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प्रेतवाला पीपल

स्कूल ग्राउंड में अंधेरा है।
अंधेरे में स्कूल ग्राउंड मे खड़ा प्रेतवाला पीपल का पेड़ और भी भयानक लग रहा है।
उसी भयानक पेड़ के नीचे बने ,टूटे फूटे चबूतरे पर संता गुरुजी चैन की नींद सो रहे हैं।
संता गुरुजी का मन जब जब खराब होता है , तब तब प्राइमरी स्कूल के खुले ग्राउंड के एक कोने में खड़ा पीपल का पेड़ ही उनको शांति देता है। शांति के लिए तो सभी जीनेवाले बुरी तरह मरते रहते हैं। लोगों का कहना है कि जो लोग बुरी तरह मरते हैं , वे लोग प्रेत बनकर इसी पीपल के पेड़ में रहने लगते हैं। आदमियों के मरने से बननेवाले भूत , प्रेत , बेताल वगैरह प्रायः पेड़ में ही रहते हैं। इसका कोई पौराणिक कारण होगा। गुरुजी उस कारण पर नहीं जाते और परंपरा के अनुसार अन्य लोगों की तरह जब तक सांस है , पेड़ के नीचे रहते हैं। मरने पर पेड़ पर तो रहना ही है।
ऐसा विश्वास है कि इस स्कूल ग्राउंड वाले पीपल के पेड़ पर भूत रहते हैं। जब-जब किसी बच्चे की स्कूल में तबीयत खराब हो जाती है , तब-तब पूरे गांव में फुसफुसाहट फैल जाती है कि पीपलवाले प्रेत ने सताया है। बच्चे के परिवारवाले तब छोटी-मोटी पूजा करके पीपल के प्रेत को मनाया करते हैं। उस पूजा के लिए गांव के ‘शनीचर महाराज’ या ‘प्रेत पंडा’ ही भूतों के एकमात्र पुरोहित हैं। नक्षत्र खराब होने से समस्याओं से मुक्ति के लिए जब वे शनीचर की पूजा करवाते हैं तो शनीचर महाराज हो जाते हैं। भूतबाधा से मुक्त कराते समय वही शनीचर महाराज ‘प्रेत पंडा’ कहलाने लगते हैं। लोगों की आस्था ने उन्हें बहुरूपिया बना दिया है।
पर संता गुरुजी न प्रेत बाधा को मानते हैं न शनिचर के क्लेष को। न मानने के दो कारण हैं।
एक बार किसी ने पूछा ‘‘संता गुरुजी! आप शनिचर को क्यों नहीं मानते ?’’
‘‘क्यों मानूं ?’’ पलटकर संता गुरुजी ने पूछा -‘‘ आज तक जिस जिस को माना है , उसी ने सताया है। आदमी हो कि देवता। प्रेत हो कि दुष्टग्रह। मान देने पर सभी ऐंठते हैं। वोट मांगने आते हैं तो बड़े-बड़े वादे करते हैं। जीत जाते हैं तो अकड़कर कहते हैं-‘वोट देकर खरीद लिया है क्या मास्टर !’ लोग माननेवालों को दुत्कारते हैं। काम उसका करते हैं जो विरोधी है। क्योंकि विरोधी खुष हुआ तो वोट देगा। जब वोट दे देगा तब ठेंगा दिखाएंगे। मान-मनौवल भी सताने की योजना है। आज शनि इसलिए दुख दे रहा है कि उसकी पूजा की जाए। पूजा करवाउंगा तो बिजली का कनेक्शन और पाइप लाइन कटवा देगा। फिर मैं उसी पार्षद के पास जाउंगा जो पूछता है -‘खरीद लिया है क्या मास्टर ?’ सब दुष्ट लोग मिले हुए हैं भैया.....दुष्ट मनुष्य हो कि दुष्टग्रह। मैं नहीं मानता किसी को।’’
पूछनेवाले ने अविश्वास से सहमकर कहाः-‘‘गुरुजी! सच कह रहे हो कि व्यंग्य कर रहे हो ?’’
संता गुरुजी बिफरकर बोले:‘‘ सच बोल रहा हूं। हमेशा बोलता हूं। लाग लपेट करनी होती तो चुनाव लड़ता, मास्टरी क्यों करता ? तुमको लगता है कि व्यंग्य कर रहा हूं! देख नहीं रहे हो कि मैं इस डरावने पेड़ के नीचे मज़े से बैठा हूं। तुम लोग हंसते हो कि मैं जीते जी प्रेत हो गया हूं। हां, हो गया हूं। मक्कार आदमी होने से अच्छा कि प्रेत हो जाओ। न दिन की परवाह न रात की चिंता। सुबह शाम घूमने के बहाने यहां आ जाता हूं तो ताजा हवा मिल जाती है। लोगो से मिलता हूं तो दम घुटता है। लोग डरते हैं कि यहां आने से प्रेत बाधा होगी। मैं सालों से यहां आ रहा हूं। मुझे शांति मिलती है। अच्छा , मुझे बताओ ! प्रेत बाधा से क्या होता है ? आदमी मर जाता है ? मरना तो है ही एक दिन। मरेंगे तो प्रेत बनेंगे और मज़े से रहेंगे इसी पीपल पर ...जब मरने के बाद यहीं रहना है आकर , तो जीते जी आकर अपनी जगह क्यों न घेर लें...लोगों की नज़र वैसे ही नज़ूल की फालतू पड़ी ज़मीन पर लगी रहती है। किसी दूसरे ने घेर लिया तो उसे किराया देना पड़ेगा। देखते नहीं एक-एक आदमी दस-दस आदमियों की जगह घेरे हुए है। रहता खुद कहीं और है, घेरी हुई जगह को किराए से उठा देता है। मैं अपनी जगह खुद घेर रहा हूं और खुद ही रहूंगा।’’ सुननेवाला आदमी हंसने लगा तो संता गुरुजी ने आश्चर्य और तिरस्कार से उसकी तरफ़ देखा। गुरुजी के चेहरे पर हास्य या विनोद का भाव नहीं था। हंसनेवाला सकपकाकर बोला:‘‘ नई , मेरा मतलब था कि ... मतलब प्रेत तो वो बनते हैं न जो मरने के पहले ही मर जाते हैं..यानी आयु से पहले मर जाते हैं...दुर्घटना से , हत्या या आत्महत्या से , .. आप क्या सोच रहे हैं ?’’
