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हरी मिर्ची


सुबह सुबह जूते की अंतिम गांठ बांधकर मैं पूरी तरह तैयार होकर घूमने के लिए सीधा खड़ा हो गया। सुबह की हवा स्वास्थ्य के लिए उपयोगी है। उपयोगितावाद का यह मंत्र मैंने ऐन बचपन में ही शहद के साथ चाटा है। जब तब इसकी मिठास मेरे मस्तिष्क पर लिपट जाती है। मैं जब माथे पर हाथ फेरते हुए होंठों पर जबान फिराता हूं ,तो इसका मतलब यही होता है कि अतीत अपनी सुन्दरता के साथ मुझे याद आ रहा है।
‘‘लौटते हुए हरी धनिया और हरी मिर्च तो नहीं लानी है?’’ निकलने के पहले मैंने अंदर की तरफ़ मुंह करके आवाज़ लगाई। अब तक पत्नी जान चुकी है कि नर्मदा नगर और मोती तालाब के बीच का जो अध -उधड़ा रास्ता है, उसमें करीब आधा दर्जन सब्ज़ियों की घरेलू दूकानें हैं जो सुबह सुबह ही खुल जाया करती है। मकानों के अहातों की सफाई और छिड़काव के बाद ,सब्ज़ियों के तख़्तों का सजना ऐसा ही है जैसे आंगन में किसी ने हरी, लाल, भूरी, बैंगनी, गुलाबी, प्याजी-आलुई रंगोलियां डाल दी हों।
‘आंखों के लिए हरापन और हरियाली देखना अच्छा होता है।‘ हरी मिर्च और हरी धनिया की चटनी की तरह यह बात मां ने बचपन में कई बार मेरे अलसाए हुए सबेरों को चटाई है। मैं अक्सर धुले हुए आंगनों में सजी हुई दूकानों को देखकर इसे याद करता हूं।
प्रायः मैं गोंदिया रोड पर डा. अंबेडकर चौराहे की तरफ़ निकलता हूं। इस मुख्य रास्ते पर काफी खुलापन है। दोनों तरफ़ समृद्धियों के शिखरों और सोये हुए बाजारों के सटरों के बीच से गुजरते सैकड़ों स्वास्थ्यकामी नगरजनों को देखकर अच्छा लगता है। ऐसे वृद्धजन भी हैं, जो अपने लड़खड़ाते-लंगड़ाते साठोत्तरी शरीर को आज की हवा खिलाते हुए जीने के लिए संघर्षशील हैं।
दिन भर टनों कार्बन डायअक्साइड और गंदगी से सनी हुई धूल उड़ानेवाली गाड़ियां अभी सोई हुई हैं। इक्का दुक्का स्कूल कालेज जाती हुई स्कूटियां बगल से सर्राती हुई निकल जाती है। नयी पीढ़ी की तैयारी को देखकर मन उमंग और स्फूर्ति से भरने लगता है। ऐसा लगता है जैसे स्कूल ,कालेज और टयूशन जाते बच्चे अपने इंद्रधनुषी सपनों को पूरे वातावरण में छिड़कते हुए चले जा रहे हैं। अच्छा लगता है तो शुद्धता का आभास दिलाती आक्सीजन की कल्पना को सांसों में खींचकर मैं बड़े उत्साह से आगे बढ़ने लगता हूं।
परन्तु इस उत्साह में भी मैं सावधान हूं। काली काली चिकनी और साफ़-सुथरी सड़क पर गंदगी पैरों के नीचे ना आ जाये, इस बात का विशेष ख़्याल रखना पड़ता है। गंदगी से मन ख़राब होता है लेकिन उसे संभालना पड़ता है। पता नहीं किस बात पर, किस शिकायत से, किस गुस्से से लोग इतनी साफ़-सुथरी सड़क पर थूक दिया करते हैं। पता नहीं किसका मुंह उन्हें याद आ जाता है। पता नहीं कौन सा अन्याय या अत्याचार, कौन सा दुव्र्यवहार, किसका विश्वासघात उन्हें याद आ जाता है कि इतनी घृणा से वे थूकते चलते हैं। थूकते चलनेवाले लोगों की बीमारियों और तकलीफ़ों की याद में मैं गहरी सांस लेता हूं और उनकी थूकी हुई गंदगियों के प्रति सहानुभूति और सहिष्णुता की ख़ामोशी का रूमाल मुंह पर रखकर संभलता हुआ आगे बढ़ जाता हूं। अच्छा हुआ हमारी नागरिकता शवासन पर है और हमने ऐसा कोई कानून नहीं बनाया है कि सड़क पर थूकना अपराध है, वर्ना नागरिकों की यह मूलभूत स्वतंत्रता भी जाती रहती।
