लोभ सृजन का मूल तत्व है। ‘एको अहं बहुस्यामि’ महावाक्य में एक से बहुत होने का लोभ छुपा हुआ है। लीपापोती करनेवाले औदात्त्य-लोभी इस ब्रह्म-सत्य को झुठला नहीं सकते।
लोभ में गहन आकर्षण का ‘सेब’ होता है जो न्यूटन जैसों के सामने ही पेड़ से टपकता है। ‘सत्य क्या है’ इस जिज्ञासा का लोभ उसे गुरुत्वाकर्षण की क्रेन्द्र-भूमि तक ले जाता है।
मेरी लार जिस सुन्दर वस्तु को देखकर टपकती है , उसे पाने के लिए मैं उतावला हो पड़ता हूं ,टूट पड़ता हूं। गिरता भी हूं और जिसे हम किस्मत कहते हैं उस ‘असफलता की राजकुमारी’ ने हमारी तरफ़ यदि ध्यान नहीं दिया तो पड़ा भी रह जाता हूं।
मानलें कि यह एक से दो होने का प्राथमिक-लोभ अगर फलीभूत हो गया तो दूसरा लोभ सताने लगता है , जिससे तीन होने का लोभ जागृत होता है। कभी-कभी दो और दो चार हो जाने के गणित से दो से चार हो जाते हैं। यही सृजन-धर्मिता है। इससे संगठन बनते हैं। अनुयायी 'बंधते' हैं और 'उन्माद की बंधुआगिरी' में लिप्त हो जाते हैं। संन्यासी लोग प्रतिक्रियावादी हैं जो प्रकृति की सृजन-शक्ति को अपनी उदासीनता से नष्ट कर रहें हैं, ऐसा कहना सत्य को एक तरफ से जानना है। दरअसल संन्यासी होकर ज्यादा विन्यास का सूत्रपात होता है। संन्यासी बड़ी असंख्य भीड़ का संगठनकर्ता होता है।। इन तमाम लोभों के पीछे सबसे 'शक्तिशाली लोभ' सक्रिय है जिसे 'मुद्रा-लोभ' कहते हैं। मुद्राएं हमारे तमाम लोभों की पालनहार हैं। विशाल घर, गाड़ी , व्यवसाय , विलास के सभी साधन , लोगों की भीड़, पार्टी, मौज़ और मज़े.....यानी 'रहिमन मुद्रा राखिए' क्योंकि 'बिन मुद्रा सब सून'।
इन दिनों हम विश्व के वाणिज्यिक वातावरण में 'मौद्रिक सांसें' ले रहे हैं। वैश्विक बाज़ार में ललचाने वाली चीजें रोज़ रूप बदलकर आ रहीं हैं। इन्हें हम अपने लिए चाहते हैं , अपने बच्चों के लिए चाहते हैं और अपने पड़ोसियों के लिए चाहते है। अपने और अपने बच्चों के गर्व के लिए चाही गई हर चीज़ पड़ोसी को जलाने के लिए होती है। यह मैंने टीवी विज्ञापन से जाना। टीवी में एक अप्राकृतिक आदमी लम्बे कान और पूंछ से हमें भयभीत करता हुआ उस वस्तु के दर्शन कराता है जिसे अपनाकर हम पड़ोसी को जला सकें। जलन की चूंकि पोल खुल गई इसलिए छुपछुपकर जलने का मज़ा लेने वालों ने उस टीवी को नकार दिया।
नकारने की जहां तक बात है तो मनुष्य हर उस चीज़ को धीरे धीरे नकार देता है ,जिसे प्रारंभ में वह बहुत प्यार करता है। नकारना भी नये सृजन का मूल तत्व है। यह दूसरा तत्व है।
लोभ का बाई प्रडक्ट है ताव। किसी के मौलिक सृजन से जल जानेवाला कहता है ‘अच्छा यह बात है ,मैं अभी इससे ज्यादा महंगा लाकर दिखाता हूं।’ चूंकि यह मौलिक रूप से घटित नहीं होता , इसलिए यह बाई-प्रडक्ट है।
