Skip to main content

हट्टा की रहस्यमय बावड़ी :



 हट्टा की रहस्यमय बावड़ी : 

सैनिकों की छावनी या रानी की नहानी 


मध्यप्रदेश के दक्षिणी छोर का अंतिम ज़िला है बालाघाट। बालाघाट के साथ कुछ प्राकृतिक और भौगोलिक संयोग जुड़े हुए हैं। सिवनी ज़िला से निकली वैनगंगा नदी से घिरा 'ज़िला-मुख्यालय' 'बालाघाट-नगर' जैसे इस नदी का 'एक घाट' ही है। किंतु यह 'वैनगंगा-घाट' नहीं बल्कि 'बालाघाट' है। बालाघाट जनगणना की दृष्टि से 'स्त्री-बहुल' ज़िला है। 'बाला' का एक अर्थ कन्या या लड़की होता है। क्या इसलिए इसका नाम बालाघाट पड़ा?
इस बात का संकेत करता, बालाघाट के मुख्यमार्ग पर, नगर के बीच, एक चौराहा है। इस चौराहे के बीच फ़व्वारा है और उस फ़व्वारे के नीचे एक 'पनिहारिन' या 'बाला' घड़ा लिए बैठी है। शायद इस मूर्ति को बनानेवालों ने बालाघाट को यही अर्थ देने का प्रयास किया है। चूंकि यह मूर्ति या पुतली काले रंग से पोती गयी है, इसलिए इस चौक का नाम हो गया 'काली पुतली चौक'।
काले रंग का भी रहस्य या निहितार्थ है। पुतली पर निरंतर पानी पड़ेगा और काई जमेगी। पुतली काली होगी। तो दूर-दृष्टि-सम्पन्न पालिका प्रबंधकों ने इसे काला रंग पोत दिया। वरना बाला, युवती या कन्या को काला कौन चित्रित करता है। हालांकि हनुमान-चौक पर भव्य और विशाल एक और काली-पुतली है जो काले रंग की है। यह चंद्रशेखर आज़ाद की पुतली है।
खैर, काली पुतली के पीछे भी कई 'मुँहकहनियां' हैं जो बालाघाट नामकरण की अगली गल्प हैं। काली-पुतली-चौक से लगा बस स्टैंड, नगरपालिका भवन, जेल और ज़िला अस्पताल है। ज़िला अस्पताल 'बूढ़ी मोहल्ले' में है। 'बूढ़ी' सबसे बड़ा मोहल्ला है। पहले पता नहीं किन 'बूढ़ा बूढ़ी' के नाम से जाना जाता था। कुछ गपोड़े उन्हीं आदिवासी 'बूढ़ा-बूढ़ी' की बाला या बारा इस कन्या को बताते हैं। इसका तार्किक आधार नहीं है। सब कपाल-गल्पनाएँ हैं। एक आदिवासी बूढ़ी दसियों साल से आज भी 'शासकीय उच्चतर माध्यमिक उत्कृष्ट विद्यालय' के एक कक्ष में जैसे किसी अज्ञात, गूंगी, रहस्यमयी 'बाला' का साक्षात बुढापा जी रही है। तो क्या यह वही बाला है जिसके नाम से यह बालाघाट हुआ?
कुछ अन्य कल्पनाशील कवयः बताते हैं कि सम्पूर्ण जिले में प्रसिद्ध बारह या बारा घाट हैं, इसलिए इस ज़िले का नाम 'बाराघाट' हुआ और आगे चलकर 'बालाघाट' हो गया। पर उन भागयशाली बारह घाटों का नाम कोई प्रामाणिक तौर पर कोई नहीं बता पाता। फिर तो जितने मुंह उतनी बातें बड़-ज्ञानियों में चलती ही रहती है। उड़ती चिड़िया के पंख गिननेवालों की कमी थोड़ी है।
उड़ती चिड़िया से बालाघाट से जुड़ा एक और संयोग तथ्यात्मक रूप से याद आ रहा है। आप गूगल मियां से बालाघाट का राजनैतिक नक़्शा बनाने को कहिए। वो तो बिना पैर के तैयार खड़े रहते हैं सब कुछ बताने। तड़ से नक़्शा बना देंगे। ज़रा गौर से देखिए। बालाघाट का नक़्शा ऐसे लगेगा जैसे कोई चिड़िया उड़ी जा रही है। पूरे भारत में एक मात्र बालाघाट ही है जिसकी चिड़िया नक्शे में उड़ रही है। इसलिए उड़ती चिड़िया के पंख गिननेवाले यहां नहीं तो कहां मिलेंगे।
चलिए पंख गिनते हैं। मतलब 'मतलब की बात' करते हैं।
बालाघाट में अत्यधिक दर्शनीय-स्थल हैं। वन-संपदा, नदियों-पर्वतों और भौगोलिक-सौंदर्य से अकूत भरा बालाघाट सचमुच देखने लायक ही है।