‘‘ मैं क्या सोचकर मरूंगा ?’’ गुरुजी झल्लाए-‘‘ सोचकर कोई नहीं मरता । दुर्घटना बिना सोचे होती है। हत्या जिसकी होती है अगर सोचने का अवसर पा जाए तो हत्यारों से बच जाए। कुछ हत्यारे तो साधुता ओढ़कर आते हैं। आत्महत्या भी कोई तभी करता है जब सोचने समझने वाली बुद्धि काम करना बंद कर देती है। समझे..?’’
‘‘ आप तो बहुत बढ़िया ढंग से सोचते हैं गुरुजी !’’ सामनेवाले के पास समय ज्यादा था शायद। वह गुरुजी को उकसाने लगा था ,‘‘ इतना बढ़िया सोचनेवाला आदमी अकाल मौत कैसे मरेगा गुरुजी ? कैसे वह प्रेत बनेगा ? कैसे इस पीपल पर रहेगा ?’’
गुरुजी ने गहरी सांस भरकर कहा ,‘‘ तुम मेरे मरने की आयु को क्या जानो ? फिर तुम लोगों के लिए मरना लुढ़क जाना भर नहीं है। जलाते हो , अंत्येष्टि करते हो , गंगा में राख बहाते हो। दुनिया भर के कर्म कांड करते हो कि मरनेवाले की कोई इच्छा अधूरी न रह जाए वर्ना वह प्रेत हो जाएगा। जीते जी उसे जिन बातों के लिए जानबूझकर तरसाते हो , मरने पर उसके शव को चुटकी भर देकर उसके प्रेत बनकर सताने के डर से मुक्त होने की कोशिश करते हो ? पर मुझ जैसे आदमी की तरफ नहीं देखते जो जीते जी मर चुका है। मैं कब का और कितनी मौत मर चुका हूं कभी सोचा है.. तुम्हारे धर्म ने, तुम्हारी दोगली नैतिकता ने , तुम्हारे ताकतवर स्वार्थों ने , तुम्हारे छल , कपट , प्रपंचों ने मुझे दौड़ा दौड़ाकर मारा है। मेरा शरीर तो सिर्फ कर्तव्यों की ठठरी पर बंधा हुआ चल रहा है। तुम इसे जीना कहते हो ? मुझसे कहते हो कि मैं जब मरूंगा... अब और क्या मरूंगा..मैं..?’’ इतना कहकर तथा एक और गहरी सांस लेकर गुरुजी चुप हो गए। घनीभूत पीड़ा उनके चेहरे पर छाने लगी। प्रश्नकर्ता सहम गया। शब्दों की मौत मरनेवाला यह गुरु कहीं शारीरिक मौत अभी मर गया तो उलझ जाऊंगा। जल्दी से हाथ जोड़कर बोलाः‘‘ अच्छा गुरुजी ! एक जरूरी काम याद आ गया। बाद में मिलूंगा।’’
गुरुजी नमस्ते का जवाब नहीं देते। सिर्फ मुस्कुरा देते हैं। मुर्दा नमस्ते की तरह एक मुर्दा मुस्कान उनके चेहरे पर छा जाती है। जुड़े हुए हाथ ही कब ज़िन्दा होते हैं। बनावट होती है उनमें। बनावट का जवाब गुरुजी बनावट से देते हैं। गुरुजी के वास्तविक दुखों ने उन्हें वास्तविक जगत से भिन्न और निराला कर दिया है। अभाव ने उनके भावों को सांसारिक भावों से जुदा कर दिया है। वे हटकर दिखाई देते हैं और हटकर ही चलते हैं। चलते पुरजे , राजनैतिक और बुद्धिमान लोग उनकी बात चलते ही कहते हैं-‘‘अरे उसकी बात मत करो।’’
मगर गुरुजी की बात होती रहती है। बात होती है कि आखिर कुछ तो है कि अकेला वही निर्भीकतापूर्वक प्रेतवाले पीपल के पेड़ के नीचे लेटा हुआ शांति पा रहा है। यह वह व्यक्ति है जो भूतों से नही डरता पर अपनी खस्ता हाल जिन्दगी की सड़ी गली उपलब्धियों के आगे सहमा हुआ खड़ा रहता है। अपने आसपास फैले अभाव , अन्याय , अनचार , झूठ , छल , दिखावे और धोके से चिढ़ता है। अपने कद से ऊंची समस्याओं और पत्नी द्वारा परोसे गए अपने से ज्यादा भारी उलाहनों के आगे झुकता है , दबता है। बार बार उसे कहना पड़ता है ‘‘ मुझे माफ करो.....सब मेरी गलती है.....मैं पैदा हुआ मेरी गलती
है...तुम्हारा पति बना, तुम्हारे बच्चों का पिता बना..मेरी गलती है... कायर हूं..कर्तव्यों के हिजड़े तर्कों के पीछे खड़ें होकर मरने से बच रहा हूं , मर नहीं रहा हूं ....मेरी गल्ती है.....जब तक जी रहा हूं तब तक इस बात
के लिए माफ कर दो कि पूरी तनखा घर ला रहा हूं....अब तनखा कम है तो इसलिए माफ करो कि इसमें मेरा कोई हाथ नहीं है..’’
इस तरह के दैनिक दृश्य प्रायः घटते और गुरुजी इसी प्रेतवाले पीपल के नीचे आकर बैठ जाते।
आज भी वही हुआ था। गुस्से और हताशा में गुरुजी ने फिर ब्याज-क्षमावाणी की उद्घोषणा की थी और अवसाद का प्याला पीते हुए पीपल के नीचे आकर बैठ गए थे। एक एक चीज़ किसी तेज घूमते चक्र की भांति उनके मस्तिष्क में घूमने लगी थी। वे हर बात को याद करते हुए पहलू बदलने लगे और तनाव के महीन बुने गए मकड़जाल में अपने को उलझता देखने लगे।

