Skip to main content

विवाह की वर्षगांठ: गांठ-विज्ञान के विशेष संदर्भ में।




आज मेरे विवाह की वर्ष-गांठ है।
जयंती और दिवस जो होते हैं, वो मरणोपरांत मनाए जाते हैं। हमारे देश में प्रसिद्ध दिवस और जयंतियां हैं- बाल दिवस, शिक्षक दिवस, सदभावना दिवस, रजत जयंती, हीरक जयंती, प्रेमचंद जयंती, निराला जयंती।
दिवस ‘मृत्यु का दिन’ और जयंती ‘जन्म लेने का दिन’ है। जैसे एक होती है प्रेमचंद-जयंती और दूसरा होता है प्रेमचंद दिवस। गांधी जी ने जन्म लिया तो गांधी जयंती दो अक्टोबर। जिस दिन उन्हें गोली मारकर मार डाला गया, वह मृत्यु का दिन हुआ। उस 31 जनवरी को, उनकी मृत्यु की याद में, हम ‘शहीद-दिवस’ कहते हैं। इस प्रकार दो दिन प्रसिद्ध हैं एक जयंती और दूसरा दिवस।
जी! कुछ कहा आपने? आप पूछ रहे हैं कि बाल-दिवस और शिक्षक-दिवस किसकी मृत्यु के दिन है? पता नहीं। शायद बालमृत्यु की याद में बाल दिवस मनाया जाता है और भारत में किसी शिक्षक नामक मरे हुए व्यक्ति की याद में शिक्षक दिवस मनाया जाता होगा। मैं कुछ दावे से नहीं कह सकता। जी! क्या कहा आपने? अरे तो प्यार से बताएं न, इस तरह गाली गलौज क्यों करते है।
जी! मैं समझ गया, बालदिवस हमारे प्रथम प्रधानमंत्री का जन्म दिन है और शिक्षक दिवस हमारे दार्शनिक शिक्षक राष्ट्रपति जी का जन्म दिवस है। इन दोनों जन्म दिनों को ‘दिवस’ कहना लिपिकीय भूल है, यह भी मान लेता हूं।
जी! जी! बिल्कुल मैं आपसे सहमत हूं कि किसी लिपिकीय भूल को सुधारना कलेक्टर के पिताजी के हाथों में भी नहीं है। सत्यनारायण जगदीश की श्रीमती लक्ष्मी अगर इंटेरेस्ट लें तो यह भूल सुधर सकती है। पर वे देवता लोग है, मनुष्यों के मामले में क्यों और किसलिए दखलंदाजी करें। अगर कर सकते हों तो मैं सवा रुपये का प्रसाद चढ़ाने को तैयार हूं।
खैर, कैसे मौक़े में हम यह क्या अटर-सटर गिटर-पिटर करने लगे।
जी,जी! धन्यवाद! आपको याद है कि आज मेरे विवाह की वर्ष-गांठ है। चूंकि यह विवाह-जयंती या विवाह -दिवस नहीं है, इसलिए लगता है कि हमारा विवाह अभी भी जीवित है। अगर विवाह जीवित न होता तो गांठ नहीं होता। विवाह का नियम ही गांठ है। बच्चों का जनम दिन मनाते हैं तो कहते हैं पहली वर्षगांठ, तीसरी वर्षगांठ, पाचवीं वर्षगांठ।
जरा सोचूं कि इस ‘जन्म और स्थापना’ की वर्षगांठ मनानेवाले ‘वर्षगांठ’ का जन्म कब हुआ?
मुझे लगा है, जब गिनती का जन्म नहीं हुआ था। अक्षर और अंक नहीं बने थे। जब जमीन पर या दीवार पर या किसी पर्सनल पेड़ की पीड़ पर लकीरें खींचकर हिसाब किया जाता था। इंतज़ार किया जाता था कि अब आएगा। और इतना रह गया है।
