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मार्बल सिटी का माडर्न हॉस्पीटल

उर्फ
मरना तो है ही एक दिन

इन दिनों चिकित्सा से बड़ा मुनाफे़ का उद्योग कोई दूसरा भी हो सकता है, इस समय मैं याद नहीं कर पा रहा हूं। नहीं जानता यह कहना ठीक नहीं। शिक्षा भी आज बहुत बड़ा व्यवसाय है। बिजली, जमीन, शराब, बिग-बाजार आदि भी बड़े व्यवसाय के रूप में स्थापित हैं।
शिक्षा और स्वास्थ्य आदमी की सबसे बड़ी कमजोरियां हैं, इसलिए इनका दोहन भी उतना ही ताकतवर है। हमें जिन्दगी में यह सीखने मिलता है कि बलशाली को दबाने में हम शक्ति या बल का प्रयोग करना निरर्थक समझते हैं, इसलिए नहीं लगाते। दुर्बल को सताने में मज़ा आता है और आत्मबल प्राप्त होता है, इसलिए आत्मतुष्टि के लिए हम पूरी ताकत लगाकर पूरा आनंद प्राप्त करते हैं।
मां बाप बच्चों के भविष्य के लिए सबसे मंहगे शैक्षणिक व्यावसायिक केन्द्र में जाते हैं। इसी प्रकार बीमार व्यक्ति को लेकर शुभचिन्तक महंगे चिकित्सालय में जाते हैं ताकि जीवन के मामले में कोई रिस्क न रहे। इसके लिए वे कोई भी कीमत चुकाना चाहते हैं और उनकी इसी कमजोरी को विनम्रता पूर्वक स्वीकार करके चिकित्सा व्यवसायी बड़ी से बड़ी कीमत लेकर उनके लिए चिकित्सा को संतोषजनक बना देते हैं।
माडर्न सिटी हास्पीटल में सारी सुविधाएं हैं। सभी प्रकार की बीमारियों के लिए स्पेशलिस्ट सामने की दीवार पर एनलिस्टेड हैं। उनके कक्ष क्रमांक है। उनके ‘स्पेशल रिसेप्सनिस्ट’ है जो चिकित्सा को इतनी गंभीरता से लेते हैं कि सीधे मुंह बात नहीं करते। अच्छी सूरत देखकर उसका रजिस्ट्रेशन खुद करते हैं वर्ना दूसरे रिसेप्सनिस्ट के पास भेज देते हैं। बीमार आदमी और उसके शुभचिन्तक ऐसे मजबूर ग्राहक हैं, जो आए है तो कहां जएंगे? यहां स्वाभिमान की रक्षा और अच्छे व्यवहार की उम्मीद अठारवीं सदी की मूर्खता है। इस माडर्न हास्पीटल में मेरी सूरत रिसेप्सनिस्ट लड़के को पसंद नहीं आई तो उसने मुझे दूसरे रिसेप्सनिस्ट के पास भेज दिया। वह लड़की थी। उसे भी मेरी सूरत पसंद नहीं आई। उसने फिर उसी लड़के के पास जाने के लिए कहा। मैंने कहा: ‘‘उन्होंने ने ही आपके पास भेजा है।’’ लड़की ने लड़के को प्यार से घूरकर देखा और मुझसे बोली:‘‘ स्लिप किसके नाम से बननी है?’’ ऐसा कहकर उसने फिर लड़के को देखा जो अब मुस्कुरा रहा था। मैं समझ गया मामला क्या था । लड़की अपने पास आनेवाली खडूस औरतों को लड़के की तरफ सरका दिया करती होगी और लड़का अपने पास आए खड़ूस लोगों को लड़की की तरफ। सुन्दर चीजों को वे खुद ही निपटाया करते होंगे और इस प्रकार एक दूसरे के साथ बीमारी से भरे माहौल में भी वे दिल बहलाने का मनोरंजक खेल खेल रहे हैं। परेशान मरीजों के सहयोगी उनके लिए प्राथमिक नहीं हैं।
खैर मैं स्लिप बनवाकर अपनी पत्नी को लेकर डाक्टर से मिलने गया तो पता चला कि वे उस केबिन में नहीं हैं, जहां उनका नाम चिपका है। वे ओटी में हैं। ओटी ऊपरी मंजिल में है। वहां जाने के लिए लिफ्ट है। हम लोग लिफ़्ट की तरफ़ बढ़े। लिफ़्ट में पहले से इतने लोग थे कि हम मुष्किल से आए, मगर आ गए। लिफ्ट में हमने जो नम्बर दबाया था वह वहां नहीं रुकी। आखिरी मंजिल में पत्नी और बेटी उतरे ही थे कि लिफ्ट का दरवाजा बंद हो गया और लिफ्ट नीचे की तरफ चल पड़ी। मैं ग्राउंड फ्लोर पर था। मैं परेशान हो गया जिसे देखकर बाकी लोगों के चेहरे पर हंसी आ गई। मुझे अच्छा लगा। दूसरों को हंसता देखकर मुझे अच्छा लगता है। मैंने मुस्कुराकर पत्नी को फोन लगाने की कोशिश की जो नहीं लगा। मैं फिर लिफ्ट की तरफ बढ़ा तो किसी ने कहां:‘ आप को कहां जाना है ? ’ मैंने कहा:‘फस्र्ट फ्लोर।’ उसने कहा: तो सीढ़ियों से चले जाओ। हार्ट ट्रबल तो नहीं है। हो भी तो धीरे धीरे चले जाओ। इस लिफ्ट का की बोर्ड खराब है, एक में जाना हो तो तीन दबाना पड़ता है।’
मैं सीढ़ियों से ऊपर भागा। सीढ़ियां चढ़ने से कुण्ठा और अवसाद दूर होते हैं, ऐसा योग की किताबों में लिखा है और मैंने भी अनुभव किया है। सीढ़ियां चढ़कर जाने से मेरी कुण्ठा और अवसाद दूर हो गये।