हमेशा की तरह तनाव में भरे संता गुरुजी अपेक्षाकृत खाली पास बुक को पंचाग की तरह खोलकर बैठे बड़बड़ा रहे हैं-‘‘ लोग समझते हैं ..मास्टरों को बहुत पैसा मिलता है...काम कुछ नहीं है.. दिख नहीं रहा किसी को कि काम दुनियाभर का मास्टरों के सर पर ऐसे लाद दिया गया है कि जैसे वह गधा हो.. जोत देते हो यहां वहां..फिर भी कहते हो काम नहीं है... ऊपर से लड़को का कोर्स...मक्कार साले...झूठे..धोकेबाज..इधर उधर से कर्ज करके घर की गाड़ी खिंच रही है..कर्ज़ लेकर दो कमरे बनवाए हैं ...पार्ट फाइनल...टेंपरेरी..पर्सनल...थोड़ा थोड़ा सब बाबुओं को चटकारा चटाकर लिया है ...वह सब कट जाता है...तनखा पूरी कभी मिलती नहीं...कुछ बचता नहीं ..अब किससे कहूं ..किसे बताऊं ..कौन समझता है...????’’
वे किसी से कह नहीं रहें थे। किसी से कहने की उनकी आदत थी भी नहीं। अपना दुख अपने को ही सुनाकर हल्का कर रहे थे। मगर भूल गए थे कि खाली जगह में भी हवा होती है। हवा उनकी बड़बड़ाहट सुन रही थी। उसने चुगली कर दी। पत्नी अचानक तमतमाकर सामने आ गई । पूछने लगी -‘‘ किसे सुना रहे हो ? मुझे ?’’
संता गुरुजी अकबकाकर उसका मुंह देखने लगे। सहज होकर बोले-‘‘तुझे नहीं सुना रहा हूं..खुद ही कुढ़ रहा हूं।’’
‘‘ किस पर कुढ़ रहे हो ?’’ पत्नी बिफरी।
गुरुजी ने होंठ पर जीभ फिराई और चश्मा उतार कर बोले ,‘‘ किस पर कुढ़ूंगा ! अपनी किस्मत पर कुढ़ रहा हूं।’’
‘‘ अपनी किस्मत पर कुढ़ रहे हो ? हूं...?? मैं खूब समझती हूं.. तुम्हारी किस्मत को.....बड़ी देर से सुन रही हूं.....बातें बनाकर समझते हो कि बच जाओगे ? बच्चों की नजर में ऊंचे हो जाओगे.... नहीं हो सकता तो नहीं बोल दो ..बहाने क्यों बनाते हो ? लड़के भी समझते हैं कि चाय का ठेला चलानेवाले के लड़के भी बाहर पढ़ रहे हैं और हम यहीं सड़ रहे हैं..’’ पत्नी रोने लगी।
गुरुजी को भी गुस्सा आ गया -‘‘ तुम नहीं जानती कि क्यों यहां पढ़ रहे हैं , सड़ रहे हैं...?? तुमको नहीं पता कि वे पढ़ते कितना हैं ? तुम नहीं जानती कि खर्च कितना है... कि घर कैसे चलता है ? कि पिछले कई सालों से घर कौन चला रहा है ? कि मेरे पास तो एक पैसे का हिसाब नहीं है । कि पाई पाई का हिसाब तो तुम्हारे पास है , तुम ही बताओ कि कहां से आ रहा है और कहां जा रहा है ?’’
‘‘ सब मैं लुटा रही हूं.....फेंक रही हूं घूरे में...’’मास्टरनी फफककर रोने लगी,‘‘ आई हूं तब से देख रही हूं ..पैसे पैसे को मोहताज हूं..पाई भर का सुख नहीं है.. एक छदाम अपने या अपने बच्चों पर नहीं उड़ा रही.तुम भी सब जानते हो.....पर कभी ढंग से चार दिन नहीं रहे..जी चाहा तो हंस बोल लिए नहीं तो चौबीस घंटे मुंह उतारकर बैठे हैं..डूबे है किताबों में..पता नहीं ऐसा क्या मिलता है किताबों में...किताबे साथ देंगी तुम्हारा.....अरे मैं सब समझती हूं...’’
‘‘ पता नहीं क्या समझती है तू.....खोपड़ी तो खाली पड़ी है तेरी..भेजा हो तो समझदारी हो.....बड़ी आई है सब समझनेवाली..’’ मास्टर ने उसे धमकाया तो बात बढ़ गई। न मास्टर कुछ समझा पाए न मास्टरनी को कुछ समझ में आया कि मास्टर को आखिर क्या तनाव है ...घर का , बाहर का , छुटभैयों का , सहकर्मियों की उठापटक का। सीधासादा आदमी क्या कर सकता है ? सोच में डूबा रह सकता है, बड़बड़ा सकता है ,होश में बातें नहीं कर सकता । मगर मास्टरनी यह नहीं समझती। डांटने पर आक्रामक हो जाती है। जबकि सत्संग और पूजा पाठ भी करती है।
मास्टर ने देखा कि बात बढ़ रही है और मास्टरनी बिगड़ती जा रही है...हाथ पांव पटकना..सिर पटकना.. रोना झींकना...चीखना ..चिल्लाना... तो झगड़े का मुंह काला करने के उद्देश्य से अपना गुस्सा पीते हुए मास्टर ने आखिर हाथ जोड़ लिए..‘‘ अच्छा मुझे माफ़ कर ...गुस्से में कुछ बोल दिया तो भूल..आइन्दा ख्याल रखूंगा..’’ टाक्सिन मास्टरनी का भी रोने से पतला हो गया था। वह कुछ नहीं बोली। चुपचाप रोती रही। मास्टर ने अपना मुंह उठाया और बाहर का रुख किया।

