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अमर घर चल

कहानी
आज 'मदर्स डे' है ..यह कहानी शायद 'मां' के सम्मान में कुछ कहने का एक प्रयास हो !!!
अमर का बस्ता टूटी हुई बद्धियोंवाला झोला है। कहीं कहीं से फटा भी है। टूटी बद्धी उसने दूसरी साबुत बद्धी से बांध ली है। हाथ में उसे लेते ही वह स्कूल जाने के लिये तैयार हो जाता है।
स्कूल जाते समय उसे अपेक्षा रहती है कि एक ताजा रोटी और चाय मिल जाये। उसका मौन आरोप यह है कि सौतेली भाभी ने उसे काली चाय दी है और बासी रोटी दी है। सौतेली भाभी के बच्चों की चाय में दूध भी है और उनकी रोटी से भाप निकल रही है।
अमर जानता है कि विधवा मां दिन निकलने के पहले से मवेशियों की सेवा कर रही है। सौतेले बेटे के घर में अपने रहने लायक वातावरण बनाए रखने के लिए और अपने अमर को बासी रोटी के जुगाड़ के लिए उसे जानवरों को संभालना लाभ का सौदा लगता है। अमर ने देखा कि जिस समय उसके हाथ में बासी रोटी और काली चाय आई उस समय भी मां उपले थाप रही है।अमर की इच्छा में कई बार यह ख्याल हमारी मांग है कि तरह यह आया है कि मां सौतेली भाभी के स्थान पर रोटी बनाए ताकि भाप उड़ाती रोटियों और बासी रोटी के बीच कोई भेदभाव और ईष्र्या न रहे। मगर होता यह यह है कि हर इच्छा की तरह इस इच्छा की भी उपेक्षा हो जाती है।
हाथ आई बासी रोटी और उदासी को वह काली चाय के घूंट की तरह पीता है और उठकर आंगन में आकर दूर से ही मां को उपले थापते हुए देखता है। मां दसे नहीु देखती। मां उसकी उपेक्षा नहीं कर रही है बल्कि उसकी अपेक्षाओं से सामना नहीं कर रही है। मां उससे नहीं पूछती कि वह तैयार हो गया है और स्कूल जा रहा है। मां यह भी नही पूछती है उसने कुछ बासा-कूसा खा लिया या नहीं और दोपहर में खाने के लिए रोटी और अथानों रख लिया या नहीं। वह जानती है कि उसका हर सवाल बासी रोटी की तरह बासा और अथानों की तरह खट्टा है।
अपनी हर उपेक्षित अपेक्षाओं से उठती ऊब को वह उछाल देता है और टूटी हुई बद्धियों को हाथ में फंसाकर स्कूल की तरफ भाग लेता है।