एक तरीक़ा महिलाओं ने यह भी निकाला कि पांच हाथ की जो वे साड़ियां पहने रहती हैं, उसमें एक एक गिनती को गांठ बांधकर याद रख लें। साड़ी नहीं पहनती तो रूमाल को गांठ लगा ली और फुसफसाकर कहा- ‘देख बहना! भूल न जाना। मेरी ज़िन्दगी का सवाल है। गिनती इधर से उधर हो गयी तो ज़िन्दगी का हिसाब ही बिगड़ जाएगा।’ साड़ी के पल्लू और रूमाल के छोर पर बांधी गई गांठ याद रखती थी कि हिसाब क्या है।
गांठें हमेशा याद रखने का मनोवैज्ञानिक उपाय रहीं हैं। दार्शनिक तर्कशास्त्री मनोविश्लेषणत्मक व्याख्या कर सकते हैं कि मन की गांठें ज्यादा याद रहती है। छोटी मोटी खुशियां और छोटे मोटे दुख आदमी भूल जाता है। बड़ी गांठें याद रह जाती हैं।
बच्चों का जन्म बड़ी खुशी है मां बाप के लिए। इसलिए वर्षगांठ के रूप याद है। ‘‘तुम जिओ हजारों साल। साल के दिन हो पचास हजार।। जनम दिन आया, आया। ममता के फूल जागे।। हैप्पी बर्थ डे। मैनी मैनी हैप्पी रिटन्र्स आॅफ द डे।’’ ये वो शुभकामनाएं हैं जो गा गाकर दी जाती हैं। खुशी खुशी दिये जलाए जाते हैं। मोमबत्तियां बुझाई जाती हैं। केक काटे जाते हैं।
विवाह की वर्षगांठ भी एक प्रकार की गिनती ही है। जिस प्रकार बच्चों के जन्मदिन मां बाप के लिए आनंदोत्सव, उसी प्रकार मां-बाप के विवाह की वर्ष-गांठ बच्चों के लिए स्पेशल सेलेब्रेशन। हज़ारों गांठें इस दिन आनंद की गति में फिसल कर पार हो जाती हैं। बस एक बात याद रहती है-यह गांठ आज ही बंधी थी। दूल्हे के दुपट्टे से दुल्हन के दुप्पट्टे में आज ही बांधी गई थी यह गांठ। इस गांठ के आगे दुनियां की सारी गांठें गठान हैं। यह भुचाल का दिन है। एक नये मौसम के सूत्रपात का दिन है। बच्चे लगे हैं अपने अपने ढंग से सेलीब्रेट करने। नये कपड़े नया कुछ कुछ। नयी नयी सरप्राइज़ेस।
सुना है कभी सात गांठे बांधी जाती थीं। हर फेरे पर एक। बनती हुई पत्नी से कहा जाता है-‘गांठ बांध लो, अब यही तुम्हारा पति है और यही तुम्हारा परमेश्वर!’ होते हुए पतियों के अंगोछे में पड़ती है गांठ कि-‘‘ पत्नी तुम्हारी अद्र्धांगिनी है, लक्ष्मी है।’’  पति और परमेश्वर ? पत्नी यानी लक्ष्मी? पड़ गई न यह गांठ। पत्नी जीवन भर पति में परमेश्वर तलाशती रहती है और पति कभी झूठा सिद्ध होता है, कभी मक्कार,। कभी लम्पट निकलता है, कभी बदकार। पति ढूंढता रहता कि लक्ष्मी ने अब अमीर बनाया..अब बढ़ा बैंक बैलेन्स...अब आयी गाड़ी..