बाहर निकलते ही मास्टर के पैर अपने आप स्कूल के मैदान में खड़े प्रेतवाले पीपल की तरफ ऐसे उठ गए जैसे बैल हल में जुतते ही खेतों की तरफ चल पड़ते हैं।
बुदबुदाते चलते मास्टर कभी पत्नी की नासमझी पर कुढ़ रहे थे तो कभी अपनी दयनीय हालत पर। अचानक उनके मुंह से निकला-‘‘ मौत भी नहीं आती साली!’’
यह वह आत्मतोषी वाक्यांश है जो अधिकतर बड़ी स्वाभविकता के साथ हर पराधीन के मुंह से निकल जाता है। मास्टर परिस्थियों के अधीन थे। यह राहत भरा वाक्य मुंह से निकला तो वे रुक गए। उनके हाथ अपने आप जेब में जा चुके थे और फिर उनके हाथ में बीड़ी और माचिस थी। उन्होंने खड़े खड़े बीड़ी सुलगाई ओर जोर का एक कश लिया जो सीधे फेफड़ों में उतर गया। धुआं छोड़ते ही उनकी समझ में यह बात भी आ गई कि मौत क्यों नहीं आती। वे बुदबुदाए-‘‘ मौत भी कैसे आएगी बेचारी! मर गया तो फायदा कहां किसी का है..कौन उनके पीछे घर संभालेगा ? अरे नुकसान तो बीवी और बच्चों का ही है.... कहां जाएंगे ? क्या करेंगे ? कौन उनकी मदद करेगा ? यही सोचकर किसी तरह घर बनवा लिया था कि अगर मर भी गया तो छाया रहेगी बच्चों के सर पर। मगर सर पर छाया खड़ी करते करते पैरों के नीचे की जमीन खिसक गई। क्या ज़िन्दगी है साली..एक जांघ ढंको तो दूसरी नंगी हो जाती है। कर्ज इतना है कि यदि आज मरता हूं तो जीपीएफ बैंकवाले और दूसरे लोग हथिया लेंगे। जी रहा हूं तब तक तन्खा से कटेगा धीरे धीरे। यही सब मौत भी देख रही होगी इसलिए तरस खाकर नहीं आती।
मास्टर को फिर लगा कि मौत तो तरस खा रही है मगर..दुख को दया नहीं आती। पत्नी को क्या कहें ? उसका दुख भी तो सही है। बच्चों को लेकर उसके कुछ सपने हैं। पर मैं क्या करूं ? भाग्य को मानू कि किस्मत को रोऊं ? मेरी हालत को समझनेवाला कोई नहीं है।
सोचते सोचते झींखते कुढ़ते संता मास्साब प्रेतवाले पीपल के नीचे आ गए। ..पीपल पूजकों ने या प्रेतपूजकों ने पीपल के आसपास चबूतरा उठा दिया है। पत्थर की चीप लगवा दी हैं। संता मास्साब धम से उसी पर बैठ गए।
घर अभी भी घूमते हुए सर के साथ घूम रहा था-‘‘ क्या जिन्दगी है ससुरी! आदमी जिनके लिए जीता है , वही दो बातें नहीं सुन सकते। गुस्सा करो तो दुगुने गुस्से से टूट पड़ते हैं। जैसे मैं उनका दुश्मन हूं। आखिर मैं जी किसके लिए रहा हूं। वे मुझे यह सहयोग दे रहे हैं ? थोड़ी सुविधाएं कम पड़ी , एक आध सपना टूट गया..या दो एक निवाले कम पड़े तो मुझे ही खाने लगे। सच कहते हैं बुजुर्ग कि सब देखी सुने की माया है...मुफ्त में दिल भरमाया है। ’’ संता मास्साब का चेहरा चूल्हे की तरह दहक उठा। दोनों हाथों से थामकर वे कुछ देर सामने झुक गए। थोड़ा शांत होने पर वे चबूतरे पर लेट गए।
पीपल का ऊंचा और घना विस्तार उनकी आंखों में फैल गया। मास्टर ने देखा कि पीपल के पेड़ पर सैकड़ों हंडियां लाल कपड़े में बंधी हुई टंगी हुई थीं। उनमें मृतक के घरवालों ने दाहसंस्कार के तीसरे दिन बुझी और ठंडी राख में से चुनकर कुछ विशेष हड्डियां...दांत...