फट्टी हुई फट्टी पर पालथी मारकर बैठे अमर ने देखा कि नंगे पांव चलते चलते उसकी एड़ियां फट गई हैं। मैल भर गया है उनमे। दुखती हैं। कभी कभी खून निकल आता है उनमें। वह एड़ियां दबाने लगा तो पढ़ने से चूका। तभी बेंत बरसी..सड़प..
अमर को ऐनक के पीछे से दो आंखें घूर रही थीं। वे आंखें ऐंठती एड़ी की पीड़ा से ज्यादा पीड़ाकारी थीं। पलटकर वह पढ़ने लगा....अ अनार का.. आ आम का...इ इमली का ...ई ईख का ...उ उल्लू का ..ऊ ऊंट का...... ए एड़ी का ...ऐ ऐनक का......ऐनक पर पहुंचते ही ऐनक के पीछे से शिक्षक की घूरती आंखें सनसनाने लगीं.....वह फिर पलटकर अ अनार में आ गया।
अनार उसने नहीं देखे। अनारी का उल्टा अनार होता होगा। उसने ‘नार’ भी सुना है। न होना ‘नार’ का भी अनार हो सकता है। सुना है एक अनार सौ को बीमार कर सकता है.....कोई विषैला फल होता होगा...ऊंह..उसे क्या ..वह आ आम पर पहुंचा...आम उसने खूब देखे और खूब खाए हैं...उसके मुंह में रस घुल गया..उसे गुटककर वह इ इमली पर आया...खट्टी मीठी गदराई पकी इमलियों के गुच्छे उसकी आंखों में झूलने लगे। स्कूल के दक्षिण में एक लाल मुरम की रोड चांद की तरफ़ जाती है..सुना है चांद नाम का गांव कोई बीस मील पर है..उस रोड के दोनों किनारे दूर तक इमली के झाड़ों से भरे हुए हैं....पेशाब-पानी की छुट्टी में ढेर सारे लड़के उन्हीं पेड़ों पर पत्थर मार मारकर इमली टपकाया करते हैं....नत्थू बनिया की दूकान से नमक की डलियां पार करके मजे से इमलियां खाते हैं...इमलियों की याद आते ही अमर की लार टपकी। जैसे तैसे उसे सुड़ककर वह ई ईख पर पहुंचा. ईख यानी गन्ना... जब गुड़ बनता है तो मां ईख काटने जाती है..कभी कभी वह भी जाता है और गन्ने बटोरकर घाने के पास ढेर करता है..घानेवाला उसे चूसने के लिए गन्ना दे देता है और घाने तथा उबलते कढाव से से दूर रहने की हिदायत भी देता है। उन हिदायतों को बिछाकर वह पेड़ के नीचे बैठ जाता है और ईख चूसता है।
बेंत फिर बरसी ..‘‘उल्लू के पट्ठे...ध्यान कहां है तेरा ?’’
होश आते ही अमर पीठ सहलाकर पढ़ने लगा-उ उल्लू का। ऊ ऊंट का......
बहुत देर से पालथी मारने से घुटने उसके दुखने लगे थे। ऊंट पर पहुंचकर उसने पैर को सीधा करना चाहा तो शिक्षक , ऐनक , आंख और बेंत उसके मस्तिष्क में चमक उठीं....‘‘ ऊंट पर टांग धरकर बैठेगा बे! उल्लू के पट्ठे...ढंग से बैठ।’’ एक बार उसकी इसी कोशिश पर शिक्षक ने फटकार लगाई थी। वह सहमकर अपने घुटने सहलाने लगा और आगे बढ़ा.....ओ ओढ़नी का.... ओढ़नी!!!....ओढ़नी पर पहुंचा तो जीभ दिखाकर और फिर ओढ़नी में मुंह छुपाकर भाग जानेवाली पड़ोस की लड़की उसकी आंखों में लहराने लगी। उससे जल्दी नजरें हटाकर वह एकदम औ औरत पर आ गया। औरत उसकी विधवा मां है। औरत सौतेली भाभी भी है। वह दोनों को याद करता है तो कांप जाता है। वह घबराकर घर की याद और औ औरत के पाठ को ऐसे उछाल देता है जैसे मटर छीलते वक्त मां उसमें से निकल आई इल्लियों को दूर उछाल देती है...अमर को इल्लियों से नफ़रत है। वह फिर अ अनार पर आ जाता है। हुंह..विषैला फल..सौ को बीमार करनेवाला..अच्छा हुआ उसने अनार नहीं देखे...

अक्षर अक्षर लिखना पढ़ना सीखने के बाद अमर ने पहला पाठ पढ़ा-अमर घर चल। मात्राविहीन अक्षरों का पहला गठजोड़........अ म र - घ र - च ल ।
इस पाठ को पढ़ते पढ़ते अमर रुआंसा होने लगा। आवाज़ उसके दिल के साथ साथ कांपने लगी। गला पैरों की लय में थरथराने लगा। किताबों के पन्ने पर लिखे अक्षर आपस में गुत्थम गुत्था हो गए....अमर घर चल....घर चल अमर....चल घर अमर....पूरी कक्षा में पूरे ज़ोर और शोर के साथ यही पंक्तियां गूंजने लगीं। अमर की आवाज़ ही गले में फंस गई थी। उसकी आंखों में उसका.....!..? ..नहीं ,नहीं .....उसके सौतेले भाई और उसकी सौतेली भाभी का घर घूमने लगा....
दिन भर घर की साफ़ सफ़ाई करती उसकी अपनी मां ..कभी मवेशियों के कोठे में उपले थाप रही है..कभी खेत के कुएं से पानी ला रही है..कभी घास ढो रही है..कभी लीप रही है..कभी पोत रही है..इसके बावजूद भी वह उसकी मां का घर नहीं है...और कभी कभी तो लगता है वह उसकी मां भी नहीं है...बस जब रात में कथरी में उसे पास सुलाकर उसके बालों में हाथ फिराती हुई सुबकती है और उसका माथा चूमती है..तब कहीं जाकर वह मां उसकी मां लगती है...कुलमिलाकर मां केवल रात की कालिख को आंसुओं से धोती हुई मां है..दिन में तो.......
नहीं..... अमर घर नहीं जा सकता...।
इस निश्चय तक पहुंचते पहुंचते आंसूं की बूंदे उसके गालों में फिसल आई। धीरे धीरे वे खाक में मिलकर धूसर हुई उसकी खाकी कमीज़ में आ गईं। कुछ बूंदें उसके खाकी पेन्ट में समा गईं। कुछ बूंदें फटी हुई खाकी फट्टी से झांकती धूल में मिल गयीं।
गहरी सांस लेकर उसने हाथों से छूटती किताब को संभाला ही था कि शिक्षक ने कड़ककर कहा-‘‘अमर पढ़।’’
चैंककर अमर पढ़ने लगा-अमर घर चल।