जहां वे सीढ़ियां खत्म होती थीं, वहीं लिफ्ट का दरवाजा खुलता था। मेरे पहुंचते ही लिफ्ट का दरवाजा खुला तो उसके अंदर से मेरी पत्नी बेटी के साथ बाहर आईं। उन्हें देखकर मेरा अवसाद दूर हो गया और उनका भी। बहुत से लोगों की मानसिक परेशानी तो इस लिफ्ट से ही दूर हो जाती होंगी। पत्नी ने इसी आशय से भरी हुई टिप्पणी मुझसे की:‘‘ इस लिफ्ट का सेन्स आफ ह्यूमर तो गजब का है......एक दबाओ तो चार पर ले जाता है और तीन दबाओ तो पांच पर ’’
‘‘ लिफ्ट करा दे लिरिक इसी लिफ्ट पर तैयार हुआ होगा ’’लड़की ने कहा।
‘‘ इस लिफ्ट पर आकर जावेद अख़्तर को ‘लिफ्ट है तो लाफ्टर है’ का कांसेप्ट मिलेगा....मैनेजमेंट को उनको ब्रांड अंबेसेडर बनाना चाहिए.....’’ हम लोग इस पर हंसे कि कुछ हंसने लायक बात हमें इस बीमार माहौल में मिली। मुझे लगा हास्पीटल वालों ने जानबूझकर ऐसी व्यवस्था की है ताकि परेशान लोग हंस सकें।
‘‘अब कहां चलें ?’’ लिफ्ट के लाफ्टर चैलेन्ज में हम अपना मकसद भूल गए थे मगर फिर पटरी पर आकर सोचने लगे। हमें बताया गया था कि अपने कैबिन में प्राप्त न हो सकने वाली डॉक्टर ओटी में मिलेंगी। ओटी का नम्बर है चौदह। चौदह नम्बर का कमरा हमारी दाहिनी तरफ खड़ा खड़ा चुपचाप मुस्कुरा रहा था। वो तो अच्छा हुआ कि हमें पढ़ना आता है वर्ना पता ही नहीं चलता कि ओटी नंत्र चौदह कहां है। हरे कपड़े से मुंह बांधे हुए एक आत्मा से हमने पूछा तो उसने बताया कि डॉक्टर अंदर हैं।
डॉक्टर ने न मुंह बांधा था, न एप्रान। उसके गले में दो मुंहवाले सर्प की वह माला भी नहीं थी जिसे मेडीकल टर्म में स्टेथिस्कोप कहतें हैं। उसे डॉक्टर के ‘मैकप’ में न देखकर मैंने उसी से उसी के बारे में पूछा, ‘‘ डॉ. सुफला मेम से मिलता है।’’
‘‘मै ही हूं .... कहिए...’’उसने कहा। मैंने अब पत्नी को आगे करते हुए कहा: ‘‘यह कहेंगी।’’ ऐसा कहकर मैं बाहर निकल आया क्योंकि मामला दो औरतों के बीच का था ...गाइनीक था।
करीब आधा घंटे बाद पत्नी बाहर आकर बोली:‘‘सोनोग्राफी करानी है।’’
इस बार हमने लिफ्ट की तरफ देखा ही नहीं। सीढ़ियों से ही नीचे आए।
सोनोग्राफी के लिए फिर स्लिप बनवानी थी। फिर रिसेप्सनिस्ट ने यहां से वहां किया.....सोनोंग्राफी के लिए पुनः 1100 की स्लिप बनी । स्लिप लेकर हमने फिर कक्ष ढूंढा और ..उस पुर्जी को लेकर हम सोनोग्राफी के चैम्बर की तरफ चले। लिफ्ट से चूंकि हमारा मोहभंग हो चुका था, इसलिए सीढ़ियों से ही चले। आश्‍चर्यजनक ढंग से चेम्बर जल्दी ही मिल गया। फिर हमने अपनी बारी का इंतजार किया.
सोनोग्राफी के लिए बेसिक शर्त थी कि चाय नाश्‍ता के बाद ‘स्माल-नेचुरल-काल’ को एवाइड करना था। प्रेशर के लिए दो तीन लीटर पानी भी कम पड़ गया था। हम लोग समय काट रहे थे, जिसे अन्य शब्दों में सही समय की प्रतीक्षा कहते हैं।
हमें लग रहा था कि कितना बोरडम है स्वास्थ्य परीक्षण भी। लाख साफ सफाई के बावजूद गदी चीजों की दुर्गन्ध को सुगन्ध में नहीं बदला जा सका था। रोजी रोटी और पैसों के आकर्षण में मेडीकल जैसे निरन्तर मुद्रा प्रवाही पेशे में जुड़े तकनीशियन और वार्ड बाय और नर्स वगैरह रोबोट की तरह काम कर रहे थे। उनके इन्सान होने का पता तब चलता था था जब वे परेशान मरीज से उनके सहयोगियों को सहयोग पहुंचाने की बजाय आपस में गपियाने और उनकी उपेक्षा करने में दिलचस्पी दिखाते थे। वे तब भी इन्सान लगते थे जब चिड़कर बात करते थे। रोबोट को इतनी समझ कहां ?
हम देख रहे थे कि रेडियेशन रूम के दरवाजे खेले थे और एक्स-रे तकनीशियन महिलाओं के पैर और बाकी लोगों के शरीर का दरवाजा खेलकर एक्स-रे ले रहा था। लोग क्या चलचित्र का आनंद ले रहे थे? ऐसा मैंने सोचा क्योंकि मैं ऐसा ही सोचता हूं। जिन मामलों में समझदार लोग यूंह जाने दो कहकर दिमाग फिरा लेते हैं मैं नहीं सोचने दो कि जिद लेकर अपना दिमाग खराब करते रहता हूं। लोगों को मुझसे यही शिकायत है कि मैं बहुत सोचता हूं। मैं क्या करूं, मेन्युफेक्चरिंग डिफेक्ट है।
हमने देखा कि एक अस्सी के आसपास के दुबले पतले इन्सान को एक बार्ड बॉय व्हील चेयर में बैठाकर लाया। वह खेल रहा था। बाइस तेइस साल के उस बाय में गजब की फुर्ती थी। दो दरवाजों में कभी इस दरवाजे और कभी उस दरवाजे पर वह व्हील चेयर को चकरी की तरह घुमा देता था। बूढ़े में सिर्फॅ हडिडयां थीं और हर हालात से समझौता कर लेनेवाली मिंचमिंची आंखें थीं। सी टी स्कैन वाले रूम का दरवाजा खुला तो उसने बुड्ढे को अन्दर लुढ़का दिया। व्हील चेयर अपनी गति से अंदर दौड़ गई जिसे अंदर खड़े दूसरे वार्डबाॅय ने हंसकर लपक लिया। हास्पीटल की नीरस जिन्दगी में कितने मज़े से ये लोग रस घोल रहे हैं । मरीजों का क्या, अच्छे हो गए तो घर लौटेंगे वर्ना मरना तो है ही एक दिन। बेहतर है वार्डबाॅय का मनोरंजन करते हुए मरें।
