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* एक अल्हड़ गीत* *मोतदारिक मुसम्मिन सालिम*

* एक अल्हड़ गीत*

*मोतदारिक मुसम्मिन सालिम* (212 212 212 212)2
{मिलन-यामिनी छंद, अष्ट रगण, गालगा अष्टक,}×२

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बे बहर ही क़हर आप ढाते रहे, हम खड़े मात्राएं मिलाते रहे।/
(और अरकान ही हम मिलाते रहे।)
आपके तीर सारे निशां पर लगे, हम निशानों पै नज़रें जमाते रहे।
बे बहर ही क़हर आप ढाते रहे ...

एक मतला उठाया तो बेकाफ़िया, कोई सानी न ऊला के काबिल हुई।
जो धनक मन की गहराई को छू गयी, वो किसी शेर में भी न शामिल हुई।
दर्द के सामने लफ्ज़ बौने हुए, दिल बड़ा कर हमीं मुस्कुराते रहे।
बे बहर ही क़हर आप ढाते रहे ...

बात दिल की जुबां तक नहीं आ सकी, एक हसरत पै लाखों हिदायत मिली।
उनके शिकवे-गिले भी मुहब्बत हुए, हमने आहें भरीं तो शिकायत मिली।
नाम रचकर हिना से किसी ग़ैर का, सौ बहानों से हमको दिखाते रहे।
बे बहर ही क़हर आप ढाते रहे ..

गीत गाऊं, सुनाऊं ग़ज़ल या क़ता, कोशिशें सब हुयी हैं ख़ता दर ख़ता।
चिट्टियां ले गया जो कबूतर कोई, आज तक फिर न उसका चला कुछ पता।
गुमशुदा हम हुए, कौन ढूंढे हमें, हम पता फिर भी उसका लगाते रहे?
बे बहर ही क़हर आप ढाते रहे ...

@कुमार, १७-१८.०२.२०२०

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