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नाक में दम

कैमिस्ट्री की कक्षा में मेरी कैमिस्ट्री ठीक रहती है। गणित और जूलाजी , फिजिक्स और वनस्पति के सभी केमिकल एक ही बीकर में मिल जाते हैं। मैं अपने पिपेट से बूंद बूंद एसिड टपकाता हूं। वे बीकर में अपने अंदर के ज्ञान-क्षार को संतृप्त होते महसूस करते हैं। एक दूसरे की सांद्रता का मजे़ से पता चलता रहता है। विज्ञान की भाषा इसे चाहे अनुमापन कहंे, मैं इसे साथ साथ पकना और पकाना कहता हूं। क्योंकि बात मुहावरों पर आकर ख़त्म होती है और मुझे मुहावरों में मज़ा आता है।
उस दिन जुलाजी के एक मैमल ने कहा:‘‘ सर , हिन्दी में एक मुहावरा है। नाक में दम होना या शायद नाक में दम करना ...तंत्रिका-तंत्र के हिसाब से यह ग़लत है। कृपया ,इस पर ज़रा प्रकाश डालें।’
प्रश्न सुनते ही मज़ा आ गया। मेरे अंदर आनंद की रासायनिक क्रिया शुरू हो गई। छात्र के सवाल में उत्प्रेरक के रूप में विविध क्रिस्टल पड़ गए थे। मैमेल पूछ रहा था हिन्दी का मुहावरा। कक्षा थी कैमिस्ट्री की। उसका आग्रह था भौतिकशास्त्र की फोटोमेट्री यानी प्रकाशमिति से संबंधित। कह रहा था ‘प्रकाश डालें।’ मेरा मन बाटनीकल गार्डन हो गया। मै कह चुका हूं कि इस क्लास में आकर मुझे मल्टीपल आनंद आता है।
मैंने पर्यावरण की संपूर्ण हवा को सीने में खींचते हुए फेफडों में दम भरा। पर मैं विचलित नहीं हुआ। मुझे पता है कि बात नाक में दम होने या करने पर अटकी हुई है। मैंने उत्साह में भरकर कहना शुरू किया:‘‘ विद्वान छात्रों और विदुषी छात्राओं!’’
सम्मोहित कक्षा में सन्नाटा खिंच आया। वे जानते थे कि जब जब मैं ऐसा कहता हूं तो विवेकानंद की तरह एक नई कैलीफोर्निया की नींव रखता हूं। जाहिर है ,सम्मोहन की यह कला मैंने पहले विवेकानंद से और बाद में ओशो’ से सीखी। विवेकानंद प्लेन ‘भाइयों और बहनों!’ में निपटा देते हैं। ओशो ‘मेरे प्रिय आत्मन!’ कहकर उसमें क्रीमी लेयर डाल देते हैं। जैसे बर्थ-डे केक में होता है। क्रीम केवल ऊपर होती है, असली मज़ा अंदर होता है। छात्र-छात्राएं असली मजे़ के क्षणों में निश्शब्द हो जाते हैं।
मैंने कहना जारी रखा ‘‘ आप ठीक कहते हैं। नाक में दम करना और होना तंत्रिकातंत्र का विषय नहीं है। दम का कोई स्थूल मास नहीं होता। वह एक कैमिकल रिएक्शन है। ‘नाक में उंगली करना’ भी एक मुहावरा है। वह स्थूल रूप से दिखाई देनेवाली क्रिया है। नाक भी दिख रही है और होनेवाली उंगली भी। पर जहां तक नाक में दम का सवाल है , वहां नाक तो दिखाई दे रही हैं ; लेकिन दम कोई दिखाई देनेवाली वस्तु तो है नहीं कि दिखे। हवा और प्रकाश से उसकी तुलना मत करना। प्रकाश को त्रिपाश्र्व से देखा जा सकता है। उसके इंद्रधनुष तुम जब चाहे तब बना सकते हो। इसीलिए वर्षा का इंतज़ार विज्ञान के विद्यार्थी नहीं करते।
हवा को तुम तौलकर देखते ही रहते हो। उसकी मात्रा ज्ञात करना तुमने भौतिकविज्ञान के प्रयोग के दौरान किया ही है। हवा को तुम सूंघ सकते हो। तुम्हारे अगल बगल बैठे दोस्त और दुश्मन हवा की विविध गंध का प्रयोग तुम्हें पास बुलाने या दूर भगाने के लिए करते ही रहते हैं। टीवी के विज्ञापनों में भी तुमने देखा ही है कि किसी खास किस्म के स्प्रे से कैसा दृष्य उपस्थित हो जाता है। वास्तविक दुनिया में क्या होता है आप में से बहुतो को उसका अनुभव हो सकता है। खैर । बात प्रकाश की चल रही है कि प्रकाश के बिना हम एक दूसरे के अस्तित्व को देख नहीं सकते। ऐसे ही हवा के बिना एक दूसरे की कैमिस्ट्री समझ में नहीं आती। प्रिय छात्र छात्राओं ! भटकिएगा नहीं। हवा कैमिस्ट्री का नहीं , भौतिकी का विषय है।