मध्याह्न भोजन की घंटी बज गई। सब लड़के अपनी अपनी गिलास और थाली लेकर भोजन कक्ष के सामने खड़े हो गए। अमर के पास भी थाली थी। वह उसे पेट से लगाकर भागा। पकानेवाली बाई दो पतीले दरवाजे पर रखकर बैठ गई थी। एक से वह भात निकालकर थाली में डालती थी और दूसरे से दाल उड़ेल देती थी।
अपनी अपनी थाली मे दाल-भात लेकर बच्चे मैदान में फैल गए......पेड़ के नीचे...दीवार की छांव में...फिसलपट्टी के नीचे...जिसकी जहां जगह बन गई थी वहां बैठ गए। कौन कल कहां बैठा था ,सब जानते थे। थाली में दाल भात आते ही जगह के झगड़े फीके और अलौने पड़ गए थे।
अमरूद के पेड़ के नीचे अमर की जगह थी। वहीं थाली रखकर वह बैठ गया। बासी रोटी से उकताया हुआ पेट भाप उड़ाते भात और दाल के लिए उतावला हो रहा था। उसने जल्दी भात दाल मिलाकर निवाला बना लिया। अभी पहला निवाला उठाया ही था कि दाल के पानी में तैरती हुई सफेद इल्ली पर अमर की नज़र पड़ी। निवाले के लिए खुला उसका मुंह खुला रह गया और हाथ मुंह के पास आकर ठहर गया...फटी हुई आंखें इल्ली पर जम गईं। फिर उसकी नज़र ने भात को टटोला। भात में सफेद इल्लियां बहुत ध्यान से देखने पर दिखाई देती थीं। दाल के पीले पानी में वे अलग दिख जाती थीं।
अमर के हाथ का निवाला थरथराकर फिसल गया। उसने घबराकर आसपास देखा। सारे बच्चे सड़सड़ दाल भात सुड़प रहे थे। अमर के खाली पेट में उमेठ सी हुई ..थाली लेकर वह पानी टंकी की तरफ भागा। उबकाई और थाली उसके हाथ से एक साथ छूटीं। खाली पेट से केवल पानी निकला।
चारों तरफ की हलचलें जैसे थम गयी। बाई आयी। शिक्षक आए।
‘‘ क्या हुआ ? तबीयत खराब है तेरी ?’’ शिक्षक ने घुड़ककर कहा। अमर की आंखें झपकीं..सर भन्नाया। वह कुछ बोल नहीं पाया।
‘‘ इसको पानी पिलाओ।’’ शिक्षक ने कहा तो बाई ने टंकी के नल से निकालकर पानी के दो घूंट पिला दिए। बाई ने पूछा-‘‘ ठीक लगा ?’’
‘‘ चलो बस्ता उठाओ और घर जाओ।’’ शिक्षक ने उसे छुट्टी देकर जैसे खुद मुक्ति पायी हो।

स्कूल के दरवाजे़ पर खड़ा अमर सोचने लगा कि अब वह कहां जाए ? शिक्षक ने कह दिया कि घर जाओ। अमर घर नहीं जाना चाहता। घर में उपले, बासी रोटी ,काली चाय.....कुड़कुड़ाती चीखती झींकती सौतेली भाभी...कुढ़ती बड़बड़ाती मां....स्कूल की तरफ़ देखता है तो दिखाइ्र देती हैं.....दाल में तैरती इल्लियां....वह गहरी सांस लेकर मुंह में हाथ फेरता है और चल पड़ता है...शाम होने तक घर लौटने के पहले उसे कहीं तो जाना पड़ेगा।

