Skip to main content

मेरा मुंह

मित्रों !
इन दिनों आपने भी देखा होगा कि जिसके जो मुंह में आ रहा है बोले जा रहा है। जिसको जहां जगह मिल रही है वहां मुंह मार रहा है। किस मुंह से लोग भ्रष्टाचार के विरोध में बोल रहे हैं और किस मुंह से लोग भ्रष्टाचार विरोधियों को पीटकर अपने मुंह से उसे उचित बता रहे हैं , यह समझ में नहीं आ रहा है। कौन सा मुंह लेकर कौन आएगा और आपके मुंह पर किसका मुखौटा चिपका जाएगा ,यह सोचकर ही झुरझुरी आ जाती है।
इसी झुरझुरी को मिटाने के लिए मैंने अपने ही मुंह को टटोलकर देखने की कोशिश की है। ‘ये मुंह और मसूर की दाल’ की तरह ‘छोटे मुंह बड़ी बात’ शायद कह रहा हूं और ‘मुंह उठाए’ आपके पास चला आया हूं। मैं आपका ‘मुंह इस उम्मीद में देख रहा हूं’ कि आप ‘मुंह बनाते है’ या मुस्कुराते हैं।


मेरा मुंह

मेरे पास एक मुंह है। किसी किसी के पास दो होते हैं। किसी के पास तीन होते हैं। चार मुंह वाले भी सुने हैं। पांच मुंह वाले एक मृत्युंजय के बारे में भी सुना है। उन्हीं का एक पुत्र छः मुंह वाला है। बात बढ़ी है तो दस मुंह वाले तक पहुंची है। एक समय ऐसा भी आया कि अलग अलग मुंह लेकर प्रकट होनेवाले एकमुखी ने पिछले सारे पिद्दियों के रिकार्ड तोड़ते हुए सहस मुंह वाला एक रूप भी प्रत्यक्ष किया। यह सब मेरी क्षमता के बाहर की बात है। इसलिए मैं अपने एक ही मुंह से संतुष्ट हूं।
संतोष इस बात का है कि यह मेरा अपना मुंह है। किसी किसी के पास तो किसी दूसरे का मुंह होता है जिसे लेकर वे बड़ी बड़ी बाते करते हैं। आजकल इस तरह की बातें बहुत हो रही हैं। एक ही आदमी कई आदमियों का मुंह लेकर बातें कर रहा है तो कोई अपना मुंह लीज पर उठाए हुए हैं। किसी के मुंह का उपयोग अमेरिका कर रहा है तो किसी का इटली। किसी के मुंह को किसी ने किराए पर ले रखा है तो किसी के मुंह से किसी और के मुंह की गंध आती है।
शुक्र है कि मेरे पास मेरा अपना मुंह है। हाथी ,घोड़े ,सुअर या सिंह का नहीं। अपने मुंह के बारे में दूसरी उल्लेखनीय बात यह है कि इस पर कोई लीपा पोती मैं नहीं करता। जैसा है वैसा ही रहने देता हूं। मेरा मुंह मौलिक , प्रायः प्रकाशित और प्रायः प्रसारित है। इसका प्रयोग अन्यत्र नहीं किया गया है। अगर इसकी नकल किसी ने की हो तो यह उसकी जिम्मेदारी है। इसके लिए मुझे दोषी न ठहराया जाये। इससे संबंधित सभी मुकदमें कहीं भी नहीं किये जाएंगे।
जैसा कि मैं निवेदन कर रहा था कि मेरा मुंह बिना लीपा पोती के मेरा अपना मौलिक मुंह है। जो मुझे जानने का दावा करते हैं उन्होंने मेरा मुंह देखा होगा और इसकी ताकीद कर सकते है कि इसमें कोई मिलावट नहीं की गई है। जो मेरा मुंह ही नहीं देखना चाहते उनसे मेरी कोई शिकायत नहीं है। ऐसे बहुत से लोग हैं जिन्हें मेरे मुंह देखने की कोई इच्छा नहीं है। मुझे भी कहां है। मैं कह चुका हूं कि मैं अपने इकलौते मुंह से संतुष्ट हूं।