बहरहाल ,मैं आगे बढ़ता हूं। बायीं तरफ़ नगरपालिका का बहुउद्देशीय मैदान है। भ्रष्टाचार विरोधी कवि सम्मेलन अभी अभी यहां हुआ है और बहुत से लोगों को भले ही कविताओं की एक पंक्ति याद न हो, पर इस बात की याद है कि कैसे उनको स्पेशल पास मिले थे। सामने डाॅ. अंबेडकर चौक है जहां से एकदम बाएं जो रास्ता जाता है, वह थाना भी जाता है और मोती तालाब भी। मोती तालाब के किनारे एक गार्डन विकसित किया गया है।
इस गार्डन तक पहुंचने के दो मार्ग है। थाने की तरफ से जानेवाला रास्ता डामरीकृत है। लेकिन सरस्वती नगर की ओर से आनेवाला रास्ता चुनौती भरा है। ऊबड़-खाबड, धूल और गड्ढों से भरा। ऐसा लगता है यह हिस्सा पालिका का सौतेला बेटा है या पारिवारिक हिस्सा-बांट के झगड़े में पड़ा हुआ है या फिर किसी मजबूरी का शिकार है। खैर, इन सब पचड़ों में मुझे नहीं पड़ना चाहिए। ऐसे विचारों से संबंधितों को मिर्ची लग सकती है, मतलब खराब लग सकता है। फिर सुबह की सैर अंदर जमा विष को निकालने के लिए होती है, विष ग्रहण करने की नहीं। जिस तरह मिर्च लगे तो घी और शक्कर से उसे शांत करना चाहिए, उसी तरह धूल उड़े तो नाक में रूमाल रखना चाहिए। गंदगी दिखे तो मुंह फेर लेना चाहिए। इन सिद्धांतों पर चलकर ही बची खुची शुद्धता का आचमन किया जा सकता है।
इसी उद्देश्य से, बहुउद्देशीय मैदान के बाद यही वह गार्डन है जो सबके उपयोग के लिए चौबीस घंटों खुला रहता है। उल्लेखनीय है कि आवारा मवेशियों को रात में जितना आराम डामर-रोड पर मिलता है, उससे ज्यादा मज़ा मल्टीपरपज़ मैदान में आता है। उससे कहीं ज्यादा आनंद उन्हें गार्डन में आता लेकिन गार्डन में मवेशियों का प्रवेश वर्जित है। कारण यह है कि जो कुछ मनुष्यों को देखने में सुन्दर लगती है, उसे मवेशियां चाव से खाना पसंद करती हैं।
हालांकि कुछ मनुष्य भी ऐसे होते हैं जो फूलों की सुन्दरता को देखकर पहले आनंदित होते हैं, फिर उन्हें छूते हैं और फिर तोड़कर खेलते है ,उन्हें नोचते है और चबाकर थूक भी देते हैं। उन्हें देखकर पं. माखन लाल चतुर्वेदी की पंक्तियां याद आती हैं, ‘‘मुझे तोड़ लेना वनमाली उस पथ पर तुम देना फेंक, मातृभूमि को शीश चढ़ाने जिस पथ जाएं वीर अनेक।’’ लगता है फूल तोड़नेवालों ने यह नहीं पढ़ा। ऐसा मानकर कि वे पढ़े लिखे होंगे, यहां लिख दिया गया है ‘‘ कृपया फूल न तोड़े।’’ मेरे ख्याल से पश्चिमी कवि शैक्सपियर का यह कथन भी लिख देना चाहिए -‘‘ब्यूटी इज़ टू सी, नाॅट टू टच’’। शायद ये विद्वान लोग यह कहना चाहते हैं कि प्रकृति के साथ मनुष्यों की तरह पेश आओ, मवेशी मत बनो। पर लिखे हुए कौन को कौन पढ़ता है।

