अर्धांगिनी का जन्म-दिन अर्थात् विशुद्ध अनुभूतियों के अनिरुद्ध रिश्ते 1. एक वैसा हो ही जाता था मैं दरवाजा खोलता तो सामने के दरवाजे पर एक 'कोई नहीं सी' मुस्कान 'हेलो' बोलती थी। आज वह जा रही है 'न उसकी न मेरी' जगह से अपना सारा सामान समेटकर किसी और जगह किसी और की जगह पर फिर किसी 'कोई नहीं से' दरवाज़े पर उसकी जीवंत मुस्कुराहट खड़ी मिलेगी किसी और को एक 'कुछ नहीं' होने के 'कुछ नहीं युहीं से' दस्तक की तरह। उसका होना भी एक अनहोनी थी कुछ न होते हुए भी कुछ न करते हुए भी काम आने की बिना किसी सम्भावना की तरह आने-जाने की औपचारिकताओं से दूर एक अपरिचित चेहरे के एक चिरपरिचित अपनापे की तरह भावुक रस्साकसी से विरक्त अनुभूतियों के अनिरुद्ध रिश्ते की तरह तुलित, संतुलित और सतत संचरित। 2. दो नींद, सपने और मैं- अचेत की अचिंतित गहराइयों में डूबे किसी अज्ञात पहेली को सुलझा रहे थे एक तरह से ढाक के तीन पत्ते होकर एक दूसरे को बहला-फुसला रहे थे तभी...कहीं दूर... चर्च का घड़ियाल बजा.... टिंग टांग .. टिंग टांग... सगुन-असगुन की आशं...