कुलमिलाकर लालच या लोभ मनुष्य को उकसाकर कुछ करवाने का मूल प्रेरक है। इसीलिए बड़ी बड़ी कम्पनियां लोभ और लालच के बड़े बड़े ज़ाल फेंकती हैं। मनुष्य को चूंकि अपने द्वारा निर्मित किसी वस्तु की सुन्दरता पर उतना भरोसा नहीं है इसलिए वह हर प्रडक्ट के साथ ‘नैसर्गिक-लोभ’ की ‘प्रेरक-शक्ति’ के रूप में निर्मित एक स्त्री की तस्वीर चिपका देता है।
मेरे पास एक ऐसा ही लिफ़ाफ़ा आया है।
हम लोग बहुत दिनों से एक अच्छी कार लेने के चक्कर में हैं। यह बात पता नहीं कैसे दुनिया भर को सैकड़ों सालों से छापकर सपने बेचने वाली कंपनी को पता चल गई। उसे यह भी पता चल गया कि हम मीडियम प्राइज़ की कार लेने का ही मन बना रहे हैं इसलिए उसने साथ में लाखों रुपये नकद और गिफ्ट के रूप में देने का भी लालच लिफाफे में बंद कर भिजवाया है।
मैंने लिफाफा खोलकर देखा तो क्या देखता हूं कि एक रंगीन कागज पर तीन कारों के चित्र हैं। अलग अलग ब्रांड की इन कारों में सबसे सस्ती कार लोकप्रिय स्विफ्ट है जिसकी कीमत चार लाख है। सिटी है जिसकी कीमत आठ नौ लाख है। एक अफोर्डेबल एकर्ड है जो अछारह लाख की है। प्रत्येक कार का एक कोड है। उस कोड की एक 'की ' है जो संलग्न है। मुझे लिफाफे में जो 'की' मिली है, उसका कोड अठारह लाख की सबसे मंहगी कार से मिल गया है।
एक स्क्रेच कार्ड है जिसमें जितने सितारे निकलेंगे उतने गिफ्ट के हमदार हम हो जाएंगे। हमने स्क्रेच किया और अधिकतम तीन स्टार हमारे हाथ लग गए। यानी तीन गिफ्ट हमारे। मुझे तो उछल पड़ना था। परन्तु मैं खूसट आदमी प्रलोभनो से सावधान होता हूं , उछलता नहीं। जगत-भाषा में इस प्रवृत्ति को ‘बोरिंग’ कहते है।
मेरे पास अब बत्तीस लाख के मुख्य ईनाम के साथ सुपर बोनस तीन लाख कैश का प्रस्ताव है। इस प्रस्ताव के नकाब में लोभ हंस रहा है। उसे ऐसा लग रहा है कि मूर्ख आदमी फंस रहा है।
मुझे सलाह मिलती है कि भेज तो दो। किस्मत का क्या भरोसा ,बुढ़ौती में खुल ही जाए। मैं आपस में नहीं उलझना चाहता इसलिए भेज देता हूं। मगर मेरे अंदर एक उजड्ड आदमी रहता है जो प्रलोभनों के ज़ाल में फंसने से कतराता है। वह ऐंठ रहा है कि जरूर दाल में काला है। मैं जाकर पहले सभी कागजों की फोटो कापी करवाता हूं और बिना टिकट लगाए लिफ़ाफा़ पोस्ट कर देता हूं। लिफ़ाफ़ा ही ऐसा है, जिसमें टिकट लगाने की जरूरत नहीं है। मैं जानता हूं कि रेतनेवाले सिंदूर का खर्च स्वयं उठाते हैं और चाकू तेज़ कराने का पैसा बकरे से नहीं लेते।
मैंने जब ध्यान से पढ़ा तो लोभ की कलई खुल गई। सयाने लोग कहते हैं कि उतावलेपन में हमेशा नुकसान होता है।
नुकसान क्या होगा कि अब तीन गिफ्ट पैक के साथ एक वी पी पी आएगी जिसकी कीमत पांचेक सौ होगी जो एक रंगीन मासिक पत्रिका के वार्षिक मूल्य का साठ परसेन्ट है।