अंगुलियां आदि हंडी में रख ली थीं कि कभी जब प्रयाग जायेंगें तो संगम में विसर्जित करेंगे। इससे मरी हुई आत्मा को शांति मिलेगी। मास्टर को हंसी आई। गीता कहती है कि आत्मा अमर है और गीता का पाठ करनेवाले,उसकी पूजा करनेवाले मानते हैं कि मरे हुए , जले हुए शरीर की बची हुई हड्डियों को संगम में सिराने से शांति मिलती है। बताइये , मरने के बाद भी आदमी को शांति की तलाश रहती है। यह साली शांति ही परले सिरे की धोकेबाज है। है कहीं नहीं , मिलती किसी को नहीं पर मिलने की आस सबको बंधाए रखती है। मैं साला मरने के बाद पक्का भूत बनूंगा और मेरी हड्डियां चुनने वालों के हाथ पकड़पकड़कर झटक दूंगा कि यह बकवास मेरे साथ नहीं चलेगी। मुझे प्रयाग क्या शांति देगा जहां लोगों की इसलिए हत्या कर दी जाती है कि उनकी गांठ का सारा पैसा हड़प लिया जाए।
गुरुजी ने हंडियों को अफसोस के साथ देखा और उनमें जिनकी हड्डियां थी उनपर तरस खाया कि बेचारे मरने के बाद भी हंडियों में कैद हो रहे हैं। अब उन्होंने अपना ध्यान हंडियों से हटा लिया।
पीपल के पत्ते हवा में धीरे धीरे हिल रहे थे..जैसे वे उनमें रहनेवाले भूतप्रेतों की हथेलियां थीं जो या तो मास्साब का अभिवादन कर रही थीं या हौले हौले उनको हवा कर रही थीं। कितनी ठंडक थी उनमें...गर्मी में तो यहां मजा आ जाए। लोग बेकार में प्रेतों से डरकर इतनी बढ़िया हवादार जगह को छोड़ देते हैं। अच्छा है ...डर अच्छा है...वर्ना इतनी सी जगह के लिए ही दंगे हो जाएं। इस सद्विचार और ठंडी हवा से मास्साब के मन को थोड़ी सी शांति और मिली। उन्होंने पैर तानकर लेटे-लेटे ही एक मस्त और बेफिक्र अंगड़ाई ली।
थोड़ी देर बाद जब अंधेरा बढ़ा और सन्नाटा खिंचा तो दूर कहीं से संगीत-मंडली की आवाज़ मास्साब के कानों में आने लगी। ‘रामायण मंडली बैठी है कहीं।’ मास्साब बुदबुदाए। पहले कितनी मंडलियों में बैठते थे वे। अब कहीं मन नहीं लगता। रामायण गाने से उतनी देर मन बहला रहता है फिर वही चौकी चक्की..नून तेल..रामायण रचनेवाले तुलसीदास का तो गुजारा गृहस्थियों के दान से चल जाता था। हमें तो खुद मरना पड़ेगा तब साकेत दिखेगा।’’
तुलसीदास की याद आते ही मास्टर के चेहरे पर विद्रूप मुस्कान फैल गई ,‘ अच्छा हुआ तुलसी महाराज ! तुम गृहस्थ नहीं थे और सरकारी नौकर नहीं थे। रत्नावली को बिना किसी ऊहापोह के तुम छोड़ सकते थे। यहां तो रोज सैकड़ों लोग तुलसीदास होना चाहते हैं मगर परामर्श केन्द्रों के डर से संता मास्साब ही बने रहते हैं।’ मास्साब को तुलसी के लगे-लगे बाल्मीकि भी याद आए-‘‘ क्या हुआ उनके साथ...डाकू रत्नाकर ..पाप बांटने पहुंचे घर.. घर में जितने थे सबने कहा..पाप करो ...डाका डालो... चोरी करो ..मर जाओ.. मगर हमारी व्यवस्था कर जाओ। रत्नाकर को जीवन की , प्रेम की , संबंधों की निस्सारता समझ आ गई और चट से ऋषि हो गए।’’
मास्टर के मुंह से छूट गाली निकली ‘‘ साले संता ! तेरी बुद्धि क्यों बाल्मीकि और तुलसी बनने का नहीं सोचती। चिपका हुआ है अपनी टुटपुंजिया गृहस्थी और बंधुआगिरी से ...मास्टरी है कि बंधुआ मजदूरी है यह ! बताओ ।’’ पता नहीं मास्टर ने किससे पूछा। जब किसी ने जवाब नहीं दिया ; यहां तक कि जिन प्रेतों के घर आज फिर वे अतिथि हुए थे , उन्होंने भी नहीं ; तो मास्टर ने एक जंभाई ली और आंख मूंदकर सोने की भूमिका रचते हुए बोले:‘‘ चल यार संता ! अपन तो कर्तव्यों की मौत मरेंगे। सुबह होते ही फिर घर चलेगे।’’
थोड़ी देर में ही संता की नाक बजने लगी। वह गहरी नींद में समा गए। अलबत्ता अंधेरा, प्रेत और पीपल उनकी हिफ़ाजत में जागते रहे। (19.08.05, रक्षाबंधन, शुक्रवार)