अब आइये दम पर। दम हवा नही है। मगर हवा में दम होता है। जिस तरफ चलती है उस तरफ भीड़ को बहा ले जाती है। भीड़ में दम नहीं होता कि हवा का दम निकाल सके। अगर ऐसा होता तो भीड़ मंत्री , मुख्यमंत्री और प्रधानमंत्री होेती और मनचाही हवा बनानेवाले मुट्ठी भर लोग भीड़ के द्वारा शासित होते। कुलमिलाकर, भीड़ में दम नहीं होता।
अब प्रश्न उठता है कि दम क्या है ? उसके गुण-सूत्र क्या हैं ? आवर्त-सारणी में उसका स्थान कहां है? ठोस है ,द्रव है या मात्र हवा है ? विज्ञान है या कला ? विज्ञान है तो किस प्रकार है ? कला है तो कौनसी कला है ? ललित कला है या फाइन आर्टस है ? वाणिज्य या टेक्नीकल साइड उसका झुकाव तो नहीं है ?
प्रिय छात्रों ! किसी भी बात को हंसी मजाक में नहीं लेना चाहिए। पूरी जांच पड़ताल के बाद ही किसी निष्कर्ष पर पहुंचना चाहिए। आखिर आप विज्ञान के छात्र है। आस्था, मान्यता और परंपरा के अंधविश्वासों से निकलकर आपको तर्क के तराजू में तौलकर ही अपनी स्थापना करनी है। सिंद्धांत ही नहीं खड़े करने हैं। प्रायोगिक स्तर पर भी खड़े होना है।
‘‘सर! एक बात पूछूं ? आप नाक में दम होने का सिद्धांत बता रहे हैं या उसका प्रयोग कर रहें है? ’’ एक छात्र ने दम-साधकर पूछा।
मैंने दो सेकेण्ड दम-भरकर उसकी तरफ देखा और कहा:‘‘ सुन्दर प्रश्न। विज्ञान के छात्रों को लगातार इन्टेरेक्शन करते रहना चाहिए। पूछ पूछ कर नाक में दम कर देना चाहिए। उत्तर अवश्य मिलेंगे। इसे हम उदाहरण से समझें। जैसा कि आपने कहा है - नाक में दम होना या करना तंत्रिकातंत्र के हिसाब से गलत है। बिल्कुल गलत है। मैं मानता हूं और आपको धन्यवाद देता हूं कि आपने इतना सोचा। मैं आपसे रवीन्द्रनाथ त्यागी की शैली में कहूं कि दम नामक वस्तु नाक नामक स्थान पर तभी होगी जब दम होगा । इसका अर्थ क्या हुआ कि दम नामक वस्तु वास्तव में मूत्र्त रूप में होती ही नहीं है। उदाहरणार्थ हम कहते हैं - सच का दम भरना सभी के दम की बात है , लेकिन सच्चा होना सबके दम में नही है। जैसे सच कोई वस्तु नहीं है, वैसे दम कोई वस्तु नहीं है।
अब हम कहते हैं नाक में दम होना या करना। इसे उदाहरण से समझाते हैं। यदि शूर्पनखा की नाक में दम ना होता तो रावण में दम कहां था कि वह सीता को चुराता?
दूसरी बात है नाक में दम करना। अगर रावणवर्गी खरदूषण व अन्य प्रतिवादी ऋषि मुनियों की नाक में दम न करते तो विश्वामित्र राम को लेकर वन में क्यों जाते ? राम में दम था इसलिए उन्होने नाक में दम करनेवालों की नाक से दम ही गायब कर दिया और क्षत्रियों की नाक ऊंची कर दी। हालांकि यह काम स्वयं विश्वामित्र का था , पर सवाल दम का है।’’
एक मेधावी छात्र ने पूछा ‘‘ सर थोड़ा कन्फ्यूजन है। यहां नाक में दम की बात भी हो रही है और अज्ञात स्थान पर रहने या होनेवाले दम की भी। ऋषियों की नाक में दम समझ में आ गया। यहां विषयांतर नहीं हुआ। लेकिन राम के दम पर प्रश्न उठता है कि वह कहां था ?’’
मैंने इसी सप्ताह धुली अपनी सफेद रूमाल निकाल ली। मेरे माथे पर गंगोत्री फूट पड़ी थी और शर्ट की बजाय रूमाल गीली करने में बुद्धिमत्ता थी। रूमाल को पतलून की जेब में ढूंसकर मैंने थूक निगलकर कहना शुरू किया:‘‘ बेटे ! क्या तुम कम्यूनिस्ट हो ?’’