सबसे पहले चलते हैं प्रसिद्ध रहस्यमयी हट्टा की बावड़ी।
हट्टा की बावड़ी एक छतदार इमारती कुआं है, जिसमें हर मंजिल में ठहरने के लिए खुले कक्ष या बरामदे हैं। इस बावली का निर्माण गोंड राजा हट्टेसिंह वल्के कराया था। गोंड राजा हट्टेसिंह वल्के के कारण ही गांव का नाम हट्टा पड़ा और हट्टा गांव में होने से बावड़ी को हट्टा की बावड़ी के नाम से लोकप्रियता प्राप्त हुई। प्रसिद्धि है कि राजा हट्टेसिंह ने गर्मी के दिनों में सैनिकों के विश्राम करने या छिपने के अवसर पर पेयजल, स्नान और आराम करने के लिए इस बावली का निर्माण किया था। गोंड काल के बाद मराठा शासक और भोंसले साम्राज्य में भी इस बावड़ी का उपयोग होते रहा है। माना जाता है की इस बावली के अंदर सुरंग है, जो लांजी का क़िले तथा मंडला के क़िले में मिलती है। 

इस बावड़ी के मुख्यद्वार पर शिवमंदिर का एक खंडहर अवशेष-रूप में विद्यमान है। इसी के सामने पर्यटकों की जानकारी के लिए एक पट्टिका लगी हुई है। इसमें उल्लेख है कि हट्टा की बावड़ी का निर्माण १७वी -१८वी शताब्दी में हुआ था। इस दौरान बड़ी-बड़ी चट्टानों को काटकर बावड़ी और स्तम्भों का निर्माण किया गया था। यह बावड़ी दो मंजिला है। प्रथम तल पर १० स्तम्भ तथा उसके नीचे ८ स्तम्भ आधारित बरामदे एव कक्ष का निर्माण किया गया है। बावड़ी के प्रवेश द्वार पर २ चतुर्भुजी शिव अम्बिका प्रतिमाओं की नक्काशी की गई है।