गार्डन के सामने ही एक सूचना पर मेरी नजर पड़ती है, लिखा है ‘‘मुंहपर पट्टी बांधकर आनेवालों को गार्डन में घुसने की मनाही है।’ यह सूचना जरूरी है। देशभर के बैंकों में, एटीएम में , सरकारी कार्यालयों में और सभी संरक्षित तथा सार्वजनिक स्थानों में मुंह पर पट्टी बांधकर आनेवालों की मनाही है। आनंदवादियों, आतंकवादियों और विध्वंसवादियों ने पर्दाप्रथा को फिर से जीवित करने की कोशिश की थी, जिसे कानून बनाकर समाप्त कर दिया गया है। प्रदूषण, धूप और धूल से बचने की भावना शुद्ध और सात्विक है, मगर हर शुद्धता और सात्विकता का लाभ कुछ स्वार्थी और विघ्नसंतोषी जीव ले लिया करते हैं। इसलिए समाजविरोधी गतिविधियों के लिए कानून ज़रूरी हैं।
मोती-गार्डन के अंदर घुसने लिए मुड़े-तुड़े ऐंड़े-बेड़े गेट की व्यवस्था की गई है। ऐसा नहीं है कि लापरवाही की गई है और उसे सुधारे जाने के बारे में नहीं सोचा गया है। इस संवेदनशील जिले के पास इतनी समझ तो है ही। वास्तव में आजकल एंटिक का जमाना है। पुरानी खंडहर चीजों के प्रति लोगों की रुचि है। फाइव स्टार्स होटलों में बांस के गेट और टूटी हुई दीवारें बनाकर उसे एंटिक लुक दिया जाता है। मोती गार्डन की मेंहदी की कच्ची बाड़ और लोहे के टूटे दरवाजे हमारी धरोहरवृत्ति की उद्घोषणाएं हैं। इस दृष्टिकोण का लुत्फ़ लेते हुए मैं और अंदर आता हूं।
मोती गार्डन सुन्दर है। मोती तालाब की तुलना में गार्डन बीस ही है। गार्डन यानी उद्यान तरीके से सजाया गया है। बच्चों के लिए फिसल पट्टियां, जिन्हें बालाघाटी में घिसरपट्टी कहा गया है। ये पट्टियां केवल बच्चों के लिए हैं, बड़े होते लड़के और लड़कियां, बड़ी बड़ी बातें करनेवाले सिद्धांतवादी लोग तो कहीं भी फिसलकर जिन्दगी का आनंद ले सकते है।
कुछ स्वास्थ्य प्रेमी बच्चों के लिए गार्डन में सिंगलबार और डबलबार हैं। जू के नाम पर चार पांच दड़बे और उनमें पचहत्तर के करीब खरगोश हैं। जिन्होंने अब तक कुछ नहीं देखा, उन नन्हें मुन्ने बच्चों को ‘‘देखो देखो आहा कितने सुन्दर’’ कहकर ये खरगोश दिखलाए जाते हैं। हालांकि, बालाघाट को प्रकृति ने इतना भरपूर दिया है कि अलग से उद्यान या जू की आवश्यकता नहीं है किन्तु कंक्रीट और पेट्रोल के तीव्रगति से होनेवाले विकास की खुरदुराती हथेलियों पर हरियाली की मेहंदी की टिपकियां रखने के लिए हर मोहल्ले और वार्ड में उद्यान जरूरी हैं।
गार्डन के अंदर घूमने के लिए कंक्रीट ब्रिक्स के घुमावदार रास्ते हैं। घूमकर थक जाने पर बैठने के लिए छोटे छोटे लान और बेंचेज़ भी हैं। आराम, बातचीत, चिन्तन-मनन, अध्ययन, सांठ गांठ आदि के लिए बेंच जरूरी है। यहां उपलब्ध इन बेंचों की संख्या अठारह हैं। इन्हीं में से एक बेंच पर मैं आकर बैठ जाता हूं। इस बैंचपर बैठकर किसी सभ्य व्यक्ति ने पान खाया होगा, इस बात के प्रमाण पड़े हुए लाल लाल धब्बे दे रहे हैं। मैं अपने पैरों को इन धब्बों से बचाकर संभलकर बैंच पर बैठे हुए आसपास नज़र करता हूं। अचानक सामने की बेंच पर मेरी नजर पड़ती है। मुझे देखकर आश्चर्य होता है कि उस बेंच पर तीनेक सौ पेज की एक नोटबुक रखी हुई है। नोटबुक एकदम नयी मालूम पड़ती है। किसी विद्यार्थी की होगी। वह सुबह सुबह आकर यहां पढ़ता होगा। या उसका ट्यूशन छूटता होगा तो यहां आकर नोटबुक बेन्च पर रखकर व्यायाम करता होगा।