फिर होगा एक ड्रा। जिस कार की चाबी मेरे पास भेजी गई है , ऐसी लाखों चाबियां दुनिया भर में भेजी गई हैं। जिनके नाम की चिट निकलेंगी वह ईनाम पाएगा। बाकी लोग साल भर पत्रिका पढेंगे और रोयेंगे..हाय कार.. हाय पैंतीस लाख का नकद रुपया। मैं इस प्रलोभन को रचनेवालों की सृजनधमिता का कायल हो जाता हूं। अपने को समझाता हूं-
‘‘ मूर्ख ! तू जब विद्यार्थी था तब इसी पत्रिका का वार्षिक ग्राहक था न। चल समझ ले कि तेरा विद्यार्थी काल फिर शुरू हो गया।
वैसे पत्रिका बुरी नहीं है। मध्यमवर्गी परिवारों में इसका क्रेज है। बौद्धिक नहीं है पत्रिका तो क्या हुआ। बुद्धि को व्यापार की दुनिया में वैसे भी पसन्द नहीं किया जाता।
मूर्ख बनने में विद्वान बनने की अपेक्षा कम तनाव और जोखिम हैं। मूर्खों की दुनिया में गलाकाट प्रतियोगिता नहीं है। ग्यारह रुपयों का चंदा देकर मूर्ख बनना सबको फायदे का सौदा लगता है। होली आ रही है। ग्यारह रुपये से लेकर एक सौ एक रुपये अलग रखकर झूमकर आनेवाली चौकड़ी का इंतजार कीजिए या करिए।
मित्रों! वसंत पंचमी पास है। सरस्वती पुत्रों के माध्यम से लक्ष्मीपुत्रों को फल देनेवाले इस मादक उत्सव की आप सभी को बधाइयां।
3.2.11,गुरुवार
लोभ में गहन आकर्षण का ‘सेब’ होता है जो न्यूटन जैसों के सामने ही पेड़ से टपकता है। ‘सत्य क्या है’ इस जिज्ञासा का लोभ उसे गुरुत्वाकर्षण की क्रेन्द्र-भूमि तक ले जाता है।
मेरी लार जिस सुन्दर वस्तु को देखकर टपकती है , उसे पाने के लिए मैं उतावला हो पड़ता हूं ,टूट पड़ता हूं। गिरता भी हूं और जिसे हम किस्मत कहते हैं उस ‘असफलता की राजकुमारी’ ने हमारी तरफ़ यदि ध्यान नहीं दिया तो पड़ा भी रह जाता हूं।
मानलें कि यह एक से दो होने का प्राथमिक-लोभ अगर फलीभूत हो गया तो दूसरा लोभ सताने लगता है , जिससे तीन होने का लोभ जागृत होता है। कभी-कभी दो और दो चार हो जाने के गणित से दो से चार हो जाते हैं। यही सृजन-धर्मिता है। इससे संगठन बनते हैं। अनुयायी 'बंधते' हैं और 'उन्माद की बंधुआगिरी' में लिप्त हो जाते हैं। संन्यासी लोग प्रतिक्रियावादी हैं जो प्रकृति की सृजन-शक्ति को अपनी उदासीनता से नष्ट कर रहें हैं, ऐसा कहना सत्य को एक तरफ से जानना है। दरअसल संन्यासी होकर ज्यादा विन्यास का सूत्रपात होता है। संन्यासी बड़ी असंख्य भीड़ का संगठनकर्ता होता है।। इन तमाम लोभों के पीछे सबसे 'शक्तिशाली लोभ' सक्रिय है जिसे 'मुद्रा-लोभ' कहते हैं। मुद्राएं हमारे तमाम लोभों की पालनहार हैं। विशाल घर, गाड़ी , व्यवसाय , विलास के सभी साधन , लोगों की भीड़, पार्टी, मौज़ और मज़े.....यानी 'रहिमन मुद्रा राखिए' क्योंकि 'बिन मुद्रा सब सून'।