Comments

Anonymous said…
गज़ब का लिखा है...
बहुत दिनों बाद आपके दर्शन हुए...
kumar zahid said…
प्रस्तुति ,शिल्प और कथ्य के समस्त लक्ष्यों पर सटीक और सार्थक यथार्थवादी कहानी..
लम्बे समय तक याद रहेगी
बधाई
बहुत बढ़िया। बिना लाग लपेट के सीधी बात।

कई जगहों पर 'श' की जगह 'ष' का प्रयोग खटकता है। ठीक कीजिए।
कत्र्तव्यों - कर्तव्यों
केन्द्रांे - केन्द्रों
प्रष्नकत्र्ता - प्रश्नकर्ता

एक बार ठीक से पढ़ लीजिए और बाकी ग़लतियों को भी सुधार दीजिए।
Dr.R.Ramkumar said…
गिरिजेश जी ,
इतनी गंभीरता पूर्वक कहानी पढ़कर कमेन्ट करने का धन्यवाद।
दोष दूर करने का प्रयास आप जैसे चौकन्ने लोगों के साथ से ही दूर होगा।
कृति से यूनी कोड में कनवर्सन में फोंट की समस्या आ रही है।
पुनः धन्यवाद!
Dr.R.Ramkumar said…
गिरिजेश जी ,
इतनी गंभीरता पूर्वक कहानी पढ़कर कमेन्ट करने का धन्यवाद।
दोष दूर करने का प्रयास करूंगा..दोष आप जैसे चौकन्ने लोगों के साथ से ही दूर होगा।
कृति से यूनी कोड में कनवर्सन में फोंट की समस्या आ रही है।
पुनः धन्यवाद!