लेकिन इस समय आसपास कोई भी विद्यार्थीनुमा व्यक्तित्व मुझे दिखाई नहीं देता। प्रायः सभी प्रौढ़ किस्म के या सीनियर सिटीजन आयुवर्ग के जर्जर व्यक्ति चारों तरफ दिखाई देते हैं। कोई सीढ़ियों के किनारे के चबूतरे पर कपालभांति कर रहा है तो कोई अनुलोम विलोम कर रहा है। कोई योगदा सत्संग के संधि -योग कर रहा है तो कोई सर्वांग आसन के माध्यम से स्टिफनेस को लचीला बनाने की कसरत में व्यस्त है। एक ओर एक गोल्डल जुबली मना चुके सज्जन हैं जो पिछले दस मिनट से शीर्षासन पर उल्टे खड़े हैं। उन्हें देखकर हर कोई हक्काबक्का है। क्या यह नोटबुक इनमें से किसी एक योगी की हो सकती है ? ऐसा अनुमान करने में मुझे दुविधा हो रही है।
अकस्मात् किसी ‘नोटबुक बाम्ब’ की कल्पना से मैं क्षणभर के लिए सिहर जाता हूं। किन्तु बहुत से लोगों को निश्चिन्त होकर उसी जगह के आसपास तीव्रगति से आवक-जावक व्यायाम करते देखकर मेरा धैर्य लौट आता है। फिर एक गुलाबी क्ल्पना से मेरी धड़कनों में पियानों सा बजने लगता है। मुंह ढंककर आने की पाबंदी लग जाने से ‘आपरेशन नोटबुक’ का उपाय युवावर्ग ने निकाल लिया होगा। अपने दिल की बात लिखकर नोटबुक में दबाकर रख दी और जिसको निकालकर जिसे पढ़नी है, उसने पढ़ ली। क्या मैं प्रतीक्षा करूं और देखूं कि कौन आता है उसके पास। पर तुरंत मुझे मेरी अंतरात्मा धिक्कारती है और कहती है -‘‘मूर्ख! तू इस तरह दरबान की तरह बैठा रहेगा तो कौन आएगा। उठकर इधर उधर घूम और झाड़ियों के पीछे से नोटबुक पर निगाह रख।’’ हां यह अच्छा आइडिया है।
अंतरात्मा की बात मानकर मैं उठने ही वाला होता हूं कि एक सज्जननुमा वृद्ध आकर बेंचपर रखी डायरी के पास चले जाते हैं। वे देखने में किसी अवकाशप्राप्त अधिकारी की तरह गर्वित और आत्मतुष्ट लग रहे हैं। मेरे देखते ही देखते वे नोटबुक उठा लेते हैं। उसमें से एक कागज निकाल कर पढ़ते हैं और उसे अपनी जेब में रख लेते हैं। उनके हाथ में एक प्लास्टिक का कैरीबैग है उसे वे नोटबुक के पास रख देते हैं और आगे निकल जाते है। मैं आश्चर्य से फिर सोचने लगता हूं। ‘‘ हे भगवान ! क्या इस शहर में बूढ़े लोग ऐसा भी करते हैं।’’ पर मेरे संस्कार मुझे धिक्कार कर कहते हैं-‘‘ नालायक ऐसा सोचते हुए तुझे शर्म नहीं आती।’’ मैं शर्माकर किसी अच्छी कल्पना करने का प्रयास करता हूं। ‘हे प्रभु! अगर इस बीच उस नोटबुक को उठाने कोई आ जाए तो मुझे उत्तर मिल जाए। कोई छोटा बच्चा, कोई बड़ा लड़का, कोई बूढ़ी औरत।’ प्रभु ने तत्काल प्रार्थना सुनी और प्रमाण भी भेज दिया।
एक नाटे कद के बूढ़े व्यक्ति लड़खड़ाते हुए वहां आये और उन्होंने नोटबुक और कैरी बेग उठा लिया और उसी अंदाज में चले गये। वे किसी स्कूल के रिटायर्ड आचार्य या किसी कार्यालय के ईमानदार बाबू की तरह गंभीर और अनुशासित लग रहे थे।
मेरे लिए नोटबुक निरन्तर रहस्य के नये-नये चक्रव्यूह रच रही है। मैं मामले को यही खत्म करने के लिए जानबूझकर इस निष्कर्ष पर पहुंचता हूं कि दोनों बुजुर्ग कभी मित्र रहे होंगे। पहले साथ साथ घूमने आते रहे होंगे। फिर दोनों में खटक गई होगी। बोलचाल बंद हो गई होगी। पुराने कुछ कर्ज रहे होंगे जिन्हें वे नोटबुक में दबाकर आदान-प्रदान कर रहे हैं। कुछ चीजें एक दूसरे के पास छूट गई होंगी जिन्हें कैरी बेग में रखकर ले दे रहे होंगे। इस तर्क से मुझे संतोष मिलता है और नोटबुक से मेरा ध्यान इस तरह हट जाता है जिस तरह कमलपत्तों पर से बिना निशान छोड़े पानी की बूंदें।