मेरे अपने एक मुंह की विशेषता यह है कि इसमें दो आंखें हैं। इससे मुझे यह सुविधा प्राप्त है कि इससे मैं दो दृष्टिकोण वाला हो जाता हूं। एक दृष्टिकोण मेरा अपना होता है और दूसरा सामनेवाले का। अपने दृष्टिकोण को मैं सामनेवाले पर नहीं थोपता और सामने वाले के दृष्टिकोण को जानता समझता हूं और अपने पर हावी नहीं होने देता। ऐसे लोग होते होंगे जिनके एक ही दृष्टिकोण होता है। ऐसे लोगों को कहनेवाले 'काना' कहते हैं। राजनीतिक दल इन्हें निष्ठावान और प्रतिबद्ध जैसे भारी भरकम नामों से संबोधित करते हैं जो हाजमोला के बाद भी चिपकू कब्ज की तरह उनके दिमाग में मरणोपरांत भी जमा रहता है। मैं तो भाइयों और बहनों! एक कामन मैन हूं , एक साधारण सा आदमी हूं। हालांकि वाद विवाद में अक्सर इस पर भी आपत्ति हो सकती है। प्रायः आश्चर्य से कहा जा सकता है-‘‘ यह आदमी है ? आदमी ऐसे होते हैं ?’’
आदमी कैसे होते हैं ,मैं सच कहता मुझे कुछ पता नहीं। बहुत से लोग मुझे आदमी कहते हैं तो मान लेता हूं कि मैं आदमी हूं। इसमें मेरी कोई हेकड़ी नहीं है। कोई मोह भी नहीं है। आप अपनी सुविधानुसार मुझे जो कहना है कह सकते हैं। मैं अपना दृष्टिकोण क्यों आप पर थोपूं ? मेरे दृष्टिकोण से हर आदमी को यही करना चाहिए। अपनी सीमाओं में सबको सब कुछ अपनी मर्जी से करना चाहिए और अपनी मर्जी किसी पर थोपनी नहीं चाहिए।
अस्तु मेरे अनुसार मेरे मुंह तो एक ही है और अद्भुत रूप से दो आंखें हैं जिसमें दो दृष्टिकोण हैं। एक मेरा है, जिसे मैं ओढ़ाता बिछाता हूं। यही मेरा किचन है, स्टडी रूम है। मैं इसी में सोता और जागता हूं। दूसरा मेहमानखाने की तरह है जो अतिथियों के लिए खुलता और बंद हो जाता है। झाड़ू देकर और दरियां झटकारकर मैं तहा देता हूं ताकि आने जाने वालों को बैठने और खासकर उठने में सुविधा रहे। क्षमा करे मैं इसे किराए पर नहीं उठाता। मुझे जमने और जम जाने वालों से एलर्जी है।
एलर्जी तो मुझे अपने मुंह पर ठीक आंख की हदों से ऊगनेवाली अनचाही और अनुपयोगी खरपतवार से भी है। मेरे मुंह की चमड़ी इनका तो तत्काल विरोध करती हैं। दो चार दिन अगर मैं आपत्ति नही उठाता तो चमड़ी उठाती है। वह दाढ़ी-क्षेत्र में फुंसियों की सेना भेजकर मेरे मुंह पर हमला करती है। नतीजें में मुझे दाढ़ियों का समूल सफाया करना पड़ता है। मित्रों ! मैं आज तक नहीं समझ पाया कि मुंह पर ऊगनेवाली खरपतवार का उद्देश्य क्या है ? दाढ़ियां बिना अनुमति के इस प्रकार जो मुंह के अधिकार क्षेत्र में अतिक्रमण कर रही हैं , उससे वे बताना क्या चाहती हैं ? क्या वे यह कहना चाहती है कि इस देश जो जिसके मन में आए कर सकता है ? जहां चाहे वहां अपना कब्जा जमा सकता है ? कालिख मल सकता है ? अच्छे खासे सुदर्शन चेहरे को बिगाड़नेवाली अरी शूर्पनखाओं ! बंद करो यह जबरदस्ती की घुसपैठ। यह मुंह मेरा है, तुम पाक और अमेरिका की शह पर आतंक मचानेवाले अपराधियों की तरह इसे क्यों बिगाड़ रही हो ? मैंने तुम्हारा क्या बिगाड़ा है ? मैंने तुम्हें कभी आमंत्रित भी नहीं किया। मैं 'क्लीन' परिवार का आदमी हूं। मुफ्त की झंझट मैं कभी नहीं पालता।
हे दाढ़ी! मैं तुम्हारी और तुम्हारे सहोदर मूंछ की अवमानना नहीं कर रहा हूं , निवेदन कर रहा हूं कि आइ डोंट लाइक इट कि कहीं भी ठस जाओ। तुमसे मुझे कभी कोई लाभ नहीं मिला। लोग कर्ज लेने के लिए मूंछ के बाल रखते हैं ,ऐसा मैंने सुना है। मुझे कर्ज की जरूरत नहीं रहती। कितनी सी जरूरत है मेरी ? रोटी और मिल जाए तो दाल ,वर्ना चुटकी भर नमक भी रोटी के साथ बिना हील हुज्जत के पेट में आराम से उतर जाता है। हां ,कुछ लोग मूंछ पर ताव देकर अपना झूठा अहंकार दिखाते फिरते हैं ,यह मैंने भी देखा है। पर बहनजी ! मैं तो इस तरह का गुण्डा भी नहीं हूं। और ना ही मुझे अपनी दाढ़ी पर हाथ फेर कर संतुष्ट होने की आदत है। यह अश्लील कर्म मैं कर ही नहीं सकता। दाढ़ी व्याकरण के हिसाब से स्त्रीलिंग है और मैं स्त्रियों का बहुत सम्मान करता हूं। दाढ़ियों ! बाबाओं के पास जाओ। उन्हें दाढ़ियां रखने और उन पर हाथ फिराते बैठे रहने का अच्छा अभ्यास है। इस कर्म में उन्हें आनंद भी आता है और उन्हें ही लगता है कि इसमें उनकी गरिमा है। शायद उन्हें पता नहीं है कि दाढ़ियां खींचकर आनंद लेने वालों की कमी नहीं है। वे अपनी पराई दाढ़ियों का लिहाज नहीं करते हैं। बस खींच लेते हैं। (दाढ़ी मूंछ के शौकीन कृपया क्षमा करें। मुझे पसंद नहीं है तो क्या करूं ? इस मामले में मनमोहन सिंह जी अच्छे इंसान हैं। वे दाढ़ियां रखते तो हैं ,पर बांधकर रखते हैं।)
मित्रों ! इस अप्रिय प्रसंग को यहीं छोड़कर मैं अपने मुंह की सबसे अधिक मूल्यवान और उत्कृष्ट चरित्रवाली उपलब्धि पर आता हूं। यह मेरे मुंह की सबसे ऊंची चीज है। यह कोई हिमालय का एवरेस्ट नहीं है कि जिस पर कोई हिलेरी और त्वेन सेंग चढ़ उतर सके। इसकी ऊंचाई तक हम स्वयं भी कभी नहीं चढ़ सकते। जितना हम चढ़ते हैं, उतनी ही इसकी ऊंचाई बढ़ती जाती है। इसकी बढ़ती हुई ऊंचाई पर हमें अतिरिक्त सावधानी रखनी पड़ती है कि हम कहीं फिसल न जाएं। फिसले तो गए और दुखद है मित्रों कि इसका सारा खामियाजा भुगतना पड़ता है उसी को। फिसलते हम हैं ,कट वह जाती है। जी जी ..मैं अभी तक नाक की ही बात कर रहा था।
मैं बताना चाहता था कि मेरे मुंह पर एक सर्वोत्तम नाक भी है। इसमें दो छेद हैं जो अनुलोम और विलोम के काम आते हैं। विज्ञान का मुझे पता नहीं पर मेरा आत्मज्ञान कहता है कि एक छेद से आक्सीजन अंदर जाती है और दूसरे से कार्बन डाई आक्साइड बाहर आती है। आक्सीजन जलाने का काम करती है और कार्बन डाइ आक्साइड बुझाने का। जलाने वालों को अंदर किया जाता है और बुझानेवालो को बाहर का रास्ता दिखाया जाता है। यह बात मेरी कभी समझ में नहीं आयी। पर कुदरत का दस्तूर है ऐसा मानकर मैं कार्बन डाइ आक्साइड के पक्ष में ठण्डा पड़ा रहता हूं। कमाल है कि जलानेवाली आक्सीजन से विवाह के बाद जलने वाला बेचारा कार्बन अपने स्वभाव की ठण्डक के कारण बर्फ जमाने के काम आता है। जी नहीं मैं पति को कार्बन और पत्नी को आक्सीजन नहीं कह रहा हूं। आपकी मर्जी है आप जो चाहे समझ ले। मैं तो केवल नाक की बात कर रहा था। अपनी नाक की बात जो पोर्टेबल नहीं है। मैंने सुना है कुछ लोग नाक लगाते रहते हैं। मोबाइल फोन और लैपटाप के जैसे कवर लोग चेंज करते हैं शायद ऐसे ही नाक के कवर होते होंगे। जिस जगह जैसी जरूरत पड़ी वैसी नाक लगा ली। कुछ नाक कटती रहती हैं। नाक रिप्रडक्शन नहीं करती इसलिए हैण्डी प्लास्ट की तरह उस पर रेडी मेड कवर चढ़ा लिये जाते होंगे। कई धार्मिक संस्थान इस तरह के नोजोप्लास्ट बनाते हैं जो उन लोगों को राहत पहुंचाते हैं जिनकी नाक बड़े पैमाने पर कटती है। कटी हुई नाक के लिए ही जैसे ये संस्थान बनाए गए हैं। मैं साधन सम्पन्न व्यक्ति नहीं हूं इसलिए एक छोटी सी सावधानी बरत लेता हूं...भीड़ में और भाड़ में चलते समय रूमाल से नाक को ढंक लेता हूं। नाक पर तानकर घूंसा मारने वालों से भी इस तरह सुरक्षा मिल जाती है। हैंडीप्लास्ट और हैंडकरचीफ का आविष्कार करने वालों का धन्यवाद।