लड़का सकपकाया। मैंने उसे तुरंत दिलासा का पानी पिलाकर कहा:‘‘ घबराओ मत। कम्यूनिस्ट होना बुरी बात नहीं है। दरअसल तुम्हारा प्रश्न उसी स्तर का है। अगर तुम रामकवि मैथिलीशरण गुप्त को पढ़ते तो समझ जाते कि राम के बारे में ऐसे सवाल नहीं किये जाते। तुम विज्ञान के विद्यार्थी हो इसलिए विज्ञानवादी सवाल कर रहे हो। विज्ञानवादी सवालों को प्रायः कम्यूनिस्टों के सवाल मान लिया जाता है। यहां एक बात अवश्य कहना चाहूंगा कि जब राम की बात हो तो तुलसीदास जी के बाद अगर कोई नाम याद रखना हो तो मैथिलीशरण गुप्त को खुलेआम याद रखना चाहिए। उन्होंने कहा है:‘ राम तुम्हारा चरित स्वयं ही काव्य है। कोई कवि बन जाए सहज संभाव्य है।’ उनके बाबा तुलसी कहते हैं:‘होहिहे वही जो राम रचि राखा। को करि तर्क बढ़ावै साखा।’ हमारा समाज विश्वासप्रधान समाज है। तर्क करने से नाक कटती है और आस्था से नाक सुरक्षित रहती है। कहीं कही तो ऊंची भी हो जाती है। यहां उल्लेखनीय है कि नाक कौन काटता है,जिसे तुम पहले ही भलीभंति समझ चुके हो।
जहां तक नाक ऊंची करने का सवाल है तो राम ने जीवन भर नाना प्रकार के लोगों की नाक ऊंची की। जहां जरूरत पड़ी लक्ष्मण से कहकर अनावश्यक नाक (और कान भीं ) कटवा दिए। नाक कटने से दम कम नहीं होता ; क्योंकि नाक तो परकोटा है, असली चीजें तो दो छेद हैं, जिनसे सांस अंदर बाहर आती जाती है और आदमी के फेफड़े गतिमान रहते हैं। इसी प्रकार कान काट देने से भी सुनने का मामला बंद नही होता। छेद वहां भी सलामत ही हैं। हवा नामक वस्तु , ध्वनि नामक तरंग को श्रवणीय बना देती है। यह भौतिकशास्त्र कहता है। हालांकि इसे छिद्रान्वेषण-शास्त्र के अंतर्गत लेना चाहिए।
यहां तक, इतनी नाक में दम कर देनेवाली बातें करने के बाद हम किस निष्कर्ष पर पहुंचे ? कि दम चूंकि भौतिकविज्ञान से परे पराभौतिकी का विषय लग रहा है, इसलिए इसे उसी तरह सोचता भी चाहिए।
तभी एक विदुषी छात्रा उठी और मुस्कुराकर बोली:‘‘सर! इसका मतलब है कि नाक में दम किसी एक विज्ञान या शास्त्र का विषय नहीं है। वह क्या है ? कैसा है ? कहां रहता है ? क्यों रहता है ? किसके साथ रहता है ? किसके साथ रहना पसंद नहीं करता ? किसे पकाता है ? किसके साथ पकना पसंद करता है ? सर से लेकर पांव तक और धरती से लेकर अंतरिक्ष तक , विज्ञान से लेकर पुराण तक , जुलाजी से लेकर जियोग्रफी तक, वह है भी और नहीं भी।’’
मैं पहले से ही अर्द्धमूर्छित था। मुस्कानमयी विदुषी छात्रा के घमासान प्रश्नों की बाढ़ में मेरे पैर ही उखड़ गए। मैंने हमेशा श्रद्धापूर्वक छात्राओं को विदुषी कहकर संबोधित किया है। इसके पीछे यह फिलासफी रही है कि करुणा की देवी कहलानेवाली वे दयामयी कृपाकरके मुझे बख्श देंगी। पर वे मुस्कुराती हैं और विद्वताभरे प्रश्न पूछती हैं। मैं विद्वान छात्रों की कठोरमुद्रा और विदुषी छात्राओं की मुस्कुराहटों से हमेशा भयभीत रहता हूं। सभी को रहना चाहिए।
मेरी हालत बाढ़ में बहते हुए निरीह आदमी की सी हो गई। पहली बार मुझे समझ में आया कि विश्वविद्यालय के एक अस्सी वर्षीय अवकाशप्राप्त विभागाध्यक्ष केन्द्रीय मुल्यांकन मे जाते समय कधे पर तौलिया क्यों रखते हैं। मेरी जेब में रूमाल थी जो पहले ही गीली हो गई थी। आज मुझे अपनी अदूरदर्शिता का पछतावा हुआ। मुझे ना सही कंधे पर, किन्तु बैग में तोलिया या नैपकिन लेकर चलना चाहिए। प्रश्नों की बारिश कभी कभी साइक्लोन भी हो सकती है।
फिर भी मैंने जेब में हाथ डाला कि कुछ तो राहत मिलेगी। राहत मिली। देवदूत की तरह प्यून ने स्विच दबाकर पीरियड समाप्त होने की घंटी बजा दी। मैंने थूक निगलकर कहा:‘‘ मेरे प्रिय छात्रों और छात्राओं ! यदि कल तक दुनिया शेष रही तो हम नाक में दम पर फिर बात करेंगे।’’
ऐसा कहकर मैं अपनी बेदम नाक पोंछता हुआ कक्ष से बाहर निकल आया।