अब आई इंडस्ट्री। ऐसा होता है या नहीं होता है तो किसी ने किसी कारण से पड़ती रहती हैं गांठें। हर दिन हर पल कोई न कोई गांठ। पी रहे हैं तो गांठ, खा रहे हैं तो गांठ। खाते पीते हंसते बोलते उठते चलते कोई न कोई न गांठ। पुरुष इस गांठ को रोड़ा और बाध समझते हैं और चतुराई से इसका हल निकालते हैं। वे समझते हैंअक्ल के मामले मे औरतें पीछे हैं। यह भी एक गांठ है जो सदियों से पुरुषों के मन का ट्यूमर बनी हुई है। कुछ समझदार पुरुष भी होते हैं जो इसे पतंग वाली घिर्री में मंजा किया हुआ धागा समझते हैं तथा खेंचने और ढील देने के संतुलन के साथ संभालकर लपेटते रहते हैं। भारतीय पत्नियां इस गांठ को सिलाई का धागा समझती है और तरीके से सुलझाने का प्रयास करती हैं। ऊपर धागे की मूल गिड्डी लगाकर नीचे कुछ धागा बाबिन नामक बाॅबी टाइप के यंत्र में नीचे लगाकर तरीके से सिलाई करती रहती हैं।
पर सब कुद इसी तरह आसान हो जाए तो फिर जिन्दगी का सौन्दर्य, जिन्दगी का मज़ा, जिन्दगी का स्वाद, जिन्दगी का लुत्फ़ ही चला जाए, खत्म हो जाए। (कृपया कुछ पर्यायवाची शब्द आप भी जोड़ लें।) । गांठ होने और उसे सुलझाने का मतलब आम भारतीय महिलाएं समझती हैं और मन में कोई अन्य गांठ पड़ने नहीं देंती। पड़ती हैं तो उन्हें वे सरपूंद बांधती हैं ताकि एक झटके से खोली जा सकें। अक्सर कुछ गांठे आंसुओ से खुल जाती हैं। कुछ गांठे मैके जाने के धौस से फिस्स हो जाती हैं। बाक़ी, अगर विवाह की वर्षगांठ निरंतर मनाना हो तो गांठ-शास्त्र को समझना बहुत जरूरी है।
  आज मेरे उसी विवाह की वर्षगांठ है। मौसम अच्छा है। कल तेज आंधी चली थी। थोड़ी बूंदाबांदी भी हुई थी। गर्मी में थोड़ी राहत मिली। मई में ऐसा कहां होता है। मई की गर्मी के बढ़ते तेवर को देखकर और विवाह की वर्षगांठ का तालमेल नहीं बैठा पाने पर तैयारियों में लगी लाड़ली पूछती है-‘‘दिसम्बर, जनवरी या ज्यादा हुआ तो फरवरी में क्यों नहीं बांध ली यह गांठ...मई का महीना ही मिला था आपको?’’ पंचांग का मुंह देखकर शादी करने वाले एक दूसरे का मुंह देखते और झुका लेते हैं। किस मुंह से कहें और क्या कहें? अब जो हुआ सो हुआ। डेट आफ बर्थ नहीं है कि कुछ ले देकर हलफ़नामा बनवाकर बदल दी जाये। विवाह है भाई! विशेष रूप से वहन किया जाने वाला परिवाह है यह विवाह।
आज सुबह से फोन आ रहे हैं। फोन यानी मोबाइल, सेल फोन..। जिस नाम से भी आधुनिकता बोध हो वह समझ लें। आधी रात को बच्चों के फोन आ चुके थे। नई तारीख लगी नहीं कि हैप्पी मेरिज एनीवर्सरी कहने का मोह वे टाल न पाए। जिन लोगों ने रात की भरपूर नींद ली भरे पूरे सुबह उनकी बधाइयां आई। कुछ खास ही निकट के लोग हैं। वर्ना कौन याद रखता है। याद भी रखे तो कौन लेता देता है। खास लोग हैं जो खास तरह से याद रखते हैं।
राजस्थान से फोन आया है कि उधर भी बारिश हुई है। भोपाल से भी फोन आया है कि उधर भी बारिश हुई हैं। रायपुर में बादल तो हैं पर बरसने से हिचक रहें हैं। इंन्वर्टर से चलनेवाले पंखें गरम हवा फेंक रहे हैं। इधर ठीक है। जापान दिल्ली की दिशा से पास पड़ता है। पड़ता तो चीन ज्यादा पास है। पर जापान की चीजे़ं और घटनाएं हमेशा विश्वव्यापी रही हैं। वहां आए चक्रवात ने काफ़ी तबाही मचायी है। चक्रवात का जन्म ही तबाही मचाने के लिए हुआ है। हमारी सभ्यताएं प्रार्थना नहीं कर सकतीं कि हे चक्रवात इस बार तू नवनिर्माण लेकर आ। हम विनाश को भी नई शुरुआत बनाकर देखते हैं। जापान ने तो खास इस विद्या में महारत हासिल की है। मैं जापान की बहुत सी चीज़ों को प्यार करता हूं। बहुत सी मज़ेदार चीज़े हैं जापान की मेरे पास। टोकियो को मैंने नहीं देखा पर बहुत प्यार करता हूं उसे। दुनियां में बहुत सी चीज़ें हमने नहीं देखीं पर लगातार उनसे प्यार करते हैं। आनेवाले कल को भी। आशाओं को। अब तक न मिले किसी खास मिलनेवाले पल की। राष्ट्रपति पुरस्कार, पद्मभूषण, बहुत सा धन, असाधारण सुविधाएं...इन सब को हमने नहीं  देखा पर इन्हंे बहुत प्यार करते हैं। मिलने की उम्मीद भी नहीं रखते पर प्यार करते हैं। यही सच्चा प्यार है।
ऐसा ही प्यार मैं मनोविनोद से भी करता हूं। मेरा ऐसा है कि हंसने की शायद कमी पड़ गई थी पूर्व में ...तो बहाने ढूंढता हूं हंसने के। जीवन में वैसे भी कथ्यात्मक और तथ्यात्मक हंसी खुशी के अवसर कम ही हैं। भावुक होना एकांतसुख है। ‘स्वांतःसुखाय’ भी आंसू ही बहते हैं। इसलिए लोग पब्लिक में ओव्हर एक्टिंग और अतिउत्साह दिखाते पाए जाते हैं। निश्चित रूप से वे खोखले हैं। मैं संतुलन बनाने का प्रयास करता हूं। कहीं कहीं फिसल जाता हूं पर संभल जाता हूं। मुझे जाननेवाले जानते हैं जो नहीं है उसी के ग़म गलत करने के कारण यह बिना पिये लड़खड़ाया है। मैं खुशियों के लिए ग़म गलत करने का सबसे अच्छा पेय गेय कविता और प्रेय आलेखों को मानता हूं। पीकर भी सुना है कि झूठा और कुछ देर का भुलावा मिलता है। लेखन भी कौन सा कल सच होने वाला है। यह भी ग़म ग़लत करने का एक तरीका मात्र है।
मैं जानता हूं मैं कुछ नहीं कर सकता तो लिखने बैठ गया हूं। उधर टीवी चल रही है। बीवी का काम भी चल रहा है। उसे गृहकार्य नहीं छोड़ते।  मेरे लिए तैयारी करती हुई वह प्याज काट रही है। टीवी पर एक गीत आ रहा है- ‘बेदर्दी बालमा तुझको मेरा मन याद करता है।’ मैं पत्नी की तरफ देखता हूं। वह मेरी तरफ। उसकी आंखें आंसुओं से भरी हुई हैं। ये प्याज के आंसू हैं यह बताने के लिए वह मुस्काराती है। फिर कटी हुई प्याज लेकर वह अंदर जाते हुए कहती है- ‘‘चीले बना रही हूं..प्याज पालक और बेसन के। दस मिनट में तैयार हो जाओ।’’
मैं तैयार ही तो नहीं हो पाता। मेरे मन में यह गीत कुछ ऐसे बजने लगता है-जो धीरे धीरे कागज में उतरने लगता है। मैं इस गीत को आज का उपहार दूंगा। आप भी सुनेंगे?