मेरे मुंह में दो कान भी हैं जो प्रायः घर और स्कूलों में खींचने के काम आते रहे हैं। इन्हें खींचकर खुद को बड़ा करनेवाले कई बौनों को मैं अपने कान दान में देना चाहता हूं। जब जब किसी ने मेरे कान खींचे हैं , मेरे दिल में यही ख्वाहिस हुई है कि ये कान इसी को दे दूं। खींचते रहेगा मनचाहे ढंग से और बड़ा होता रहेगा। मैं कोई बूचा नहीं हूं ,मेरे दो कान हैं। एक स्कूल में दान कर दूंगा और एक घर में टांग दूंगा। ऐसा मैं प्रायः सोचता था पर कर नहीं पाया। जीवन में बहुत सी बाते हम सोचते हैं ,कर नहीं पाते। जैसे मेरे मुंह में दो कान हैं ,दोनो से एक साथ सुनना चाहिए। पर मैंने क्या किया ...एक से तो सुनने का काम लिया और दूसरे से सब कुछ बाहर निकाल दिया। मेरे कुछ मित्र कहते हैं कि अगर मैंने ऐसा न किया होता आज बुद्धिमान होता। कुछ अधिक अक्ल मेरे हिस्से में होती। अब मित्रों को क्या कहूं। क्या उन्हें बता दूं कि जितनी अक्ल मेरे पास है ,मैं उसी से परेशान हूं। अधिक होती तो दूसरे परेशान हो जाते। हम देख तो रहे हैं --अमेरिका और रूस और जर्मनी और ब्रिटेन और चीन और भारत...इन सबके पास कितनी अक्ल है। इस अक्ल से ये अपना कुछ भला नहीं कर पा रहे हैं। सिर्फ दूसरों को परेशान कर रहे हैं । आए दिन कोई न कोई राजनीतिज्ञ ज्ञान बांटने विदेश जाते रहता है। ज्ञान बांटने का जन्म सिद्ध अधिकार संतों बाबाओं और प्रवचन कर्ताओं को मिला हुआ है। जाते हैं आए दिन विदेश। सारी दुनिया एटम बम और न्युक्लिर बम और हाइड्रोजन बम और दूसरे अन्य उन्नत बमों से उतनी परेशान नहीं है जितनी इन भारतीय ज्ञानियों से है। अच्छा हुआ मैं ज्ञानी नहीं हुआ। गालिब के शब्दों में ‘मै न अच्छा हुआ बुरा न हुआ।’ कभी कभी सुविधानुसार कबीर की भी मैं सहायता ले लेता हूं और अपने को संतुष्ट रखता हूं कि ‘ मौं सौ बुरा न कोय ।
कुलमिलाकर सब छोटे मुंह बड़ी बातें हैं। मेरा मुंह भी ऐसा ही है। मित्रों ! एक राज की बात कर के अपनी बात समाप्त करने की आज्ञा चाहूंगा। ऐसा ही होता है - बोलने की आज्ञा कोई नहीं लेता ,न बोलने की आज्ञा सभी लेते हैं। बहरहाल , मुंह को लोग होंटों के अंदर छुपे दांतों और जुबान के गठबंधन के रूप में भी जानते हैं। जुबान चलती है बहुत। दांत बहुत चाबते हैं। दोनों के संयोग से जो बातें निकलती हैं ,जिनसे इंसान के व्यक्तित्व की उदघोषणा होती है ,वही वास्तव में मुंह की शान भी हैं और अपमान भी। आए दिन ऐसा होता है कि जिसके मुंह में जो आता है कह जाता है। मेरे मुंह का मामला इस मामले में 'हां हूं 'तक सीमित है। पर मैं अपने अंदर के दांतों से परेशान हूं। इन घर में छुपे गद्दारों से मैंने गालों की दीवालों और जीभ पर इतने घाव खाए है कि क्या बताऊं। ये घाव कहते हैं कि मैं कुछ बोलूं। मैं हूं कि अक्ल की दाढ़ का इंतजार कर रहा हूं वह निकले तो मैं नकली दांत लगवाऊं। वे अगर चोट करेंगे तो उन्हें तुरंत बाहर निकालकर दुरुस्त कर लूंगा। दांतों से मैंने यह सीखा है कि ये खाने के दूसरे ही होते है। दूसरों के दांत तो दूसरों का खाकर खुश हैं। मेरे दांतों के पास दूसरों का नहीं पहुंच पाता तो वे मुझ पर ही आक्रमण करते हैं। दातों से मैंने यह भी सीखा है कि दुश्मन बाहर नहीं अंदर ही होते हैं। आप चाहें तो मुंह फाड़कर मैं दांतों के हमलों से विदीर्ण अपनी जीभ और गाल दिखा सकता हूं। दिखाऊं ? हां जी ,हां जी , फिर कभी , जब आप चाहें।
29.06.11