कुछ देर बाद एक्स-रे तकनीशियन ने एकस-रे मशीन को कमरे के बाहर निकाला। मशीन मूवेबल थी और व्हील होने के कारण किसी भी दिशा में घूम सकती थी । उसने उसे रजनीकांत षैली से लुड़काया। एक्स-रे कक्ष के सामने काफभ् लम्बा गलियारा था और दोनों तरफ डॉक्टर और लैब रूम थे। करीब सौ डेढ सौ फीट का लम्बा गलियारा चिकनी टाइल्स का था। उसपर भारी, भरी पूरी करीब सात आठ फुट ऊंची मशीन को लुढकाने का मज़ा ही कुछ और था। जिसने देखा दंग रह गया। एक्स रे कक्ष से लिफ्ट की दूरी करीब साठ सत्तर फीट तो होगी। उस मौजी तकनीशियन ने उसे वहीं से पुश कर दिया तो मशीन तेजी से लिफ्ट की तरफ दौड़ पड़ी। वहाँ एक वार्ड बॉय खड़ा था उसने हंसते हुए कैच ले लिया। हमारी जान में जान में जान आई। अगर इस बीच कोई मरीज या उसका परिजन बीच में आ जाता तो? फिर मैं अपनी इस मूर्खतापूर्ण सोच पर शर्मिन्दा हो गया। मैंने अपने को समझाया: यह हॉस्पीटल है भैये, दुर्घटना से कैसा डर? अस्पतालवालों को दुर्घटना का अगर इलाज पता है तो दुर्घटना घटित करने का भी गुर आना चाहिए।
मेरी पत्नी इस खेल से उकता गई। वह गुस्से में उठी और बोली, ‘‘अगर होता है तो देखते हैं, नहीं तो चलते है। हम क्या यह तमाशा देखने आए हैं।’’
मैंने मनाया कि हो जाए वर्ना पत्नी अगर सही में वापस हो गई तो 1100 तो वापस होने से रहे। फिर चिकित्सा का क्या होगा। मैंने उसे समझाया, ‘अरे अपने साथ थोड़े ही कुछ हो रहा है..’ पत्नी ने मुझे घूर के देखा और पूछा: ‘‘तो ?’’
अब इस ‘तो’ का जवाब मेरे पास हो तो दूं। मेरे जवाब का पत्नी को इंतजार भी नहीं था। वह कक्ष के अंदर चली गई।
पत्नी को सोनोग्राफी कक्ष में समय लग रह था इसका मतलब काम हो रहा था। करीब आधेक घंटे में पत्नी लौटी और बोली: ‘दो घंटे बाद रिपोर्ट मिलेगी।’
बहुत समय था। हम लोग टाइम-पास करने के लिए केन्टीन में घुस गए, जो संयोग से काफी मनोरंजक थी। सिटी के टाप-मोस्ट हास्पीटल की आलीशान बिल्डिंग के आहाते में बनी वह ‘गाय के कोठेनुमा केन्टीन’ झोपड़पट्टी का अहसास दिलाती थी। भव्य कामर्शियल फिल्मों में सत्यजीत रे की आर्ट फिल्मों की तरह...। हमें टाइम ही तो काटना था। जितना काट सकते थे उतना समय हमने केन्टीन में काटा मगर वहां की मक्खी और मच्‍छर हमें बर्दाश्‍त नहीं कर पा रहे थे इसलिय उन्होंने युद्धस्तर पर हमें काटना शुरू किया तो हम मजबूरी में फिर सोनोग्राफी कक्ष की तरफ लौट आए। फिर प्रतीक्षा के बीच बीच में रिपोर्ट के लिए बार बार अंदर गए ।
कोई तीन चार घंटे बाद जब हमें रिपोर्ट मिली तो पता चला कि डॉक्टर घर या कहीं और जा चुकी हैं, अब कल आना होगा। हमने कहा:‘‘ हम बाहर से आए हैं, दूर से आए हैं।’’
जवाब बहुत दमदार मिला:‘‘ सभी दूर से आते हैं। चिकित्सा कराने आए हो कि सत्यनारायण का प्रसाद लेने ?...एक हफ्ते का समय लेकर आना चाहिए..’’
‘चाहिए’ के आगे तमाम लिफ्ट बंद हो जाती हैं। वहां सीढ़ियां भी नहीं होतीं। हम धड़ाम से धरती पर थे और अपना लटका हुआ मुंह लेकर अस्पताल की सीढियां उतरकर किराए के फ्लेट की तरफ़ लौट रहे थे।
हमारे साथ एक दो वर्ष का एक सीरियस बच्चा भी नीचे उतारा जा रहा था। मजे की बात है या आश्‍चर्य या दुर्भाग्य की यह कहना अब मुश्किल है मगर सच यह है कि सीढ़ियों से ही वह उतारा जा रहा था। उसकी युवा मां एक खिलौने की तरह साथ में चल रही थी। उसके आंसू सूख चुके थे। उसकी ममता और घबराहट पर अनहोनी की खामोशी थी। दो लोग आक्सीजन सिलिण्डर को किसी तरह संभाले हुए उतर रहे थे। हालांकि एमरजेन्सी के लिए लिफ्ट थी, ट्राली थी ... स्ट्रेचर थे......पर शायद इन चीजों पर से उन लोगों का भी विष्वास उठ चुका था।
हम लोग एक तरफ हट कर खड़े हो गए ताकि उन्हें बाधा न हो। वे हमारी आंखों के सामने से एक भयानक दृश्‍य की तरह जा रहे थे।
बड़ी करुणा से, दुख से, अफसोस से उन लोगों को देखकर हम फिर हताश हुए, कुंठित हुए अवसाद से भर गए। मगर ....‘चलना ही जिन्दगी है’ के भाव से हम फिर चल पड़े।