भारत में बावड़ियां बनाने की परम्परा बहुत पुरानी है। यह इतिहास अलग से 'रहस्यमयी बावड़ियों का इतिहास' में पढ़ेंगे। यहां केवल यह जानना पर्याप्त है कि पुराणकाल से ही बावड़ी के नाम से बहु- मंज़िल इमारत के साथ बीचों बीच कुँए बनवाये जाते थे। इन कुँओं के चारों तरफ चौड़ी-चौड़ी सीढियाँ बनायीं जाती। सीढ़ीदार होने के कारण ही इन कुओं या बावड़ियों को अंग्रेजी में स्पष्टतः स्टेप-वैल कहा जाता रहा है। इन कुओं या बापियों को हमेशा जलयुक्त बनाये रखने के लिए पास की नदियों तालाबों या नहरों से जोड़ दिया जाता था। कहीं ये बापियां खुली होती थीं और कहीं ऊपर छत बना दी जाती थीं। कहीं कहीं बापियों में अनेक कक्षों के निर्माण का उद्देश्य यह होता था कि आने-जाने वाले राहगीर, व्यावसायी या सैनिक अपने घोड़े, बैलों सहित यहां विश्राम कर सकें। वास्तव में बावड़ी, वाव, बापी या 'स्टेप वैल' एक विशेष प्रकार की आर्किटेक्चरल संरचना है।
मध्यकाल में लगभग 3000 "स्टेप वैल" बनवाये गए जिनमे से कुछ देखरेख ना होने के कारण खंडहर बन गए।
आज भी उत्तरी भारत में सैकड़ों 'स्टेप वैल' देखने को मिलते हैं जिनमे से 30 दिल्ली में मौजूद हैं। भारत में स्मारक और धरोहर के रूप में दिल्ली में स्थित'अग्रसेन की बावली,' राजस्थान की0 'चाँद बावरी' और अहमदाबाद की 'अदलालज वाव' 'स्टेप वैल' के जीवंत उदाहरण हैं जो आज भी अपनी भव्यता के साथ शताब्दी पहले की कलाकारी, नक्काशी और बौद्धिक हुनर का परिचय दे रहे हैं।
ऐसी ही एक बावड़ी जीर्ण शीर्ण अवस्था में हट्टा में अपने अस्तित्व के लिए संघर्ष कर रही है।

जैसा कि उल्लेख किया जा चुका है कि लगभग 300 वर्ष पहले हट्टा बावड़ी के निर्माण की बात पुरातात्विक विभाग करता है। इतिहास के कुछ विद्वान मानते ​​हैं कि गोंड राजाओं ने 15वीं से 17वीं शताब्दी के बीच शासन किया। कुछ की खोज कुछ विस्तृत रूप से 13 वीं और 19 वीं शताब्दी ईस्वी के बीच गोंडवाना-राज्य निर्धारित करती है। इतिहास के गवाक्ष से दिखायी देता है कि 15 वीं शताब्दी में चार महत्वपूर्ण गोंड़़ साम्राज्य खेरला, गढ मंडला, देवगढ और चाँदागढ प्रमुख थे। गोंड राजा बख्त बुलंद शाह ने नागपुर शहर की स्थापना कर अपनी राजधानी देवगढ से नागपुर स्थानांतरित किया था। गोंडवाना की प्रसिद्ध रानी दुर्गावती राजगोंड राजवंश की रानी थी।
हट्टा की बावड़ी का संबंध कलचुरी राजवंशों से भी बताया जाता है। संवत 550 से 1740 तक लगभग 1200 वर्षों की अवधि में कलचुरी नरेशों ने भारत के उत्तर तथा दक्षिण स्थित किसी न किसी प्रदेश में अपना राज्य चलाया है । भारत वर्ष के इतिहास में ऐसा कोई भी राजवंश नहीं हुआ जिसने इतने लम्बी अवधि तक अपना राज्य चलाया हो । इस वंश ने उत्तर भारत और दक्षिण भारत दोनों पर अलग-अलग समय पर राज किया है । छत्तीसगढ़ (रतनपुर और रायपुर) में कलचुरी शासक – 900 ई० से 1741 ई० तक छत्तीसगढ़ पर कलचुरी वंश का शासन रहा ।
कलचुरी शैवोपासक थे इसलिए उनके बनवाए मदिरों में शिव मंदिर अधिक हैं। गोंड जातियों के आदि देव भी महादेव शिव हैं। सम्भु सेक भी वही हैं और बड़ादेव भी। बड़ादेव अर्थात महादेव। हालांकि हैहय वंशी या कलचुरियों में त्रिदेव या दत्तात्रेय की पूजा भी होती थी। जेजाकभुक्ति (बुंदेलखंड) के चंदेलों के राज्य के दक्षिण में कलचुरि राजवंश का राज्य था जिसे चेदी राजवंश भी कहते हैं। कलचुरि अपने को कार्तवीर्य अर्जुन का वंशज बतलाते थे और इस प्रकार वे पौराणिक अनुवृत्तों की हैहय जाति की शाखा थे। आज भी बालाघाट ज़िले के हैह्यवंशी कलचुरी या कलवार गर्व से सहस्रबाहु कार्त अर्जुन की पूजा करते हैं।
इस क्षेत्र में मराठा या भोंसले राजाओं ने भी राज्य किया। इस क्षेत्र के हैहयों की मातृभाषा मराठी है। भोंसले सैनिकों की भी शरण स्थली यह हट्टा की बावड़ी है। इतिहास में यह जानकारी मिलती है कि 'भोंसले वंश महान् मराठा शासक शिवाजी का वंश है। इस वंश ने वर्तमान महाराष्ट्र के नागपुर क्षेत्र पर शासन किया और 18वीं शताब्दी के मराठा महासंघ में अग्रणी रहा। 1818 से 1853 तक वह अंग्रेज़ों प्रति निष्ठावान रहा। बरार के रघुजी भोंसले ने 1730 में इस वंश की स्थापना की थी। अब यह तो सभी जानते हैं कि 1956 के पूर्व तक यह क्षेत्र 'मध्य-प्रान्त एवं बरार' ( सी पी एंड बरार) कहलाता था।