सबेरे से बिना मुंह धोये गहरी सांस भरता है।
बनाकर चाय मुंह में डाल दूं, यह आस करता है।

वही है गैस की किल्लत, वही बिजली की बदमाशी।
वही बुढ़िया की किचकिच है, वही बुड्ढे की हैं खांसी।
वहीं खूसट सजन बेकार की बकवास करता है। सबेरे से ....

मैं जब से आई हूं तब स,े घुसी रहती रसोई में।
सदा बर्तन, बुहारा, कपड़े करती बाई कोई मैं।
मुझे घर मालकिन कहकर जगत उपहास करता है। सबेरे से...

मुझे कहकर ‘मुसीबत’, जब पिया करता है रुसवाई।
‘मुसीबत लेने तुम आए थे, मैं चलकर नहीं आई।’
पलटकर कहती हूं ,तो हंसके वो, शाबाश करता है। सबेरे से...

‘‘हो गए तैयार?’’ पत्नी आकर पूछती है।
‘‘ हां हो गई तैयार...सुनो क्या लिखा है।’’ मैं उत्साह में कहता हूं तो खीझकर पत्नी कहती है।‘‘ ओफ्फो... तुम और तुम्हारी कविताएं......तुम्हीं लिखो और तुम्हीं सुनो...’’ वह बेसनपालक के चीले मेरे सामने धरकर चली जाती है। टीवी अभी भी चल रहा है। इस बार एक ग़ज़ल आ रही है। ‘‘दरोदीवार पर शकलें सी बनाने आई। फिर ये बारिश मेरी तनहाई चुराने आई।’’
मैं चीले खाते हुए ग़ज़ल का लुत्फ लेता हूं। मगर अपने गीत की उपेक्षा उस ग़ज़ल को भी विकृत कर देती है- मैं चीले के हर कौर के साथ एक एक शेर पढ़ता हूं।
मेरी बीवी है वो ये मुझको बताने आयी।
दिल जलाकर मेरा वो चाय चढ़ाने आयी।

लिखती रहती थी वो पन्नों में ख़र्चे दुनिया के,
दाल आटे का मुझे भाव बताने आयी।

                       
मेरी हर इक ग़ज़ल को सौत कहकर आह भरती है,
‘ये डायन कलमुंही घर मेरा जलाने आयी।’

‘मैं सब कागज उठाकर डाल दूं चूल्हे में अब के अब’,
ये कहती आई जब खाने को बुलाने आयी।

‘किसी को ऐसी किस्मत अय खुदा देना नहीं अब तू,
मैं दुल्हन बनके क्या बस जल्वे दिखाने आयी।’

ग़ज़ल की चटनी के साथ चीले खाकर मैं खत्म कर चुका हूं। अब पानी पीकर चाय का इंतज़ार करने लगता हूं। अंदर अंदर सुलगती हुई पत्नी चाय बड़ी ज़ायकेदार बनाती है। बस इसी कारण तो हमारी गांठ इतनी मज़बूत बंधी हुई है। अस्तु, अत्र कुशलं तत्रास्तु।
बुधवार, 09.05.12





अगले आकर्षण हैं- 
  1. दर्द के गुणसूत्र
   2. श्मशान गीता (तीन भाग)

Comments

गांठों को खोलने का जो सिलसिला आपने शुरू किया है उसे बंद करना ज्यादा उचित होगा क्योंकि कुछ गांठे निरंतर बंधी रहनी चाहिये. विवाह की वर्षगांठ पर ढेर सारी मुबारकबाद.
Shanti Garg said…
बहुत बेहतरीन व प्रभावपूर्ण रचना....
मेरे ब्लॉग पर आपका हार्दिक स्वागत है।
‘मैं सब कागज उठाकर डाल दूं चूल्हे में अब के अब’,
ये कहती आई जब खाने को बुलाने आयी।