Note : 2
मैं अपने निवेदन को...‘‘ ताकि सनद रहे और वक्त जरूरत काम आए’’..इस विचार से नहीं हटा रहा हूं..कृपया इसे चाहें तो पढें और तकनीकी परेशानी को समझें ,जो सुधार दी गई है।..चाहे तो ना पढ़ें..'क्या फर्क पड़ता है' के भाव से..आपके विवेक पर छोड़ रहा हूं..
नोट:1 मित्रों फॉर्मेट कराने के बाद ऑपरेटर ने जो फॉन्ट कृतिदेव के डाले हैं उसमें श और ष की बड़ी समस्या उत्पन्न हो गई है। श तो आता है कितु लाख चाहने पर भी ष नहीं आता जबकि यूनी कोड कनवर्सन में यह हो जाता हे। दिक्कत यह है मूल पाठ में के 11 से लेकर ष डालने से वह कृति देव यूनीकोड में श और श ष हो जाता है । जहां हम परंपरा से ष और श पढ़ते रहे हैं कृपया वैसा पढ़कर मुूझे कृतार्थ करें। ऑ महादय फॉ बदलने जैसे ही फुर्सत मिलेगी आएंगे. महीने भर से प्रतीक्षा में हूं। ‘अभी आ रहा हूं’ के उनके आश्वासन को बड़े सब्र से बर्दास्त कर रहा हूं। धन्यवाद!!

