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घूम रहे हैं लिए सुपारी,
गर्मी खाकर दिन!
- फिर गरमाए दिन!
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खुली खिड़कियां बंद हो रहीं
कैद हुईं बतकहियां!
सूखी आँगन की फुलवारी
मंद हुयीं चहचहियां!
आस पड़ोस विदेश लग रहे
अलसाये पलछिन!
- फिर गरमाए दिन!
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अलगावों के, भेदभाव के,
खुलकर खुले अखाड़े!
सब दबंग परकोटों में हैं
सब दब्बू पिछवाड़े!
हवा हुई अपहृत या खा गई
उसे धूप बाघिन!
- फिर गरमाए दिन!
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लपट झपटकर सिंहासन पर,
लू लपटें आ बैठीं!
कुचल कुचलकर हंसी खुशी को,
फिरतीं ऐंठी ऐंठी!
जैसे सुख खा बैठे उनके
परदादा का रिन!
- फिर गरमाए दिन!
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आतंकी से लगते हैं सब
छुरी कटारीवाले!
सुबह शाम रात दिन भी हैं
पहुने भारीवाले!
जैसे तैसे काट रहे हैं
युग साँसों के बिन!
- फिर गरमाए दिन!
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आओ सब खटास घोलें अब,
पना बने खटमिट्ठा!
रस के धारावाहिक खोलें,
सुखद समय का चिट्ठा!
राग-रंग में क्यों घोले विष,
कलुष बुद्धि नागिन!
- ठंडक पाएं दिन!
@ कुमार,
27.3.17,11.43 am
सोमवार,
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पितृपक्ष में रसखान रोते हुए मिले। सजनी ने पूछा -‘क्यों रोते हो हे कवि!’ कवि ने कहा:‘ सजनी पितृ पक्ष लग गया है। एक बेसहारा चैनल ने पितृ पक्ष में कौवे की सराहना करते हुए एक पद की पंक्ति गलत सलत उठायी है कि कागा के भाग बड़े, कृश्न के हाथ से रोटी ले गया।’ सजनी ने हंसकर कहा-‘ यह तो तुम्हारी ही कविता का अंश है। जरा तोड़मरोड़कर प्रस्तुत किया है बस। तुम्हें खुश होना चाहिए । तुम तो रो रहे हो।’ कवि ने एक हिचकी लेकर कहा-‘ रोने की ही बात है ,हे सजनी! तोड़मोड़कर पेश करते तो उतनी बुरी बात नहीं है। कहते हैं यह कविता सूरदास ने लिखी है। एक कवि को अपनी कविता दूसरे के नाम से लगी देखकर रोना नहीं आएगा ? इन दिनों बाबरी-रामभूमि की संवेदनशीलता चल रही है। तो क्या जानबूझकर रसखान को खान मानकर वल्लभी सूरदास का नाम लगा दिया है। मनसे की तर्ज पर..?’ खिलखिलाकर हंस पड़ी सजनी-‘ भारतीय राजनीति की मार मध्यकाल तक चली गई कविराज ?’ फिर उसने अपने आंचल से कवि रसखान की आंखों से आंसू पोंछे और ढांढस बंधाने लगी। दृष्य में अंतरंगता को बढ़ते देख मैं एक शरीफ आदमी की तरह आगे बढ़ गया। मेरे साथ रसखान का कौवा भी कांव कांव करता चला आया।...
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