का अनुभव ऊपर देखा जा चुका है, विरहिन राजमति का अनुभव देखिए :
आसाढ़इ धुरि बाहुडया मेह
खलहल्या खाल नइ बह गई खेह।
जइ रि आसाढ़ न आवई।
माता रे मइगल जेऊं पग देइ।
सद मतवाला जिमि ढुलई।
तिहि घरि ऊलग काइं करेइ। (बीसदे. 75/पृ.157)
अर्थ है कि धुर(एन) आषाढ़ में मेघ बहुर (लौट) आया है, खेत की मिट्टी खलभलाकर बहनेवाले नालों में बह गयी है। (किंतु मेरी दृष्टि में) यह आषाढ़ (का मेघ) नहीं आया है (अपितु ) मत्त-गयंद (मइगल) ने (मेरी तरफ) पांव रखा है। अभी अभी पीकर मतवाला हुए से वह लड़खड़ा रहा है। (इस स्थिति में मेरा रखवाला) उस घर में (परदेश में) कौन-सी चाकरी में लगा हुआ है? याद करने में राजमती यहां भी उलाहना दे रही है। स्वभाव होता है, क्या करें।
संयोग और वियोग के अवसरों में बारहमासों की परम्परा साहित्य में आदिकाल से है। चौदहवीं सदी के 'बीसलदेव रासो' में वियोगिन राजमती का पति कार्तिक मास में बिछुड़ा तो बारहमासा वहीं से शुरू हुआ और आषाढ़ को समेटता हुआ क्वांर (अश्विन मास) तक चला गया।
इससे लगभग दो सौ वर्ष बाद, सोलहवीं शताब्दी में राठौड़ पृथ्वीराज सृजित डिंगल (राजस्थानी) की सर्वश्रेष्ठ कृति 'क्रिसन रुक्मिणी री वेली' में वियोग का बारहमासा नहीं है। श्रीमद्भागवतपुराण में प्रथम प्रेम-पत्र का वर्णन है। यह प्रेमपत्र विदर्भ की अनिंद्य सौन्दर्यवती राजकुमारी रुक्मिणी ने द्वारिका के प्रतापी युवराज कृष्ण को लिखा था कि हे महावीर! सिंह के भोग को सियार खाना चाहता है। मुझे आकर ले जाओ। कृष्ण ने बार-बार रात भर उस प्रेमपत्र को पढ़ा और सुबह होते ही रुक्मिणी के अपहरण को अकेले निकल गये। हालांकि जैसे ही बलभद्र को पता चला तो वे सेना लेकर कृष्ण की सहायता के लिए उनके पीछे गए।
अपहरण और युद्धोपरांत रुक्मिणी और कृष्ण का विवाह हो जाता है। तब आरम्भ होता है मिलन और विहार का बारहमासा। संयोग का यह बारहमासा ग्रीष्म से प्रारम्भ होता है और शनै:-शनै: अन्य मासों को उपकृत्य करता जाता है। आषाढ़ को भी...
'तपि आसाढ़ तणउ तपन' के ब्याज से संयोग की भूमिका बनाते हुए कवि कहता है.'माघ माह के मावठे की भांति आषाढ़ की दोपहर में भी सन्नाटा है। आसाढ़ की तपन से बेचैन प्रियाहीन तो वनों के झरनों में नहाकर अपनी तपन शांत कर रहे हैं किंतु प्रिया-युक्त 'धणी भजइ धण पयोधर' अर्थात् धन्यभागी अपनी प्रिया के अंक में भागकर छुप जाते हैं। ( क्रिसन रुक्मिणी री वेळी, पद 187-188, पृष्ठ 99-100)
यहां वेळी की एक बात जो अत्यधिक प्रभावित करती है, वह यह है कि अपहरण के पश्चात शिशुपाल और जरासंध के युद्ध में, हलधर को किसान और घनश्याम को काली घटा के रूपक में बहुत ही उपयुक्त रूप से बांधकर युद्ध को खेत और खलिहान से भली-भांति जोड़ा गया है।
बि-सरियां बिसरि जस-बीज बीजिजइ, खारी हळाहळां खळां
त्रू टइ कंध-मूळ, जड़ त्रू टइ, हळधर का वहतां हळां /१२४.
इसका पद्यानुवाद नरोत्तम स्वामी ने यूं किया है :
         बल के हल चलतहिं लख्यो, तूटत अरि-सिर-मूल
         हल चलाइ जड़ तोड़ि कै, कियौ जस वपन सूल
डिंगल कविता का अर्थ हिंदी में यह है कि दूसरी बार हल चलाते हुए यश के बीज बोइये और खरपतवार जड़ सहित उखाड़ फेंकिये। ( हलधर बलभद्र ने अपने सैन्यदल को ललकार कर कहा।)