नोट : शिफ्टंग पेन लिफ्टिंग दम

मेरे एक मित्र अभी अभी डाक्टर से मिलकर आये हैं। उनका दम फूल रहा था। ऐसा लग रहा था जैसे दम निकल जायेगा। उनकी छाती में दम जैसे रह ही नहीं गया था। सांस खींच खींचकर उनकी नाक मेंदम हो गया था। दम था कि फिर भी फूल रहा था। किसी किसी की छाती फूलकर कुप्पा हो जाती है। पर वह खुषी में फूलना होता है। ये दमा से फूल और पिचक रहे थे। वे दोनों हाथों में दम लगाकर अपने को तानकर रखे हुए थे ताकि उनके दमाग्रस्त फेफड़े ठीक से फूल और पिचक सकें। उनका दम कभी नाक में होता था ,फेफड़ों पर तो कभी हाथों में।
दम एक प्रकार की चंचला टाइप की चीज़ है। जैसे लक्ष्मी होती है। जैसे कोई कुलच्छिनी होती है। जैसे कोई मनचला होता है। जैसे कोई लम्पट होता है। उसकी तुलना शिफ्टिंग पेन से की जा सकती है। वह कभी कंधे पर होता है कभी पीठ पर ं कभी दाएं होता है कभी बाएं। कभी सर में तो कभी माथे में। कभी दिल में तो कभी जिगर में। एक शायर ने इस शिफ्टिंग पेन को यूं चित्रित किया है -
सर से सीने में कभी पैर से पांवों में कभी
एक जगह हो ता कहें दर्द इधर होता है।।
दम भी उसी के परिवार का लगता है। किसी की आंख में दम होता है किसी की नाक में , किसी के होठों में दम होता है किसी की जुल्फों में, किसी के हाथ में दम होता है किसी के हस्ताक्षर में। किसी की जेब में दम होता है किसी के टेलीफोन में। किसी की बात में दम होता है तो किसी के लात मे। इसी से एक मुहावरा भी बना - लातों के भूत बातों से नहीं मानते।
कहने का मतलब यह है मित्रों कि दम बहुरूपिा भी है और बंजारा भी। वह जगह बदलता रहता है और अपने औजार बनाता रहता है। जिसे जिससे मतलब होता है वह वहां दम लगा देता है। आप अपनी प्रतिभा और पसंद से दम के दर्शन कर लें। मरे सामने चाय की प्याली आ गई है। मुलेठी इलायची लौंग सौंठ काली मिर्च तुलसी आदि इत्यादि के बने हुए पावडर की मसालेवाली चाय में दम है। इतना दम कि वह मुझे अपनी जगह से लिफ्ट करा देती है और मैं दीवान पर पालथी मारकर चाय की चुश्कियां लेने लगता हूं। ओके ..दम दमादम!!