Note : पहले की पोस्ट में हुई कापी पेस्ट की त्रुटि भी दूर कर दी है।
कापी पेस्ट की त्रुटि भी दूर कर दी है।
Dr.R.Ramkumar said…
गिरिजेश जी ,
इतनी गंभीरता पूर्वक कहानी पढ़कर कमेन्ट करने का धन्यवाद।
दोष दूर करने का प्रयास करूंगा..दोष आप जैसे चौकन्ने लोगों के साथ से ही दूर होगा।
कृति से यूनी कोड में कनवर्सन में फोंट की समस्या आ रही है।
पुनः धन्यवाद!

Note : पहले की पोस्ट में हुई कापी पेस्ट की त्रुटि भी दूर कर दी है।
कापी पेस्ट की त्रुटि भी दूर कर दी है।
Dr.R.Ramkumar said…
जितनी बार सुधारी उतनीबार हुई सर जी ,
समझें या न समझें आपकी मरजी ।
हमीं टाइपिस्ट, हमीं प्रूफ रीडर , हमीं संपादक , हमीं प्रकाशक ....टेक्नीकल त्रुटि के लिए किस पर दोष मढ़े , बच्चा समझकर माफ करें और विद्वता के साथ सुधारते हुए पढ़ लें , गुस्सा न करें ....
पर मुझ जैसे आदमी की तरफ नहीं देखते जो जीते जी मर चुका है। मैं कब का और कितनी मौत मर चुका हूं कभी सोचा है.. तुम्हारे धर्म ने, तुम्हारी दोगली नैतिकता ने , तुम्हारे ताकतवर स्वार्थों ने , तुम्हारे छल , कपट , प्रपंचों ने मुझे दौड़ा दौड़ाकर मारा है। मेरा शरीर तो सिर्फ कर्तव्यों की ठठरी पर बंधा हुआ चल रहा है। तुम इसे जीना कहते हो ? मुझसे कहते हो कि मैं जब मरूंगा... अब और क्या मरूंगा..मैं..?
जीवन का सत्य इस कहानी मे जिस तरह जिवन्त किया है लाजवाब है। कथ्य कथानक शैली शिल्प हर तरफ से उमदा कहानी है। धन्यवाद।
Kumar Koutuhal said…
शांति के लिए तो सभी जीनेवाले बुरी तरह मरते रहते हैं। लोगों का कहना है कि जो लोग बुरी तरह मरते हैं , वे लोग प्रेत बनकर इसी पीपल के पेड़ में रहने लगते हैं। आदमियों के मरने से बननेवाले भूत , प्रेत , बेताल वगैरह प्रायः पेड़ में ही रहते हैं। इसका कोई पौराणिक कारण होगा। गुरुजी उस कारण पर नहीं जाते और परंपरा के अनुसार अन्य लोगों की तरह जब तक सांस है , पेड़ के नीचे रहते हैं। मरने पर पेड़ पर तो रहना ही है।


सच्ची और खरी कहानी..सुबोध , सहज और सार्थक..
१ देर से आने के लिए माफ़ी
२ पर आपकी पोस्ट को तसल्ली से पढ़ना चाहती हूँ सो समय निकलना पड़ता है
३ कई दिन से नेट भी परेशान कर रहा था
४ भाषा लिपि के दोष पर दूसरों की पोस्ट पर बहुत ध्यान नहीं देती क्योंकि शायद कभी मेरी पोस्ट पर भी हो जाता है किसी किसी शब्द को सही सही लिखना बड़ा मुश्किल हो जाता है
५ आपकी पोस्ट को क्या कहूँ आप तो बहुत मंझा हुआ लिखते हैं "गुरुजी उस कारण पर नहीं जाते और परंपरा के अनुसार अन्य लोगों की तरह जब तक सांस है , पेड़ के नीचे रहते हैं। मरने पर पेड़ पर तो रहना ही है"।"आज तक जिस जिस को माना है , उसी ने सताया है। आदमी हो कि देवता। प्रेत हो कि दुष्टग्रह। मान देने पर सभी ऐंठते हैं।" " गुस्से और हताशा में गुरुजी ने फिर ब्याज-क्षमावाणी की उद्घोषणा की थी और अवसाद का प्याला पीते हुए पीपल के नीचे आकर बैठ गए थे" " हंडियों को अफसोस के साथ देखा और उनमें जिनकी हड्डियां थी उनपर तरस खाया कि बेचारे मरने के बाद भी हंडियों में कैद हो रहे हैं"। हर एक बात ने जीवन दर्शन और यथार्थ कंधे से कंधा मिलाये हुए हैं आभार
Dr.R.Ramkumar said…
रचना जी!
देर आयद दुरुस्त आयद! आप मेरे ब्लाग को रचनात्मक बनाए रखने के लिए कितनी संवेदनशील हैं यह आपकी आत्मीय टिप्पणियां बता ही देती हैं।

रहा सवाल छिद्रान्वेशण का और शोर मचाकर ध्यान बंटाने का ....तो वह एक आदत होती है..भाई रवि स्वर्णकार से मैंने ‘‘ऐसे लोगों पर ज्यादा तवज्जों न देना ही ठीक है,’’यह सीखा है। रवि बहुत सुलझे हुए और गंभीर व्यक्तित्व के धनी हैं..आप तो ब्लागों का इतना भ्रमण करती हैं ,आप इसे बेहतर समझती हैं।

(रवि भाई आपको उद्धत कर रहा हूं..अधिकार के साथ और आप भी बखूबी समझ रहे कि इशारा किस तरफ है..)