हा...हा...हा.....
ऐसा ही होता है सभी कवियों के साथ ......:))
kumar zahid said…
आप पूछ रहे हैं कि बाल-दिवस और शिक्षक-दिवस किसकी मृत्यु के दिन है? पता नहीं। शायद बालमृत्यु की याद में बाल दिवस मनाया जाता है और भारत में किसी शिक्षक नामक मरे हुए व्यक्ति की याद में शिक्षक दिवस मनाया जाता होगा। मैं कुछ दावे से नहीं कह सकता। जी! क्या कहा आपने? अरे तो प्यार से बताएं न, इस तरह गाली गलौज क्यों करते है।


चूंकि यह विवाह-जयंती या विवाह -दिवस नहीं है, इसलिए लगता है कि हमारा विवाह अभी भी जीवित है। अगर विवाह जीवित न होता तो गांठ नहीं होता। विवाह का नियम ही गांठ है। बच्चों का जनम दिन मनाते हैं तो कहते हैं पहली वर्षगांठ, तीसरी वर्षगांठ, पाचवीं वर्षगांठ।

मेरा ऐसा है कि हंसने की शायद कमी पड़ गई थी पूर्व में ...तो बहाने ढूंढता हूं हंसने के। जीवन में वैसे भी कथ्यात्मक और तथ्यात्मक हंसी खुशी के अवसर कम ही हैं। भावुक होना एकांतसुख है। ‘स्वांतःसुखाय’ भी आंसू ही बहते हैं। इसलिए लोग पब्लिक में ओव्हर एक्टिंग और अतिउत्साह दिखाते पाए जाते हैं। निश्चित रूप से वे खोखले हैं। मैं संतुलन बनाने का प्रयास करता हूं। कहीं कहीं फिसल जाता हूं पर संभल जाता हूं। मुझे जाननेवाले जानते हैं जो नहीं है उसी के ग़म गलत करने के कारण यह बिना पिये लड़खड़ाया है। मैं खुशियों के लिए ग़म गलत करने का सबसे अच्छा पेय गेय कविता और प्रेय आलेखों को मानता हूं। पीकर भी सुना है कि झूठा और कुछ देर का भुलावा मिलता है। लेखन भी कौन सा कल सच होने वाला है। यह भी ग़म ग़लत करने का एक तरीका मात्र है।


Kya andaz hain janab] kya tanz hain] talkh hain kuch par sachche hai---Tasleem!
Dr.R.Ramkumar said…
रचनाजी ,
हरकीरत जी,
शांति जी,
ज़ाहिद साहब ,


आपकी टिप्पणियों का धन्यवाद!
Dr.R.Ramkumar said…
रचनाजी ,
हरकीरत जी,
शांति जी,
ज़ाहिद साहब ,


आपकी टिप्पणियों का धन्यवाद!

Popular posts from this blog

तोता उड़ गया

और आखिर अपनी आदत के मुताबिक मेरे पड़ौसी का तोता उड़ गया। उसके उड़ जाने की उम्मीद बिल्कुल नहीं थी। वह दिन भर खुले हुए दरवाजों के भीतर एक चाौखट पर बैठा रहता था। दोनों तरफ खुले हुए दरवाजे के बाहर जाने की उसने कभी कोशिश नहीं की। एक बार हाथों से जरूर उड़ा था। पड़ौसी की लड़की के हाथों में उसके नाखून गड़ गए थे। वह घबराई तो घबराहट में तोते ने उड़ान भर ली। वह उड़ान अनभ्यस्त थी। थोडी दूर पर ही खत्म हो गई। तोता स्वेच्छा से पकड़ में आ गया। तोते या पक्षी की उड़ान या तो घबराने पर होती है या बहुत खुश होने पर। जानवरों के पास दौड़ पड़ने का हुनर होता है , पक्षियों के पास उड़ने का। पशुओं के पिल्ले या शावक खुशियों में कुलांचे भरते हैं। आनंद में जोर से चीखते हैं और भारी दुख पड़ने पर भी चीखते हैं। पक्षी भी कूकते हैं या उड़ते हैं। इस बार भी तोता किसी बात से घबराया होगा। पड़ौसी की पत्नी शासकीय प्रवास पर है। एक कारण यह भी हो सकता है। हो सकता है घर में सबसे ज्यादा वह उन्हें ही चाहता रहा हो। जैसा कि प्रायः होता है कि स्त्री ही घरेलू मामलों में चाहत और लगाव का प्रतीक होती है। दूसरा बड़ा जगजाहिर कारण यह है कि लाख पिजरों के सुख के ब