Comments

Anonymous said…
मुंह बना कर मुस्कुराए...
मैं आपका ‘मुंह इस उम्मीद में देख रहा हूं’ कि आप ‘मुंह बनाते है’ या मुस्कुराते हैं।


यह अश्लील कर्म मैं कर ही नहीं सकता। दाढ़ी व्याकरण के हिसाब से स्त्रीलिंग है और मैं स्त्रियों का बहुत सम्मान करता हूं। दाढ़ियों ! बाबाओं के पास जाओ। उन्हें दाढ़ियां रखने और उन पर हाथ फिराते बैठे रहने का अच्छा अभ्यास है। इस कर्म में उन्हें आनंद भी आता है और उन्हें ही लगता है कि इसमें उनकी गरिमा है। शायद उन्हें पता नहीं है कि दाढ़ियां खींचकर आनंद लेने वालों की कमी नहीं है। वे अपनी पराई दाढ़ियों का लिहाज नहीं करते हैं। बस खींच लेते हैं।

मैं बताना चाहता था कि मेरे मुंह पर एक सर्वोत्तम नाक भी है। इसमें दो छेद हैं जो अनुलोम और विलोम के काम आते हैं। विज्ञान का मुझे पता नहीं पर मेरा आत्मज्ञान कहता है कि एक छेद से आक्सीजन अंदर जाती है और दूसरे से कार्बन डाई आक्साइड बाहर आती है। आक्सीजन जलाने का काम करती है और कार्बन डाइ आक्साइड बुझाने का। जलाने वालों को अंदर किया जाता है और बुझानेवालो को बाहर का रास्ता दिखाया जाता है। यह बात मेरी कभी समझ में नहीं आयी। पर कुदरत का दस्तूर है ऐसा मानकर मैं कार्बन डाइ आक्साइड के पक्ष में ठण्डा पड़ा रहता हूं।