' क्रिसन रुक्मिणी री वेळी' की भांति कृष्ण और राधा को माध्यम बनाकर मध्यकाल में सूरदास ने 'सूरसागर' लिखा, रसखान ने 'सुजान-रसखान' लिखा जो प्रकारांतर से व्यास-भागवत का क्रमशः भक्ति कालीन और रीतिकालीन अनुकरण ही हैं। ऊपर जहां वेळी के कवि राठौड़ पृथ्वीराज, वन, निर्झर, प्रिया के आंचल का रूपक बांधते हैं, वहीं रसखान अपना सवैया इस भांति कहते हैं -
बागन बारहुं आव पिया, इंह बैठउ बाग बहार दिखावहुं।
केसन के छतनार छवा बहियां दुइ चंपहिं डार नवावहुं।।
कंचुकि कुम्भ उघार उड़ेलहुं घूंघट खोलि अनार चखावहुं।
पाइन पैंगनि बापि बुड़ावहुं लूटि तुहिं रसखानि लुटावहुं।।231।।
और
बदरा बरु बैर परे, नियरे बिहरे नहिं, जाय रसातल में।
बिरहान क आँच लगी तन में तब जाय परी जमुना जल में।
जब रेत फटी रु पताल गई तब सेस जर्यौ धरती-तल में।
रसखान तबै इहि आँच मिटे, जब आय कै स्‍याम लगैं गल में।।234।।
घन आनंद ने भी घनश्याम के प्रसंगों को रसीले भाव से ही प्रस्तुत किया। उनकी एक श्याम घटा देखिये-
स्याम घटा लपटी थिर बीज कि सौहै अमावस-अंक उज्यारी।
धूप के पुंज मैं ज्वाल की माल सी पै दृग-सीतलता-सुख-कारी।
कै छवि छायो सिंगार निहारि सुजान-तिया-तन-दीपति प्यारी।
कैसी फ़बी घनआनँद चोपनि सों पहिरी चुनि साँवरी सारी॥