Comments

....‘चलना ही जिन्दगी है’ के भाव से हम फिर चल पड़े।

बहुत ही दर्द भरी अभिव्यक्ति एक से बढ़ कर एक और बेमिसाल. यहाँ दिल्ली में भी यही हाल है या इससे भी बदतर. बाहर और भीतर के बीच जमीन आसमान का अंतर है हर सुविधा होते हुए भी न के बराबर रहती है
kumar zahid said…
इन दिनों चिकित्सा से बड़ा मुनाफे़ का उद्योग कोई दूसरा भी हो सकता है, इस समय मैं याद नहीं कर पा रहा हूं। नहीं जानता यह कहना ठीक नहीं। शिक्षा भी आज बहुत बड़ा व्यवसाय है। बिजली , जमीन , शराब , बिग-बाजार आदि भी बड़े व्यवसाय के रूप में स्थापित हैं।
षिक्षा और स्वास्थ्य आदमी की सबसे बड़ी कमजोरियां हैं ,इसलिए इनका दोहन भी उतना ही ताकतवर है। हमें जिन्दगी में यह सीखने मिलता है कि बलषाली को दबाने में हम षक्ति या बल का प्रयोग करना निरर्थक समझते हैं , इसलिए नहीं लगाते। दुर्बल को सताने में मज़ा आता है और आत्मबल प्राप्त होता है , इसलिए आत्मतुश्टि के लिए हम पूरी ताकत लगाकर पूरा आनंद प्राप्त करते हैं।

करीब सौ डेढ सौ फीट का लम्बा गलियारा चिकनी टाइल्स का था। उसपर भारी ,भरी पूरी करीब सात आठ फुट ऊंची मशीन को लुढकाने का मज़ा ही कुछ और था। जिसने देखा दंग रह गया। एक्स रे कक्ष से लिफ्ट की दूरी करीब साठ सत्तर फीट तो होगी। उस मौजी तकनीशियन ने उसे वहीं से पुश कर दिया तो मशीन तेजी से लिफ्ट की तरफ दौड़ पड़ी। वहां एक वार्ड बॉय खड़ा था । उसने हंसते हुए कैच ले लिया। हमारी जान में जान आई। अगर इस बीच कोई मरीज या उसका परिजन बीच में आ जाता तो ? फिर मैं अपनी इस मुर्खतापूर्ण सोच पर शर्मिन्दा हो गया। मैंने अपने को समझाया: यह हॉस्पीटल है भैये, दुर्घटना से कैसा डर ?

कितनी बारीकी से आप चीजों की तह परजाते हैं और विडम्बनाओं पर कितना तीखा प्रहार करते हैं ..वाह..!!! शायद यह कहना भी विडम्बना ही है।
kumar zahid said…
इन दिनों चिकित्सा से बड़ा मुनाफे़ का उद्योग कोई दूसरा भी हो सकता है, इस समय मैं याद नहीं कर पा रहा हूं। नहीं जानता यह कहना ठीक नहीं। शिक्षा भी आज बहुत बड़ा व्यवसाय है। बिजली , जमीन , शराब , बिग-बाजार आदि भी बड़े व्यवसाय के रूप में स्थापित हैं।
षिक्षा और स्वास्थ्य आदमी की सबसे बड़ी कमजोरियां हैं ,इसलिए इनका दोहन भी उतना ही ताकतवर है। हमें जिन्दगी में यह सीखने मिलता है कि बलषाली को दबाने में हम षक्ति या बल का प्रयोग करना निरर्थक समझते हैं , इसलिए नहीं लगाते। दुर्बल को सताने में मज़ा आता है और आत्मबल प्राप्त होता है , इसलिए आत्मतुश्टि के लिए हम पूरी ताकत लगाकर पूरा आनंद प्राप्त करते हैं।

करीब सौ डेढ सौ फीट का लम्बा गलियारा चिकनी टाइल्स का था। उसपर भारी ,भरी पूरी करीब सात आठ फुट ऊंची मशीन को लुढकाने का मज़ा ही कुछ और था। जिसने देखा दंग रह गया। एक्स रे कक्ष से लिफ्ट की दूरी करीब साठ सत्तर फीट तो होगी। उस मौजी तकनीशियन ने उसे वहीं से पुश कर दिया तो मशीन तेजी से लिफ्ट की तरफ दौड़ पड़ी। वहां एक वार्ड बॉय खड़ा था । उसने हंसते हुए कैच ले लिया। हमारी जान में जान आई। अगर इस बीच कोई मरीज या उसका परिजन बीच में आ जाता तो ? फिर मैं अपनी इस मुर्खतापूर्ण सोच पर शर्मिन्दा हो गया। मैंने अपने को समझाया: यह हॉस्पीटल है भैये, दुर्घटना से कैसा डर ?