दिनांक 19.04.10/3.5.10

Comments

kshama said…
Hansaate hansaate aapne naak me dam kar diya!
अच्छी लगी आपकी ये नाक में दम करने वाली पोस्ट, वाकई नाक में दम हो गया पढ़ते पढ़ते. अभी किसी और ब्लॉग पर भी किसी और मुहावरे चर्चा सरसरी निगाह से देखी.क्या मुहावरे का सीज़न आ गया है यदि हाँ तो फिर नाक में दम हा .......हा....
आपकी पोस्ट में केमिकल लोचा भी दिखा अच्छा लगा!!!!!!!!1 इसी लोचे कि झलक मेरी कविता में भी जरुर देखें
http://rachanaravindra.blogspot.com/2010/03/blog-post.html
कैमिस्ट्री की कक्षा में मेरी कैमिस्ट्री ठीक रहती है। गणित और जूलाजी , फिजिक्स और वनस्पति के सभी केमिकल एक ही बीकर में मिल जाते हैं। मैं अपने पिपेट से बूंद बूंद एसिड टपकाता हूं। वे बीकर में अपने अंदर के ज्ञान-क्षार को संतृप्त होते महसूस करते हैं। एक दूसरे की सांद्रता का मजे़ से पता चलता रहता है।

मेरे अंदर आनंद की रासायनिक क्रिया शुरू हो गई। छात्र के सवाल में उत्प्रेरक के रूप में विविध क्रिस्टल पड़ गए थे। मैमेल पूछ रहा था हिन्दी का मुहावरा। कक्षा थी कैमिस्ट्री की। उसका आग्रह था भौतिकशास्त्र की फोटोमेट्री यानी प्रकाशमिति से संबंधित। कह रहा था ‘प्रकाश डालें।’ मेरा मन बाटनीकल गार्डन हो गया।

शिफ्टंग पेन लिफ्टिंग दम
वे दोनों हाथों में दम लगाकर अपने को तानकर रखे हुए थे ताकि उनके दमाग्रस्त फेफड़े ठीक से फूल और पिचक सकें। उनका दम कभी नाक में होता था ,फेफड़ों पर तो कभी हाथों में।


डाॅ. साहब प्रणाम !!
आप जिस तरह चुनचुनकर बाल की खाल निकाल रहे हैं वह दम साधकर पढ़ने की बाध्यता बना ही देता है।
ज्ञान की बाते प्रायः बोझिल करती है इसीलिए खेल खेल में , मजाक मजाक में आप पूरा पीरियड ले गए वाह!! बधाई
Kumar Koutuhal said…
सम्मोहित कक्षा में सन्नाटा खिंच आया। वे जानते थे कि जब जब मैं ऐसा कहता हूं तो विवेकानंद की तरह एक नई कैलीफोर्निया की नींव रखता हूं। जाहिर है ,सम्मोहन की यह कला मैंने पहले विवेकानंद से और बाद में ओशो’ से सीखी। विवेकानंद प्लेन ‘भाइयों और बहनों!’ में निपटा देते हैं। ओशो ‘मेरे प्रिय आत्मन!’ कहकर उसमें क्रीमी लेयर डाल देते हैं।

मैं विद्वान छात्रों की कठोरमुद्रा और विदुषी छात्राओं की मुस्कुराहटों से हमेशा भयभीत रहता हूं। सभी को रहना चाहिए।

किसी की आंख में दम होता है किसी की नाक में , किसी के होठों में दम होता है किसी की जुल्फों में, किसी के हाथ में दम होता है किसी के हस्ताक्षर में। किसी की जेब में दम होता है किसी के टेलीफोन में। किसी की बात में दम होता है तो किसी के लात मे। इसी से एक मुहावरा भी बना - लातों के भूत बातों से नहीं मानते।

आप व्यंग्य और हास परिहास की टीम के कैप्टन की तरह फील्ड की हर गतिविधि पर नजर रखे हुए हैं। ज्ञान भी, विज्ञान भी, दर्शन भी, भाषाविज्ञान भी।
और कमाल यह कि सबके बावजूद विषयांतर न हो जाए इसका भी ध्यान ..क्या बात है । वंदन गुरुदेव!!
जनाब डा. साहब, आदाब
हास्य-व्यंग्य की विधा आसान नहीं होती.
आपकी लेखनी में वो जादू है, जो पाठकों को बांधे रखता है.
यही आपके इस विधा में पारंगत होने का प्रमाण है.
बहुत दिनों बाद पधारे भाईसा....
एक और अच्छा व्यंग्य...
Dr.R.Ramkumar said…
मित्रों आभार!
बस प्रयासरत हूं। आपकी टिप्पाणिया सार्थक बनाती हैं।
धन्यवाद!!
Divya Narmada said…
achchha prayas.
divyanarmada.blogspot.com

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