इन दिनों हम विश्व के वाणिज्यिक वातावरण में 'मौद्रिक सांसें' ले रहे हैं। वैश्विक बाज़ार में ललचाने वाली चीजें रोज़ रूप बदलकर आ रहीं हैं। इन्हें हम अपने लिए चाहते हैं , अपने बच्चों के लिए चाहते हैं और अपने पड़ोसियों के लिए चाहते है। अपने और अपने बच्चों के गर्व के लिए चाही गई हर चीज़ पड़ोसी को जलाने के लिए होती है। यह मैंने टीवी विज्ञापन से जाना। टीवी में एक अप्राकृतिक आदमी लम्बे कान और पूंछ से हमें भयभीत करता हुआ उस वस्तु के दर्शन कराता है जिसे अपनाकर हम पड़ोसी को जला सकें। जलन की चूंकि पोल खुल गई इसलिए छुपछुपकर जलने का मज़ा लेने वालों ने उस टीवी को नकार दिया।
नकारने की जहां तक बात है तो मनुष्य हर उस चीज़ को धीरे धीरे नकार देता है ,जिसे प्रारंभ में वह बहुत प्यार करता है। नकारना भी नये सृजन का मूल तत्व है। यह दूसरा तत्व है।
लोभ का बाई प्रडक्ट है ताव। किसी के मौलिक सृजन से जल जानेवाला कहता है ‘अच्छा यह बात है ,मैं अभी इससे ज्यादा महंगा लाकर दिखाता हूं।’ चूंकि यह मौलिक रूप से घटित नहीं होता , इसलिए यह बाई-प्रडक्ट है।
कुलमिलाकर लालच या लोभ मनुष्य को उकसाकर कुछ करवाने का मूल प्रेरक है। इसीलिए बड़ी बड़ी कम्पनियां लोभ और लालच के बड़े बड़े ज़ाल फेंकती हैं। मनुष्य को चूंकि अपने द्वारा निर्मित किसी वस्तु की सुन्दरता पर उतना भरोसा नहीं है इसलिए वह हर प्रडक्ट के साथ ‘नैसर्गिक-लोभ’ की ‘प्रेरक-शक्ति’ के रूप में निर्मित एक स्त्री की तस्वीर चिपका देता है।
मेरे पास एक ऐसा ही लिफ़ाफ़ा आया है।
हम लोग बहुत दिनों से एक अच्छी कार लेने के चक्कर में हैं। यह बात पता नहीं कैसे दुनिया भर को सैकड़ों सालों से छापकर सपने बेचने वाली कंपनी को पता चल गई। उसे यह भी पता चल गया कि हम मीडियम प्राइज़ की कार लेने का ही मन बना रहे हैं इसलिए उसने साथ में लाखों रुपये नकद और गिफ्ट के रूप में देने का भी लालच लिफाफे में बंद कर भिजवाया है।
मैंने लिफाफा खोलकर देखा तो क्या देखता हूं कि एक रंगीन कागज पर तीन कारों के चित्र हैं। अलग अलग ब्रांड की इन कारों में सबसे सस्ती कार लोकप्रिय स्विफ्ट है जिसकी कीमत चार लाख है। सिटी है जिसकी कीमत आठ नौ लाख है। एक अफोर्डेबल एकर्ड है जो अछारह लाख की है। प्रत्येक कार का एक कोड है। उस कोड की एक 'की ' है जो संलग्न है। मुझे लिफाफे में जो 'की' मिली है, उसका कोड अठारह लाख की सबसे मंहगी कार से मिल गया है।
एक स्क्रेच कार्ड है जिसमें जितने सितारे निकलेंगे उतने गिफ्ट के हमदार हम हो जाएंगे। हमने स्क्रेच किया और अधिकतम तीन स्टार हमारे हाथ लग गए। यानी तीन गिफ्ट हमारे। मुझे तो उछल पड़ना था। परन्तु मैं खूसट आदमी प्रलोभनो से सावधान होता हूं , उछलता नहीं। जगत-भाषा में इस प्रवृत्ति को ‘बोरिंग’ कहते है।