रेलवे लाइन के किनारे किनारे चलते हुए अमर वहां पहुंच गया है जहां खेत की मेड़ में एक घना बेर का पेड़ है। वह दौड़कर बेर के पेड़ के नीचे पहुंच जाता है। पूरे पेड़ में हरी ,पीली और लाल बेरों के गुच्छे झूल रहे हैं। वह टूटी हुई डाल फेंक फेंककर बेर गिराने लगता है।
अमर जानता है कि पत्थर मारने से चार छः बेर गिरती हैं जबकि डाल फेंकने से पचीस पचास बेर एक साथ गिर जाती हैं। मार के इस विस्तार को वह अच्छी तरह समझता है। इस प्रणाली से गिराई हुई पीली गदराई और पकी लाल बेर बीनकर वह कमीज की झोली में इकहट्ठा कर लेता है। फिर पेड़ के तने से पीठ टिकाकर वह एक एक बेर बड़े चाव से खाने लगता है। पेट की ऐंठन धीरे धीरे खत्म होती है। मुंह स्वाद से गीला हो जाता है। आज मां को भी वह मीठी गदरायी बेर खिलाएगा। मां कितनी खुश हो जाएगी।
वह पेड़ की तरफ देखता है। एक बड़े से गुच्छे में लटकी लाल पीली बेर ऐसे मुस्कुराती हैं जैसे वे मां की हंसती हुई आंखें हों। वह हंसने लगता है। उत्साह में डाल उठाकर वह फिर पेड़ की तरफ़ फेंकता है। ढेर सारी बेर जमीन पर गिरकर खिलखिलाने लगती हैं। वह दौड़ दौड़कर उन्हें उठाने लगता है। तभी एक आवाज़ आकर उससे लिपट जाती है-‘‘ ओरे अमर....कहां रे ? इस्कूल नइ गया का ?’’
यह ढोर चरानेवाले लखन की आवाज़ है..अमर की उमर का लखन उसका सबसे अच्छा दोस्त है। अमर के पलटते पलटते वह उसके पास आ जाता है। कुछ डालें और फेंकी जाती हैं। ढेर लग गया बेरों का। अमर का बस्ता और लखन का गमछा भर गया।
बेर खाते खाते अचानक लखन कहता है -‘‘होला खाएगा..?’’ अमर के नथुने में भुने हुए चने की गंध जैसे भर जाती है। वह आसपास देखता है। खेत में गेहूं और चने लहलहा रहे हैं। अमर हंसने लगता है। लखन भी हंसता है। फिर लखन उठकर अमर से कहता है-‘‘तू घास और तेवड़इया के झंखाड़ उखाड़ ला ,तब तक मैं चने और गेहूं उखाड़ लाता हूं।
‘‘और माचिस ?’’ अमर पूछता है।
‘‘ है मेरे पास..’’लखन कहता है और आंख मारकर अमर से पूछता है -‘‘ बीड़ी पीएगा..?’’
‘‘हाट्’’ अमर उसे हड़काता है तो हंसता हुआ लखन खेत में घुस जाता है।

‘‘ओहो...कितना मीठा है होला!’’ अमर चने और गेहू के होले को चबाता हुआ कहता है-‘‘ लखन मैं कुछ होला मों के लिए ले जाउंगा...।’’
‘‘ ले जा ..किसके बाप का है..न तेरा , न मेरा..’’लखन कहता है तो दोनों बापमुए इस बात पर हंसते हंै।
‘‘लखन!’’ अमर कुछ देर बाद बोलता है-‘‘ ढोर चराने का पैसा मिलता है ?’’
‘‘ पता नहीं...मुझे तो रात को रोटी दाल मिल जाती है..बस।’’ लखन बोला।
‘‘ दाल भात में इल्लियां होती हैं ?’’ अमर सहमकर पूछता है।
‘‘ नहीं....पागलक....दाल भात में भी कहीं इल्लियां होती हैं?’’ लखन ने हंसकर उसके सर पर चपत जड़ दी।
अमर बताना चाहता था कि स्कूल में होती हैं , पर वह सिहरकर चुप रहा। थोड़ी देर की कसमकस के बाद अमर ने हसरत से पूछा-
‘‘ लखन ! कल से मैं तेरे साथ आऊं ?’’
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Comments

Anonymous said…
भावुक...बेहतर...
बधाई...
kshama said…
Aankhen nam kar gayee aapkee ye kahanee!
बहुत सुन्दर कहानी भावनाओं का उत्कर्शः दिखा इसमे।
kumar zahid said…
अमर जानता है कि पत्थर मारने से चार छः बेर गिरती हैं जबकि डाल फेंकने से पचीस पचास बेर एक साथ गिर जाती हैं। मार के इस विस्तार को वह अच्छी तरह समझता है। इस प्रणाली से गिराई हुई पीली गदराई और पकी लाल बेर बीनकर वह कमीज की झोली में इकहट्ठा कर लेता है।

वह पेड़ की तरफ देखता है। एक बड़े से गुच्छे में लटकी लाल पीली बेर ऐसे मुस्कुराती हैं जैसे वे मां की हंसती हुई आंखें हों। वह हंसने लगता है। उत्साह में डाल उठाकर वह फिर पेड़ की तरफ़ फेंकता है।

बेहतर आब्जर्वेषन और मानवीयकरण
आपका काफी समय बाद ब्लॉग पर आना हुआ. आपका एक बार फिर स्वागत, कुछ अच्छा पढ़ने को मिलेगा.

आँखे नम हो गयी सुंदर कथा पढकर. आपने ऐसा चित्र खींचा है है कि लगता है सब हमारे सामने घटित हो रहा हो. यही आपके लेखन कि खूबी है.

मातृदिवस की शुभकामनाएँ.
हृदय को द्रवित करने वाली..
dil ko pighladene wali kahani..

sunder!!!
Rachana said…
bahut hi sunder kahani hai .man bhar aaya
rachana

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