संयोग और वियोग के बारहमासा में एक और बारहमासा बहुत प्रचलित और लोकप्रिय हुआ। मध्यकाल निर्गुण प्रेमाश्रयी धारा के कवि मलिक मुहम्मद जायसी ने चित्तौड़ के रत्नसेन, उनकी पहली विवाहिता नागमती और रत्नसेन की दूसरी पत्नी-प्रेयसी पद्मावती के त्रिकोणीय प्रेम पर आधरित महाकाव्य लिखा 'पद्मावत'। रत्नसेन पद्मिनी के रूप सौंदर्य का वर्णन एक राजमहल के तोता 'हीरामन' से सुनकर उसे पाने 'सिंहलद्वीप' चला जाता है। नागमती चित्तौड़ में वियोगवती होती है। नागमती के वियोग वर्णन में कवि मलिक मुहम्मद जायसी ने वियोग के बारहमासा का बुनाव किया है। यह बारहमासा आषाढ़ से ही आरम्भ होता है, इससे विरह में आषाढ़ के पारंपरिक महत्व को समझा जा सकता है। जायसी लिखते हैं ..
चौपाई :
चढ़ा असाढ़, गगन घन गाजा। साजा विरह दुंद दल बाजा।।
धूम साम, धौरे घन धाए। सेत धजा बग पाँति देखाए।।
खड्ग बीजु चमकै चहुँ ओरा। बुंद बान बरसहिं घन घोरा।।
ओनई घटा आइ चहुँ फेरी। कंत ! उबारु मदन हौं घेरी।।
दादुर मोर कोकिला,पीऊ। घिरै बीजु, घट रहै न जीऊ।।
पुष्य नखत सिर ऊपर आवा। हौं बिनु नाह, मंदिर को छावा।
अद्रा लाग लागि भुइँ लेई। मोहिं बिनु पिउ को आदर देई।।
दोहा :
जिन घर कंता, ते सुखी, तिन्ह गारो औ गर्व।
कंत पियारा बाहिरै, हम सुख भूला सर्व।।
अंततः वियोग-बारहमासा को आषाढ़ से जेठ-आषाढ़ तक लाकर जायसी जी ने उसको इस तरह चरम तक पहुचाया।
रोइ गंवाए बारहमासा। सहस सहस दुख इक इक सांसा।।
तिल-तिल बरख-बरख पर जाई। पहर-पहर जुग-जुग न सिराई।।

अंततोगत्वा जायसी की इन्हीं पंक्तियों की साक्षी में हम आषाढ़-पुराण को यहीं समाप्त करते हैं। सही कह रहे हैं सूफी कवि जायसी की हजारों बरस विरही जन रो-रो कर बारहमासा गंवाएंगे। हजार-हजार दुख एक-एक सांस में जिएंगे। तिल-तिल करके सालों-साल बिट जाएंगे किन्तु युगों-युगों तक एक पल भी शांति का नहीं मिलेगा। यह बात आमीन न कहने पर भी आमीन ही है। (तथास्तु न कहने पर भी तथास्तु।)

डॉ. रामकुमार रामरिया
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संदर्भ ग्रंथ :
श्रीमद्भागवत पुराण खं-२ : वेदव्यास
बीजक : कबीरदास
भ्रमर गीत सार : सूरदास
श्रीरामचरित मानस : गोस्वामी तुलसीदास
सुजान सागर : घनानन्द बहुगुणी
सुजान रसखान : सैयद इब्राहिम रसखान
पद्मावत : मलिक मुहम्मद जायसी
कबीर : डॉ. हजारी प्रसाद द्विवेदी
क्रिसन रुक्मिणी री वेळी : राठौड़ पृथ्वीराज
बीसलदेव रासो : नरपति नाल्ह
स्मृति-लेखा : **** 

(आषाढ़ का पहला दिन-2)

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तोता उड़ गया

और आखिर अपनी आदत के मुताबिक मेरे पड़ौसी का तोता उड़ गया। उसके उड़ जाने की उम्मीद बिल्कुल नहीं थी। वह दिन भर खुले हुए दरवाजों के भीतर एक चाौखट पर बैठा रहता था। दोनों तरफ खुले हुए दरवाजे के बाहर जाने की उसने कभी कोशिश नहीं की। एक बार हाथों से जरूर उड़ा था। पड़ौसी की लड़की के हाथों में उसके नाखून गड़ गए थे। वह घबराई तो घबराहट में तोते ने उड़ान भर ली। वह उड़ान अनभ्यस्त थी। थोडी दूर पर ही खत्म हो गई। तोता स्वेच्छा से पकड़ में आ गया। तोते या पक्षी की उड़ान या तो घबराने पर होती है या बहुत खुश होने पर। जानवरों के पास दौड़ पड़ने का हुनर होता है , पक्षियों के पास उड़ने का। पशुओं के पिल्ले या शावक खुशियों में कुलांचे भरते हैं। आनंद में जोर से चीखते हैं और भारी दुख पड़ने पर भी चीखते हैं। पक्षी भी कूकते हैं या उड़ते हैं। इस बार भी तोता किसी बात से घबराया होगा। पड़ौसी की पत्नी शासकीय प्रवास पर है। एक कारण यह भी हो सकता है। हो सकता है घर में सबसे ज्यादा वह उन्हें ही चाहता रहा हो। जैसा कि प्रायः होता है कि स्त्री ही घरेलू मामलों में चाहत और लगाव का प्रतीक होती है। दूसरा बड़ा जगजाहिर कारण यह है कि लाख पिजरों के सुख के ब