गुरुदेव! प्रणाम! बस अशेष प्रणाम!!
Shalini kaushik said…
बहुत अद्भुत अनुभव रहा है आपके आलेख को पढना .अच्छा लगा आपके ब्लॉग पर आना और आपके विचार जानना .आभार
मेरे मुंह में दो कान भी हैं जो प्रायः घर और स्कूलों में खींचने के काम आते रहे हैं। इन्हें खींचकर खुद को बड़ा करनेवाले कई बौनों को मैं अपने कान दान में देना चाहता हूं। जब जब किसी ने मेरे कान खींचे हैं , मेरे दिल में यही ख्वाहिस हुई है कि ये कान इसी को दे दूं। खींचते रहेगा मनचाहे ढंग से और बड़ा होता रहेगा। मैं कोई बूचा नहीं हूं ,मेरे दो कान हैं। एक स्कूल में दान कर दूंगा और एक घर में टांग दूंगा। ऐसा मैं प्रायः सोचता था पर कर नहीं पाया। जीवन में बहुत सी बाते हम सोचते हैं ,कर नहीं पाते। जैसे मेरे मुंह में दो कान हैं ,दोनो से एक साथ सुनना चाहिए। पर मैंने क्या किया ...एक से तो सुनने का काम लिया और दूसरे से सब कुछ बाहर निकाल दिया।
kafi majedaar post ,aanand aa gaya padhkar ,ek munh par itne bawaal khade ho rahe hai sochiye aur ke saath jeena kitna kathin hota ,ek hi kaiyo ke brabar hai ,ati sundar varnan ,tippani ke liye aabhari hoon padhkar hansi bhi aa gayi .
Asha Joglekar said…
मेरे पास एक मुंह है। किसी किसी के पास दो होते हैं। किसी के पास तीन होते हैं। चार मुंह वाले भी सुने हैं। पांच मुंह वाले एक मृत्युंजय के बारे में भी सुना है। उन्हीं का एक पुत्र छः मुंह वाला है। बात बढ़ी है तो दस मुंह वाले तक पहुंची है। एक समय ऐसा भी आया कि अलग अलग मुंह लेकर प्रकट होनेवाले एकमुखी ने पिछले सारे पिद्दियों के रिकार्ड तोड़ते हुए सहस मुंह वाला एक रूप भी प्रत्यक्ष किया। यह सब मेरी क्षमता के बाहर की बात है। इसलिए मैं अपने एक ही मुंह से संतुष्ट हूं।

हम तो मुस्कुरा रहे हैं । आप के जबर दसेत लेख ने लेख ने क्या कस कस के लगाएं हैं एक एक को ।
रोचक आलेख....
क्या कहूँ ?आपकी पोस्ट मुझे हमेशा ही अलग रोचक सबसे हटके और अपने अंदर बहुत कुछ समेटे हुये लगती है.एक बार फिर लाजवाब प्रस्तुति
सबसे पहले बधाई के आज मुखौटों के इस दौर में आपके पास अपना एक अदद मुंह है...जिसपर आपको गर्व है...वर्ना मुंह छुपाये घूमने वालों की कमी थोड़ी है इस दुनिया में...आपने मुंह के माध्यम से अनूठे साहित्य की रचना कर डाली है जो कथ्य की दृष्टि से विलक्षण है...बीच बीच में ली गयी चुटकियाँ इसे गहराई प्रदान कर रही हैं...आपकी कलम का लोहा मान गए जनाब...बधाई स्वीकारें..

नीरज

Popular posts from this blog

तोता उड़ गया

और आखिर अपनी आदत के मुताबिक मेरे पड़ौसी का तोता उड़ गया। उसके उड़ जाने की उम्मीद बिल्कुल नहीं थी। वह दिन भर खुले हुए दरवाजों के भीतर एक चाौखट पर बैठा रहता था। दोनों तरफ खुले हुए दरवाजे के बाहर जाने की उसने कभी कोशिश नहीं की। एक बार हाथों से जरूर उड़ा था। पड़ौसी की लड़की के हाथों में उसके नाखून गड़ गए थे। वह घबराई तो घबराहट में तोते ने उड़ान भर ली। वह उड़ान अनभ्यस्त थी। थोडी दूर पर ही खत्म हो गई। तोता स्वेच्छा से पकड़ में आ गया। तोते या पक्षी की उड़ान या तो घबराने पर होती है या बहुत खुश होने पर। जानवरों के पास दौड़ पड़ने का हुनर होता है , पक्षियों के पास उड़ने का। पशुओं के पिल्ले या शावक खुशियों में कुलांचे भरते हैं। आनंद में जोर से चीखते हैं और भारी दुख पड़ने पर भी चीखते हैं। पक्षी भी कूकते हैं या उड़ते हैं। इस बार भी तोता किसी बात से घबराया होगा। पड़ौसी की पत्नी शासकीय प्रवास पर है। एक कारण यह भी हो सकता है। हो सकता है घर में सबसे ज्यादा वह उन्हें ही चाहता रहा हो। जैसा कि प्रायः होता है कि स्त्री ही घरेलू मामलों में चाहत और लगाव का प्रतीक होती है। दूसरा बड़ा जगजाहिर कारण यह है कि लाख पिजरों के सुख के ब