अब मैं उठकर फिर टहलने लगा हंू। टहलते हुए मैं गूलर के पेड़ के नीचे से गुजरता हुआ, फाइबर के पेशाबघर से मुड़कर तालाब की ओर मुड़ी हुई गली पर चल पड़ता हूं। देखता हूं कि उद्यान की गलियां कई स्थानों पर पतले रास्ते से निकलकर तालाब के किनारे कच्चे घाट बन गई हैं। लेकिन मुख्य द्वार कीे सीध में ही पक्का घाट है। पांच दस सीढ़ियों वाले इस घाट में खड़े होकर मैं तालाब को उसके विस्तार में देखता हूं।
पूरा मोती तालाब कमलगट्टों और सिंघाड़ों से भरा हुआ है। सिंघाड़ों के मोटे छिलके और कमल के बीज के ऊपर का कड़ा आवरण जैसे सीपियां है। सिंघाड़े के फलों और कमल के बीजों को पकाकर उनके अंदर से सफेद खाद्यान्न निकाला जाता है। पका हुआ सिंघाड़ा मीठा और कमल गट्टे से प्राप्त मखाना बेस्वाद सा होता है। सिंघाड़ा फलाहार के काम आता है और मखाना जचकी के लड्डू में पौष्टिक मेवे के रूप में डाला जाता है। दोनों शुद्ध मोती की तरह सफेद होते हैं। इन्हीं वानस्पतिक मोतियों के कारण तालाब मोती तालाब बना होगा। यह मेरा अनुमान है।
मैं देख रहा हूं कि मोती तालाब में नैसर्गिक रूप से ऐसे शैवाल भी हैं जिन्हें देखकर तुलसी के उन दुष्टों की याद आ जाती है जो बिना किसी काम के दाएं बाएं होते रहते हैं। शैवाल के अलावे प्लास्टिक , पोलीथिन, श्रद्धापूर्वक विसर्जित सामग्रियां, मिट्टी के दिये और सड़े हुए पत्ते भी मैं देखता हूं। सिंघाड़े और कमल कीचड़ में ही होते हैं इसलिए पर्याप्त कीचड़ और दलदल की व्यवस्था की गई है। प्रायः कीचड़ बढ़ाने की हर संभावना को खुला रखा गया है। पहली नज़र में तालाब की अशुद्धि को देखकर पालिका प्रबंधन को पत्र लिखने की जो इच्छा हुई थी वह, कीचड़ में कमल और सीपियों में मोतियों की तथ्यात्मकता से ध्वस्त हो गई। वैसे भी मेरा अनुभव कहता है कि व्यवस्था और प्रबंधन से जुड़े किसी भी अभिकरण को सुझाव नहीं देना चाहिए। ऐसी संस्थाओं के अंदर जो बिगड़े हुए उपकरण काम कर रहे होते हैं उन्हें मिर्ची लगती है। इसलिए हमेशा किसी मिठास की तलाश करते रहना चाहिए। मिठास के लिए मैं तन्मयता से तालाब के अंदर खड़े पेड़ों और झाड़ियां देखने लगता हूं जिनसे किसी अनाथ समुद्री टापू का भ्रम पैदा हो रहा है। अंडमान निकोबार की याद दिलानेवाले इन भ्रांतिमान टापूओं की संख्या चार है।
उधर से हटकर मैं फिर उद्यान की गलियों में घूमने लगता हूं। भांति भांति के फूलों और सजावटी पत्तियों की छटाएं मुझे गदगदा देती हैं। मोंगरों की पूरी लाॅन ही है। उद्यान की एक उत्तरी गलीं के दोनों तरफ भोर में झरे सिंन्दूरी डंठलोंवाले सफेद रंग के छोटे छोटे हरसिंगार के फूल अभी भी अपनी खुशबू बिखेर रहे हैं। यह खुशबू यूंही न बिखर जाए इस ख़्याल से मैं ज़ोर से सांस खींचकर सुगंध को जीभर कर फेफड़ों में भर लेता हूं। आजकल सुगंध मिलती कहां हैं ? वातावरण में पट्रोल, डीजल और दुनिया भर की दुर्गन्ध भरी हुई है। इसी पर्यावरणीय प्रदूषण ने अंदर के भावों और विचारो ंको भी शायद दुर्गन्ध से भर दिया है। इसलिए बहुत दिनों बाद मिले सच्चे मित्र की तरह शैफाली उर्फ हरसिंगार की उस सुगन्ध को मैं लपक कर अंजोर लेता हूं।
