बड़े शहर का चौराहा है, अब भी खड़ा हुआ।
इससे होकर जानेवाला, रस्ता बड़ा हुआ ।
आबादी बढ़ती है तो रफ्तार भी बढ़ जाती।
इसकी टोपी उड़कर उसके सर पर चढ़ जाती।
सत्ता अपना दोष प्रजा के माथे मढ़ जाती।
हर मुद्रा में झलक रहा है देश का बौनापन,
गांधीवाला नोट भी मिल जाता है पड़ा हुआ।
कंगाली के अनचाहे बच्चे हैं सड़कों पर।
चढ़ी जा रही फुटपाथों की धूल भी कड़कों पर।
तली जा रही भारत-माता, ताज के तड़कों पर।
आदर्शों के पांच-सितारा होटल में हर शाम,
हर इक हाथ में होता प्याला हीरों जड़ा हुआ।
उधर पीठ भी कर के देखी जिधर बयार बही।
उनका पानी दूध हो गया , मेरा दूध दही।
अपनी आप जानिये मैंने अपनी बात कही।
कांटों पर चल-चलकर मेरे पांव कुठार हुए,
जितनी चोट पड़ी यह सीना उतना कड़ा हुआ ।।
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उनका पानी दूध हो गया ,मेरा दूध दही।
अपनी आप जानिये मैंने अपनी बात कही।
कांटों पर चल-चलकर मेरे पांव कुठार हुए,
जितनी चोट पड़ी यह सीना उतना कड़ा हुआ ।।
Kya baat hai!
जितनी चोट पड़ी यह सीना उतना कड़ा हुआ ।।
एक बेहतरीन गीत...
...नयी पुरानी हलचल में आज ... दो पग तेरे , दो पग मेरे
वाह वाह.... खुबसूरत गीत...
सादर...
जितनी चोट पड़ी यह सीना उतना कड़ा हुआ ।।
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जानती हूँ पढ़ लेंगे आप इन रिक्त स्थानों में लिखे शब्दों को.
जितनी चोट पड़ी यह सीना उतना कड़ा हुआ ।।
बेहतरीन प्रस्तुति
अपनी आप जानिये मैंने अपनी बात कही।
कांटों पर चल-चलकर मेरे पांव कुठार हुए,
जितनी चोट पड़ी यह सीना उतना कड़ा हुआ ।।
बेहतरीन सार्थक चिंतन युक्त रचना....