काग के भाग बड़े सजनी

पितृपक्ष में रसखान रोते हुए मिले। सजनी ने पूछा -‘क्यों रोते हो हे कवि!’ कवि ने कहा:‘ सजनी पितृ पक्ष लग गया है। एक बेसहारा चैनल ने पितृ पक्ष में कौवे की सराहना करते हुए एक पद की पंक्ति गलत सलत उठायी है कि कागा के भाग बड़े, कृश्न के हाथ से रोटी ले गया।’ सजनी ने हंसकर कहा-‘ यह तो तुम्हारी ही कविता का अंश है। जरा तोड़मरोड़कर प्रस्तुत किया है बस। तुम्हें खुश होना चाहिए । तुम तो रो रहे हो।’ कवि ने एक हिचकी लेकर कहा-‘ रोने की ही बात है ,हे सजनी! तोड़मोड़कर पेश करते तो उतनी बुरी बात नहीं है। कहते हैं यह कविता सूरदास ने लिखी है। एक कवि को अपनी कविता दूसरे के नाम से लगी देखकर रोना नहीं आएगा ? इन दिनों बाबरी-रामभूमि की संवेदनशीलता चल रही है। तो क्या जानबूझकर रसखान को खान मानकर वल्लभी सूरदास का नाम लगा दिया है। मनसे की तर्ज पर..?’ खिलखिलाकर हंस पड़ी सजनी-‘ भारतीय राजनीति की मार मध्यकाल तक चली गई कविराज ?’ फिर उसने अपने आंचल से कवि रसखान की आंखों से आंसू पोंछे और ढांढस बंधाने लगी। दृष्य में अंतरंगता को बढ़ते देख मैं एक शरीफ आदमी की तरह आगे बढ़ गया। मेरे साथ रसखान का कौवा भी कांव कांव करता चला आया।

सूप बोले तो बोले छलनी भी..

सूप बुहारे, तौले, झाड़े चलनी झर-झर बोले। साहूकारों में आये तो चोर बहुत मुंह खोले। एक कहावत है, 'लोक-उक्ति' है (लोकोक्ति) - 'सूप बोले तो बोले, चलनी बोले जिसमें सौ छेद।' ऊपर की पंक्तियां इसी लोकोक्ति का भावानुवाद है। ऊपर की कविता बहुत साफ है और चोर के दृष्टांत से उसे और स्पष्ट कर दिया गया है। कविता कहती है कि सूप बोलता है क्योंकि वह झाड़-बुहार करता है। करता है तो बोलता है। चलनी तो जबरदस्ती मुंह खोलती है। कुछ ग्रहण करती तो नहीं जो भी सुना-समझा उसे झर-झर झार दिया ... खाली मुंह चल रहा है..झर-झर, झरर-झरर. बेमतलब मुंह चलाने के कारण ही उसका नाम चलनी पड़ा होगा। कुछ उसे छलनी कहते है.. शायद उसके इस व्यर्थ पाखंड के कारण, छल के कारण। काम में ऊपरी तौर पर दोनों में समानता है। सूप (सं - शूर्प) का काम है अनाज रहने देना और कचरा बाहर निकाल फेंकना। कुछ भारी कंकड़ पत्थर हों तो निकास की तरफ उन्हें खिसका देना ताकि कुशल-ग्रहणी उसे अपनी अनुभवी हथेलियों से सकेलकर साफ़ कर दे। चलनी उर्फ छलनी का पाखंड यह है कि वह अपने छेद के आकारानुसार कंकड़ भी निकाल दे और अगर उस आकार का अनाज हो तो उसे भी नि