काग के भाग बड़े सजनी

पितृपक्ष में रसखान रोते हुए मिले। सजनी ने पूछा -‘क्यों रोते हो हे कवि!’ कवि ने कहा:‘ सजनी पितृ पक्ष लग गया है। एक बेसहारा चैनल ने पितृ पक्ष में कौवे की सराहना करते हुए एक पद की पंक्ति गलत सलत उठायी है कि कागा के भाग बड़े, कृश्न के हाथ से रोटी ले गया।’ सजनी ने हंसकर कहा-‘ यह तो तुम्हारी ही कविता का अंश है। जरा तोड़मरोड़कर प्रस्तुत किया है बस। तुम्हें खुश होना चाहिए । तुम तो रो रहे हो।’ कवि ने एक हिचकी लेकर कहा-‘ रोने की ही बात है ,हे सजनी! तोड़मोड़कर पेश करते तो उतनी बुरी बात नहीं है। कहते हैं यह कविता सूरदास ने लिखी है। एक कवि को अपनी कविता दूसरे के नाम से लगी देखकर रोना नहीं आएगा ? इन दिनों बाबरी-रामभूमि की संवेदनशीलता चल रही है। तो क्या जानबूझकर रसखान को खान मानकर वल्लभी सूरदास का नाम लगा दिया है। मनसे की तर्ज पर..?’ खिलखिलाकर हंस पड़ी सजनी-‘ भारतीय राजनीति की मार मध्यकाल तक चली गई कविराज ?’ फिर उसने अपने आंचल से कवि रसखान की आंखों से आंसू पोंछे और ढांढस बंधाने लगी। दृष्य में अंतरंगता को बढ़ते देख मैं एक शरीफ आदमी की तरह आगे बढ़ गया। मेरे साथ रसखान का कौवा भी कांव कांव करता चला आया।

सूप बोले तो बोले छलनी भी..

सूप बुहारे, तौले, झाड़े चलनी झर-झर बोले। साहूकारों में आये तो चोर बहुत मुंह खोले। एक कहावत है, 'लोक-उक्ति' है (लोकोक्ति) - 'सूप बोले तो बोले, चलनी बोले जिसमें सौ छेद।' ऊपर की पंक्तियां इसी लोकोक्ति का भावानुवाद है। ऊपर की कविता बहुत साफ है और चोर के दृष्टांत से उसे और स्पष्ट कर दिया गया है। कविता कहती है कि सूप बोलता है क्योंकि वह झाड़-बुहार करता है। करता है तो बोलता है। चलनी तो जबरदस्ती मुंह खोलती है। कुछ ग्रहण करती तो नहीं जो भी सुना-समझा उसे झर-झर झार दिया ... खाली मुंह चल रहा है..झर-झर, झरर-झरर. बेमतलब मुंह चलाने के कारण ही उसका नाम चलनी पड़ा होगा। कुछ उसे छलनी कहते है.. शायद उसके इस व्यर्थ पाखंड के कारण, छल के कारण। काम में ऊपरी तौर पर दोनों में समानता है। सूप (सं - शूर्प) का काम है अनाज रहने देना और कचरा बाहर निकाल फेंकना। कुछ भारी कंकड़ पत्थर हों तो निकास की तरफ उन्हें खिसका देना ताकि कुशल-ग्रहणी उसे अपनी अनुभवी हथेलियों से सकेलकर साफ़ कर दे। चलनी उर्फ छलनी का पाखंड यह है कि वह अपने छेद के आकारानुसार कंकड़ भी निकाल दे और अगर उस आकार का अनाज हो तो उसे भी नि