कलचुरी वंश, गोंडवाना और मराठा राज्य शाही के अलावा अवन्तिबाई के वंशजों से भी यह बावड़ी अछूती नहीं रही। बालाघाट के कांधे से कांधा मिलाकर चलनेवाले और और एक ही नदी का पानी पीनेवाले सिवनी में जन्मी लोधी वंशी अवंती बाई के वंशजों का किले के बड़े हिस्से पर अधिकार है और उनका परिवार वहां सामंती ठाठ से आज भी रहता है। हालांकि किले के भग्नावशेषों के अलावे एक अधितम 2000 फ़ीट लम्बी क़िले की दीवार के अतिरिक्त क़िला जैसा वहां कुछ भी नहीं है।

पर इन सब के बावजूद गोंड राजा द्वारा निर्मित हट्टा की रहस्यमय बावड़ी अस्तित्व में तो है।


@कुमार,
बालाघाट

Comments

Popular posts from this blog

तोता उड़ गया

और आखिर अपनी आदत के मुताबिक मेरे पड़ौसी का तोता उड़ गया। उसके उड़ जाने की उम्मीद बिल्कुल नहीं थी। वह दिन भर खुले हुए दरवाजों के भीतर एक चाौखट पर बैठा रहता था। दोनों तरफ खुले हुए दरवाजे के बाहर जाने की उसने कभी कोशिश नहीं की। एक बार हाथों से जरूर उड़ा था। पड़ौसी की लड़की के हाथों में उसके नाखून गड़ गए थे। वह घबराई तो घबराहट में तोते ने उड़ान भर ली। वह उड़ान अनभ्यस्त थी। थोडी दूर पर ही खत्म हो गई। तोता स्वेच्छा से पकड़ में आ गया। तोते या पक्षी की उड़ान या तो घबराने पर होती है या बहुत खुश होने पर। जानवरों के पास दौड़ पड़ने का हुनर होता है , पक्षियों के पास उड़ने का। पशुओं के पिल्ले या शावक खुशियों में कुलांचे भरते हैं। आनंद में जोर से चीखते हैं और भारी दुख पड़ने पर भी चीखते हैं। पक्षी भी कूकते हैं या उड़ते हैं। इस बार भी तोता किसी बात से घबराया होगा। पड़ौसी की पत्नी शासकीय प्रवास पर है। एक कारण यह भी हो सकता है। हो सकता है घर में सबसे ज्यादा वह उन्हें ही चाहता रहा हो। जैसा कि प्रायः होता है कि स्त्री ही घरेलू मामलों में चाहत और लगाव का प्रतीक होती है। दूसरा बड़ा जगजाहिर कारण यह है कि लाख पिजरों के सुख के ब