कितनी बारीकी से आप चीजों की तह परजाते हैं और विडम्बनाओं पर कितना तीखा प्रहार करते हैं ..वाह..!!! शायद यह कहना भी विडम्बना ही है।
Anonymous said…
हमेशा की तरह ही, गज़ब की पडताल करता व्यंग्य...
रोचक वृत्तान्त । लगभग हर जगह ऐसा ही है ।
एक अच्‍छा व्‍यंग्‍य। शायद यही हाल शिक्षा की दूकानों का है। एक दौड़ चल रही है और आगे निकलने की होड़ में नैतिक मूल्‍य पैरों तले रौंदे जा रहे हैं।
दुर्बल को सताने में मज़ा आता है और आत्मबल प्राप्त होता है , इसलिए आत्मतुश्टि के लिए हम पूरी ताकत लगाकर पूरा आनंद प्राप्त करते हैं।
is baat hame bhi taklif hoti ki log samjh ki vajay istmaal kyo karte hai ya majboori ka fayda uthane me nahi chukte .ye sanstha hamare suvidha ke liye hoti ya .....?samjh nahi aaya sab kuchh vyapaar ban raha hai ..rochak aur aham vishya .
sandhyagupta said…
शिक्षा और स्वास्थय- जीवन की दो आधारभूत आवश्यकता.पर हमारे देश में इनकी दशा या दुर्दशा के बारे में क्या कहा जाय ?
करारा व्यंग्य.
आपकी लेखनी में जादू है.
Dr.R.Ramkumar said…
आदरणीय तिलकराज कपूर साहब ने मुझे एक ई मेल भेजा ...ई मेल नीचे दे रहा हूं..

डॉ साहब
आपकी रचना में श्‍ और ष्‍ की समस्‍या ठीक कर भेज रहा हूँ।
कृति देव के दो वर्शन प्रचलन में हैं एक में दोष है एक में नहीं। आप कृति देव के स्थान पर देव लिज़ या कृष्‍णा का उपयोग करें, उसमें ये दोष नहीं है।
सर्वोत्‍तम विकल्‍प तो यह है कि सीधे हिन्‍दी IME का उपयोग कर यूनीकोड में पाठ टाईप करें।
सादर
तिलक राज कपूर

मित्रों
ब्लाग की दुनिया में बेहतर ब्लागों में अपनी टिप्पणियों के जरिए अपनी उपस्थिति दर्ज कराने के लिए प्रसिद्ध श्री तिलकराज कपूर साहब को कौन नहीं जानता । वे मेरे ब्लाग में आए, रचना पढ़ी और मेरे रास्ते में आनेंवाली कठिनाई को किस सहज सकारात्मकता के साथ दूर कर गए...सारी रचना को मेहनत से पढ़कर और फोन्ट सुधारकर यह अनुकरणीय है।

अब जो आप पढ़ रहे है वह आदरणीय तिलकराज कपूर साहब का कृति देव में संशोधित कर भेजा गया वर्जन पढ़ रहे हैं
कपूर साहब !आपका आभार..
उम्मीद है आना जारी रखेंगे इसी प्रकार की तकनीकी सहायता की आत्मीयता के साथ
मैं कहूँगा भाग्य अच्छे थे जो आपके ब्लॉग पर आना हुआ और इतना रोचक दमदार लेखन पढने को मिला...हास्पिटल का जो वर्णन आपने किया है वो कमोबेश इस देश के प्रत्येक हास्पिटल का है...आपने जिस अंदाज़ में पूरे घटना क्रम को प्रस्तुत किया है उसकी प्रशंशा के लिए हिंदी के शब्दकोष में उचित शब्द का अभाव है...मेरी मजबूरी समझते हुए आप इस वक्त केवल वाह वा...अद्भुत.. लाजवाब आदि शब्दों से मेरी भावना को समझें...
नीरज
Alpana Verma said…
शिक्षा और स्वास्थ्य आदमी की सबसे बड़ी कमजोरियां हैं, इसलिए इनका दोहन भी उतना ही ताकतवर है।इस बात को आज के पूंजीवादी खूब समझते हैं तभी प्राइवेट स्कूल और so called modern हस्पताल गली गली मिलेंगे ..
प्राइवेट हस्पताल में भी इतनी मारामारी किसे दोष दें...रोबोट बने इंसानों को ये फिर पैसा भगवान् बन गया है उस बात को..
या फ़िर सम्वेंदनाएं मूक हो गयी हैं इस बात को??
बात जो भी हो है तो परेशानी का सबब ..
आप ने इतनी परेशानियां झेलीं जसे व्यंग्य के रूप में यहाँ प्रस्तुत किया ..यह शायद हर एक आम इंसान की व्यथा है reception से ले कर वार्ड तक या फ़िर examination रूम से लेकर हस्पताल से छुट्टी मिलने तक ..ऐसी ही न जाने कितनी परेशानियां झेलनी पड़ती हैं ...modern और प्राइवेट हस्पतालों में भी भीड़ है ..क्या करें?सब जगह बुरा हाल है ..बहुत अच्छा व्यंग्य लिखते हैं आप.
Dr.R.Ramkumar said…
aap sabhi ne jis gambheerta se aalekh ko padha hai us sahridyata ka aabhaar.
kumar zahid said…
मैं सीढ़ियों से ऊपर भागा। सीढ़ियां चढ़ने से कुण्ठा और अवसाद दूर होते हैं, ऐसा योग की किताबों में लिखा है और मैंने भी अनुभव किया है। सीढ़ियां चढ़कर जाने से मेरी कुण्ठा और अवसाद दूर हो गये।