फिर मैं कृतज्ञता और प्रेम से झुकता हूं और पारिजात, हरसिंगार या शैफाली के नामों से विख्यात फूलों को चुनकर हथेलियों में भर लेता हूं। हरसिंगार की ये झाड़ियां तालाब के ईशान पर लगाई हैं। हरसिंगार देववृक्ष भी कहलाता है। ईशान कोण ही उसकी उपयुक्त जगह है। किसी वास्तुविद से परामर्श लेकर पारिजात का रोपण इस स्थान पर किया गया होगा। फिर मैंने बड़ी उत्सुकता से हरसिंगार की झाड़ियों को गिना। वे नौ थीं। निश्चित रूप से पालिका में कोई रसज्ञ सांस्कृतिक बुद्धिजीवी बैठा है जो इस ईश्वरीय वृक्ष को पूर्णांक ‘नौ’ में लगाकर अपनी परिमार्जित रुचि का परिचय दे रहा है। फिर परितुष्ट भाव से चलता हुआ, गेट के बाहर निकल जाता हूं। मुट्ठियों में बंद पारिजात के इन नन्हें फूलों की मीठी खुशबू के बाद मैं किसी भी तीखे-चरपरे ख्याल से अपने मस्तिष्क के पर्यावरण को खराब नहीं कर सकता था। नाक को खुश्बू लगे तो दिमाग को मिर्ची क्यों लगे।
मिर्ची से याद आया कि मुझे हरी मिर्ची लेकर लौटना है। मिर्ची सुबह के स्वाद को चटपटा कर देती है, इस बात को हमेशा याद रखना चाहिए। वर्ना यह मिर्ची पांच करोड़ की सीधी चपत लगाती है। कल रात ही ‘एक करोड़’ जीतने वाले एक व्यक्ति के सामने ‘पांच करोड’ का यह सवाल आया था कि ‘‘संसार की सबसे तीखी मिर्ची कौन है।’’ विकल्प आने के पहले ही लोगों को लगा कि ऐश्वर्या, प्रियंका, कैटरीना और करीना के नाम आएंगे। मगर विकल्प में ग्लैमरस स्पाइसी हीरोइनों के स्थान पर सचमुच की मिर्चियां शामिल की गई। बिहारी प्रतियोगी ‘संसार की सबसे तीखी मिर्ची’ को नहीं पहचान पाया और पचास करोड़ जीतने से वंचित रह गया। जिस मिर्ची का नाम किसी ने नहीं सुना ....उसका नाम निकला - ‘स्कार्पियो बुच टी’....संक्षिप्त करके बोले तो- ‘एस बी टी’। एस बी टी’ बोलो तो ‘हरी मिर्ची’ सुनाई देता है।
अब चूंकि हरी मिर्ची मुझे खरीदते हुए जाना है, इसिलिए दिमाग में केवल एक ही चीज़ गूंज रही है- हरी मिर्ची।


निबन्ध, डायरी, रपट, कहानी / 07.11.11-09.11.11

Note : मुझे जिन स्थलों को रेखांकित करने के अभिमत मिले उन्हें यथोचित रेखांकित कर दिया है। आप भी सुझाएं।

Comments

प्रातः भ्रमण पर इस से सार्थक पोस्ट मैंने नहीं पढ़ी...बधाई स्वीकारें



नीरज
बेहतर...हमेशा की तरह...
साफ-सुथरा व्यंग्य।
बढि़या आलेख।
Rakesh Kumar said…
आपके ब्लॉग पर पहली दफा आया हूँ.आपका रोचक,धाराप्रवाह लेखन बहुत दिलचस्प लगा.

समय मिलने पर मेरे ब्लॉग पर आईयेगा.
आपका हार्दिक स्वागत है.
SANDEEP PANWAR said…
बेहद ही बढिया समझाते हुए लिखा है।
Always Unlucky said…
I was just looking for this information for a while. After 6 hours of continuous Googleing, at last I got it in your site. I wonder what's the lack of Google strategy that do not rank this type of informative web sites in top of the list.

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