काग के भाग बड़े सजनी

पितृपक्ष में रसखान रोते हुए मिले। सजनी ने पूछा -‘क्यों रोते हो हे कवि!’ कवि ने कहा:‘ सजनी पितृ पक्ष लग गया है। एक बेसहारा चैनल ने पितृ पक्ष में कौवे की सराहना करते हुए एक पद की पंक्ति गलत सलत उठायी है कि कागा के भाग बड़े, कृश्न के हाथ से रोटी ले गया।’ सजनी ने हंसकर कहा-‘ यह तो तुम्हारी ही कविता का अंश है। जरा तोड़मरोड़कर प्रस्तुत किया है बस। तुम्हें खुश होना चाहिए । तुम तो रो रहे हो।’ कवि ने एक हिचकी लेकर कहा-‘ रोने की ही बात है ,हे सजनी! तोड़मोड़कर पेश करते तो उतनी बुरी बात नहीं है। कहते हैं यह कविता सूरदास ने लिखी है। एक कवि को अपनी कविता दूसरे के नाम से लगी देखकर रोना नहीं आएगा ? इन दिनों बाबरी-रामभूमि की संवेदनशीलता चल रही है। तो क्या जानबूझकर रसखान को खान मानकर वल्लभी सूरदास का नाम लगा दिया है। मनसे की तर्ज पर..?’ खिलखिलाकर हंस पड़ी सजनी-‘ भारतीय राजनीति की मार मध्यकाल तक चली गई कविराज ?’ फिर उसने अपने आंचल से कवि रसखान की आंखों से आंसू पोंछे और ढांढस बंधाने लगी। दृष्य में अंतरंगता को बढ़ते देख मैं एक शरीफ आदमी की तरह आगे बढ़ गया। मेरे साथ रसखान का कौवा भी कांव कांव करता चला आया।

सूप बोले तो बोले छलनी भी..

सूप बुहारे, तौले, झाड़े चलनी झर-झर बोले। साहूकारों में आये तो चोर बहुत मुंह खोले। एक कहावत है, 'लोक-उक्ति' है (लोकोक्ति) - 'सूप बोले तो बोले, चलनी बोले जिसमें सौ छेद।' ऊपर की पंक्तियां इसी लोकोक्ति का भावानुवाद है। ऊपर की कविता बहुत साफ है और चोर के दृष्टांत से उसे और स्पष्ट कर दिया गया है। कविता कहती है कि सूप बोलता है क्योंकि वह झाड़-बुहार करता है। करता है तो बोलता है। चलनी तो जबरदस्ती मुंह खोलती है। कुछ ग्रहण करती तो नहीं जो भी सुना-समझा उसे झर-झर झार दिया ... खाली मुंह चल रहा है..झर-झर, झरर-झरर. बेमतलब मुंह चलाने के कारण ही उसका नाम चलनी पड़ा होगा। कुछ उसे छलनी कहते है.. शायद उसके इस व्यर्थ पाखंड के कारण, छल के कारण। काम में ऊपरी तौर पर दोनों में समानता है। सूप (सं - शूर्प) का काम है अनाज रहने देना और कचरा बाहर निकाल फेंकना। कुछ भारी कंकड़ पत्थर हों तो निकास की तरफ उन्हें खिसका देना ताकि कुशल-ग्रहणी उसे अपनी अनुभवी हथेलियों से सकेलकर साफ़ कर दे। चलनी उर्फ छलनी का पाखंड यह है कि वह अपने छेद के आकारानुसार कंकड़ भी निकाल दे और अगर उस आकार का अनाज हो तो उसे भी नि