ek baar aur badhai
पहले ही पढ़ गयी थी आपका ये अद्भुत व्यंग लेखन ......
टिपण्णी भी लिखी एक बार नहीं दो बार ....पर हर बार बिजली धोखा दे जाती .....

@ इस माडर्न हास्पीटल में मेरी सूरत रिसेप्सनिस्ट लड़के को पसंद नहीं आई तो उसने मुझे दूसरे रिसेप्सनिस्ट के पास भेज दिया। वह लड़की थी। उसे भी मेरी सूरत पसंद नहीं आई। उसने फिर उसी लड़के के पास जाने के लिए कहा। मैंने कहा: ‘‘उन्होंने ने ही आपके पास भेजा है।’’ लड़की ने लड़के को प्यार से घूरकर देखा और मुझसे बोली:‘‘ स्लिप किसके नाम से बननी है?’’ ऐसा कहकर उसने फिर लड़के को देखा जो अब मुस्कुरा रहा था। मैं समझ गया मामला क्या था ।
क्या कहूँ इतना आसान नहीं होता अपने आप पर व्यंग कर के लिखना .....और दूसरों को हंसना ......

@ मैं परेशान हो गया जिसे देखकर बाकी लोगों के चेहरे पर हंसी आ गई। मुझे अच्छा लगा।.......बहुत खूब ......!!

@बहुत से लोगों की मानसिक परेशानी तो इस लिफ्ट से ही दूर हो जाती होंगी। ...हा...हा...हा......

@ व्हील चेयर अपनी गति से अंदर दौड़ गई जिसे अंदर खड़े दूसरे वार्डबाॅय ने हंसकर लपक लिया। हास्पीटल की नीरस जिन्दगी में कितने मज़े से ये लोग रस घोल रहे हैं । मरीजों का क्या, अच्छे हो गए तो घर लौटेंगे वर्ना मरना तो है ही एक दिन। बेहतर है वार्डबाॅय का मनोरंजन करते हुए मरें। .....
बहुत खूब ....अभी कुछ दिनों पहले पड़ोसी के लड़के की मौत में हास्पिटल यही नजारे देखने को मिले थे .......

कुछ ब्लॉग जगत में डॉ मित्र भी हैं चाहती हूँ वे भी ये पोस्ट पढ़ें .....!!
डॉ रामकुमार जी , बेशक आपका सेन्स ऑफ़ ह्यूमर ग़ज़ब का है ।
बहुत बारीकी से आपने अस्पताल का हाल बयाँ किया है ।
अपने काम को एन्जॉय करना तो कोई बुरी बात नहीं । लेकिन ऐसा करने में किसी को तकलीफ हो सकती हो तो सही नहीं है ।
आज चिकित्सा जगत ही नहीं , लगभग सभी विभागों का यही हाल है , बल्कि और भी बदतर है । शिक्षा विभाग हो या पुलिस विभाग , सेल्स टैक्स , ट्रांसपोर्ट , और क्या क्या गिनाएं --नाम भी नहीं ले सकते उनका ।
हरकीरत जी से सहमत --अपने पर हँसना सबके बस की बात नहीं ।
sandhyagupta said…
काफी दिनों से कुछ नया पोस्ट नहीं किया आपने?
kshama said…
"Bikhare Sitare" pe aapkee tippanee kee shukr guzaree kee hai...zaroor gaur karen!
Dr.R.Ramkumar said…
डा.संध्या,
आपने बहुत देर तक मौन रहने की वाजिब शिकायत की है। इन दिनों मैं ‘‘शल्यचिकित्सा कांड’’ का मूक और पीड़ित पक्षकार बना रहा। वह मैं शीघ्र लेकर आ रहा हूं.
आपकी प्रतीक्षा में भी एक बहुत बड़ी और सबल टिप्पणी का वजन है। यह मुझे ऊर्जित करेगी..
कृतज्ञ हूं...
Dr.R.Ramkumar said…
मित्रवृंद सादर वंदे!सलाम!
इंतजार होगा जानता हूं पर मजबूर हूं ...
कुछ वक्त हमेशा भारी हुआ करता है।
पर शीघ्र आऊंगा..आपकी दुआओं से..