मेरे पास अब बत्तीस लाख के मुख्य ईनाम के साथ सुपर बोनस तीन लाख कैश का प्रस्ताव है। इस प्रस्ताव के नकाब में लोभ हंस रहा है। उसे ऐसा लग रहा है कि मूर्ख आदमी फंस रहा है।
मुझे सलाह मिलती है कि भेज तो दो। किस्मत का क्या भरोसा ,बुढ़ौती में खुल ही जाए। मैं आपस में नहीं उलझना चाहता इसलिए भेज देता हूं। मगर मेरे अंदर एक उजड्ड आदमी रहता है जो प्रलोभनों के ज़ाल में फंसने से कतराता है। वह ऐंठ रहा है कि जरूर दाल में काला है। मैं जाकर पहले सभी कागजों की फोटो कापी करवाता हूं और बिना टिकट लगाए लिफ़ाफा़ पोस्ट कर देता हूं। लिफ़ाफ़ा ही ऐसा है, जिसमें टिकट लगाने की जरूरत नहीं है। मैं जानता हूं कि रेतनेवाले सिंदूर का खर्च स्वयं उठाते हैं और चाकू तेज़ कराने का पैसा बकरे से नहीं लेते।
मैंने जब ध्यान से पढ़ा तो लोभ की कलई खुल गई। सयाने लोग कहते हैं कि उतावलेपन में हमेशा नुकसान होता है।
नुकसान क्या होगा कि अब तीन गिफ्ट पैक के साथ एक वी पी पी आएगी जिसकी कीमत पांचेक सौ होगी जो एक रंगीन मासिक पत्रिका के वार्षिक मूल्य का साठ परसेन्ट है।
फिर होगा एक ड्रा। जिस कार की चाबी मेरे पास भेजी गई है , ऐसी लाखों चाबियां दुनिया भर में भेजी गई हैं। जिनके नाम की चिट निकलेंगी वह ईनाम पाएगा। बाकी लोग साल भर पत्रिका पढेंगे और रोयेंगे..हाय कार.. हाय पैंतीस लाख का नकद रुपया। मैं इस प्रलोभन को रचनेवालों की सृजनधमिता का कायल हो जाता हूं। अपने को समझाता हूं-
‘‘ मूर्ख ! तू जब विद्यार्थी था तब इसी पत्रिका का वार्षिक ग्राहक था न। चल समझ ले कि तेरा विद्यार्थी काल फिर शुरू हो गया।
वैसे पत्रिका बुरी नहीं है। मध्यमवर्गी परिवारों में इसका क्रेज है। बौद्धिक नहीं है पत्रिका तो क्या हुआ। बुद्धि को व्यापार की दुनिया में वैसे भी पसन्द नहीं किया जाता।
मूर्ख बनने में विद्वान बनने की अपेक्षा कम तनाव और जोखिम हैं। मूर्खों की दुनिया में गलाकाट प्रतियोगिता नहीं है। ग्यारह रुपयों का चंदा देकर मूर्ख बनना सबको फायदे का सौदा लगता है। होली आ रही है। ग्यारह रुपये से लेकर एक सौ एक रुपये अलग रखकर झूमकर आनेवाली चौकड़ी का इंतजार कीजिए या करिए।
मित्रों! वसंत पंचमी पास है। सरस्वती पुत्रों के माध्यम से लक्ष्मीपुत्रों को फल देनेवाले इस मादक उत्सव की आप सभी को बधाइयां।
3.2.11,गुरुवार
Comments
आपकी पोस्ट के दोनों पक्ष सही हैं ..लेकिन इस बारे में हमें बहुत गहनता से चिंतन करना चाहिए ...शीर्षक बहुत कुछ कह गया ...आपका आभार
धारदार...असरदार...
मनोबल बढ़ाने का और इसकी धार पर उंगली चलाकर देखने का धन्यवाद। आप तो ऊर्जा स्रोत हैं।
भारतीय नागरिक महोदय!
पधारने का धन्यवाद।
कुछ चीजें पुरानी होकर 'भी' या कभी 'ही' अच्छी लगती हैं। बशर्ते चुकी हुई न हों,जैसा कि आपने इस रचना के लिए कहा।
बहुत बहुत धन्यवाद