काग के भाग बड़े सजनी

पितृपक्ष में रसखान रोते हुए मिले। सजनी ने पूछा -‘क्यों रोते हो हे कवि!’ कवि ने कहा:‘ सजनी पितृ पक्ष लग गया है। एक बेसहारा चैनल ने पितृ पक्ष में कौवे की सराहना करते हुए एक पद की पंक्ति गलत सलत उठायी है कि कागा के भाग बड़े, कृश्न के हाथ से रोटी ले गया।’ सजनी ने हंसकर कहा-‘ यह तो तुम्हारी ही कविता का अंश है। जरा तोड़मरोड़कर प्रस्तुत किया है बस। तुम्हें खुश होना चाहिए । तुम तो रो रहे हो।’ कवि ने एक हिचकी लेकर कहा-‘ रोने की ही बात है ,हे सजनी! तोड़मोड़कर पेश करते तो उतनी बुरी बात नहीं है। कहते हैं यह कविता सूरदास ने लिखी है। एक कवि को अपनी कविता दूसरे के नाम से लगी देखकर रोना नहीं आएगा ? इन दिनों बाबरी-रामभूमि की संवेदनशीलता चल रही है। तो क्या जानबूझकर रसखान को खान मानकर वल्लभी सूरदास का नाम लगा दिया है। मनसे की तर्ज पर..?’ खिलखिलाकर हंस पड़ी सजनी-‘ भारतीय राजनीति की मार मध्यकाल तक चली गई कविराज ?’ फिर उसने अपने आंचल से कवि रसखान की आंखों से आंसू पोंछे और ढांढस बंधाने लगी। दृष्य में अंतरंगता को बढ़ते देख मैं एक शरीफ आदमी की तरह आगे बढ़ गया। मेरे साथ रसखान का कौवा भी कांव कांव करता चला आया।

सूप बोले तो बोले छलनी भी..

सूप बुहारे, तौले, झाड़े चलनी झर-झर बोले। साहूकारों में आये तो चोर बहुत मुंह खोले। एक कहावत है, 'लोक-उक्ति' है (लोकोक्ति) - 'सूप बोले तो बोले, चलनी बोले जिसमें सौ छेद।' ऊपर की पंक्तियां इसी लोकोक्ति का भावानुवाद है। ऊपर की कविता बहुत साफ है और चोर के दृष्टांत से उसे और स्पष्ट कर दिया गया है। कविता कहती है कि सूप बोलता है क्योंकि वह झाड़-बुहार करता है। करता है तो बोलता है। चलनी तो जबरदस्ती मुंह खोलती है। कुछ ग्रहण करती तो नहीं जो भी सुना-समझा उसे झर-झर झार दिया ... खाली मुंह चल रहा है..झर-झर, झरर-झरर. बेमतलब मुंह चलाने के कारण ही उसका नाम चलनी पड़ा होगा। कुछ उसे छलनी कहते है.. शायद उसके इस व्यर्थ पाखंड के कारण, छल के कारण। काम में ऊपरी तौर पर दोनों में समानता है। सूप (सं - शूर्प) का काम है अनाज रहने देना और कचरा बाहर निकाल फेंकना। कुछ भारी कंकड़ पत्थर हों तो निकास की तरफ उन्हें खिसका देना ताकि कुशल-ग्रहणी उसे अपनी अनुभवी हथेलियों से सकेलकर साफ़ कर दे। चलनी उर्फ छलनी का पाखंड यह है कि वह अपने छेद के आकारानुसार कंकड़ भी निकाल दे और अगर उस आकार का अनाज हो तो उसे भी नि