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काग के भाग बड़े सजनी

पितृपक्ष में रसखान रोते हुए मिले। सजनी ने पूछा -‘क्यों रोते हो हे कवि!’ कवि ने कहा:‘ सजनी पितृ पक्ष लग गया है। एक बेसहारा चैनल ने पितृ पक्ष में कौवे की सराहना करते हुए एक पद की पंक्ति गलत सलत उठायी है कि कागा के भाग बड़े, कृश्न के हाथ से रोटी ले गया।’ सजनी ने हंसकर कहा-‘ यह तो तुम्हारी ही कविता का अंश है। जरा तोड़मरोड़कर प्रस्तुत किया है बस। तुम्हें खुश होना चाहिए । तुम तो रो रहे हो।’ कवि ने एक हिचकी लेकर कहा-‘ रोने की ही बात है ,हे सजनी! तोड़मोड़कर पेश करते तो उतनी बुरी बात नहीं है। कहते हैं यह कविता सूरदास ने लिखी है। एक कवि को अपनी कविता दूसरे के नाम से लगी देखकर रोना नहीं आएगा ? इन दिनों बाबरी-रामभूमि की संवेदनशीलता चल रही है। तो क्या जानबूझकर रसखान को खान मानकर वल्लभी सूरदास का नाम लगा दिया है। मनसे की तर्ज पर..?’ खिलखिलाकर हंस पड़ी सजनी-‘ भारतीय राजनीति की मार मध्यकाल तक चली गई कविराज ?’ फिर उसने अपने आंचल से कवि रसखान की आंखों से आंसू पोंछे और ढांढस बंधाने लगी। दृष्य में अंतरंगता को बढ़ते देख मैं एक शरीफ आदमी की तरह आगे बढ़ गया। मेरे साथ रसखान का कौवा भी कांव कांव करता चला आया।...

तोता उड़ गया

और आखिर अपनी आदत के मुताबिक मेरे पड़ौसी का तोता उड़ गया। उसके उड़ जाने की उम्मीद बिल्कुल नहीं थी। वह दिन भर खुले हुए दरवाजों के भीतर एक चाौखट पर बैठा रहता था। दोनों तरफ खुले हुए दरवाजे के बाहर जाने की उसने कभी कोशिश नहीं की। एक बार हाथों से जरूर उड़ा था। पड़ौसी की लड़की के हाथों में उसके नाखून गड़ गए थे। वह घबराई तो घबराहट में तोते ने उड़ान भर ली। वह उड़ान अनभ्यस्त थी। थोडी दूर पर ही खत्म हो गई। तोता स्वेच्छा से पकड़ में आ गया। तोते या पक्षी की उड़ान या तो घबराने पर होती है या बहुत खुश होने पर। जानवरों के पास दौड़ पड़ने का हुनर होता है , पक्षियों के पास उड़ने का। पशुओं के पिल्ले या शावक खुशियों में कुलांचे भरते हैं। आनंद में जोर से चीखते हैं और भारी दुख पड़ने पर भी चीखते हैं। पक्षी भी कूकते हैं या उड़ते हैं। इस बार भी तोता किसी बात से घबराया होगा। पड़ौसी की पत्नी शासकीय प्रवास पर है। एक कारण यह भी हो सकता है। हो सकता है घर में सबसे ज्यादा वह उन्हें ही चाहता रहा हो। जैसा कि प्रायः होता है कि स्त्री ही घरेलू मामलों में चाहत और लगाव का प्रतीक होती है। दूसरा बड़ा जगजाहिर कारण यह है कि लाख पिजरों के सुख के ब...

सूप बोले तो बोले छलनी भी..

सूप बुहारे, तौले, झाड़े चलनी झर-झर बोले। साहूकारों में आये तो चोर बहुत मुंह खोले। एक कहावत है, 'लोक-उक्ति' है (लोकोक्ति) - 'सूप बोले तो बोले, चलनी बोले जिसमें सौ छेद।' ऊपर की पंक्तियां इसी लोकोक्ति का भावानुवाद है। ऊपर की कविता बहुत साफ है और चोर के दृष्टांत से उसे और स्पष्ट कर दिया गया है। कविता कहती है कि सूप बोलता है क्योंकि वह झाड़-बुहार करता है। करता है तो बोलता है। चलनी तो जबरदस्ती मुंह खोलती है। कुछ ग्रहण करती तो नहीं जो भी सुना-समझा उसे झर-झर झार दिया ... खाली मुंह चल रहा है..झर-झर, झरर-झरर. बेमतलब मुंह चलाने के कारण ही उसका नाम चलनी पड़ा होगा। कुछ उसे छलनी कहते है.. शायद उसके इस व्यर्थ पाखंड के कारण, छल के कारण। काम में ऊपरी तौर पर दोनों में समानता है। सूप (सं - शूर्प) का काम है अनाज रहने देना और कचरा बाहर निकाल फेंकना। कुछ भारी कंकड़ पत्थर हों तो निकास की तरफ उन्हें खिसका देना ताकि कुशल-ग्रहणी उसे अपनी अनुभवी हथेलियों से सकेलकर साफ़ कर दे। चलनी उर्फ छलनी का पाखंड यह है कि वह अपने छेद के आकारानुसार कंकड़ भी निकाल दे और अगर उस आकार का अनाज हो तो उसे भी नि...