आप सुलझी हुई हैं इसलिए तकनीकि खराबियों को और विवशताओं को समझती है।
वैसे दोष पर इंगित करना भी मित्रता का प्रमाण है। मैं सकारात्मकता का पक्षधर हूं..

रचना जी! कुछ लोग जो मेरी रचनात्मकता के संवाहक हैं उनमें से आप भी एक हैं...
मैं अपने वर्ष भर के अनुभवों पर एक आलेख बना रहा हूं ...जिनमें इन अनुभवों का अनुभूतियों का समावेष करूंगा

इस बार इतने गरिमामय सौजन्य के साथ पधारने और टिप्पणी करने का हार्दिक धन्यवाद।
Dr.R.Ramkumar said…
निर्मला मेम! प्रणाम !
आपने बड़ी सूक्ष्मता के साथ इस ‘भयानक ’ कहानी पर दृष्टिपात किया और अपना आशीर्वाद दिया।

मैं कृतार्थ हुआ। आप जैसे गुणियों की टिपपणियां ही किसी रचनाकार की शक्ति होती है।

कृपा बनाए रखें...
Dr.R.Ramkumar said…
रवि जी! मैं जरा अस्तव्यस्त हो गया था। एक कवि बहुत सी बात बिना कहे समझ लेता है ..आप तो गंभीर कवि हैं..और जुझारू भी ..इसलिए न आने की वजह को तकनीकि समझ लें...

ज़ाहिद साहब! क्या कहूं ..आपने तो एक समीक्षक की तरह मेरी कहानी का विश्लेशण किया है..किन शब्दों में आपका शुक्रिया करूं..
बस आदाब!

कौतुहल जी ! कितना कम और सरल लिखकर कितना सार्थक कह गए आप..आपके बहुमूल्य
विचार मेरे लिए समिधात्मक हैं।
नमन!
ZEAL said…
Beautifully written,nice post !
sandhyagupta said…
Bahut kuch kah diya aapne ek hi post me.Prabhavi lekhan.
Apanatva said…
bahut bahut aabhar ek pyara sa comment mere blog par chodne ke liye...............

Imandaar mainahatee neetimarg par chalne wala ek aadmee aaj kis thour se guar raha hai kitna frustration hai.....?uskee jindgee me sabhee jeevant ho gaya hai..........
aaj kee rajneeti par bhee accha kataksh hai.........
aapkee lekhan shailee ko naman...........
सरल और सुंदर शब्द प्रयोग जो कहानी को विशेष बना देती है..कहानी का यही मतलब होता है जो आसानी से जनसामान्य तक पहुँच जाए आप अपने प्रयास में सफलता पाए हैं...बढ़िया प्रस्तुति के लिए बहुत बहुत धन्यवाद..

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पितृपक्ष में रसखान रोते हुए मिले। सजनी ने पूछा -‘क्यों रोते हो हे कवि!’ कवि ने कहा:‘ सजनी पितृ पक्ष लग गया है। एक बेसहारा चैनल ने पितृ पक्ष में कौवे की सराहना करते हुए एक पद की पंक्ति गलत सलत उठायी है कि कागा के भाग बड़े, कृश्न के हाथ से रोटी ले गया।’ सजनी ने हंसकर कहा-‘ यह तो तुम्हारी ही कविता का अंश है। जरा तोड़मरोड़कर प्रस्तुत किया है बस। तुम्हें खुश होना चाहिए । तुम तो रो रहे हो।’ कवि ने एक हिचकी लेकर कहा-‘ रोने की ही बात है ,हे सजनी! तोड़मोड़कर पेश करते तो उतनी बुरी बात नहीं है। कहते हैं यह कविता सूरदास ने लिखी है। एक कवि को अपनी कविता दूसरे के नाम से लगी देखकर रोना नहीं आएगा ? इन दिनों बाबरी-रामभूमि की संवेदनशीलता चल रही है। तो क्या जानबूझकर रसखान को खान मानकर वल्लभी सूरदास का नाम लगा दिया है। मनसे की तर्ज पर..?’ खिलखिलाकर हंस पड़ी सजनी-‘ भारतीय राजनीति की मार मध्यकाल तक चली गई कविराज ?’ फिर उसने अपने आंचल से कवि रसखान की आंखों से आंसू पोंछे और ढांढस बंधाने लगी। दृष्य में अंतरंगता को बढ़ते देख मैं एक शरीफ आदमी की तरह आगे बढ़ गया। मेरे साथ रसखान का कौवा भी कांव कांव करता चला आया।...

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