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वनस्पतियों का सौदर्यशास्त्र

उर्फ रसिक पुष्पवृक्ष और रस-केन्द्र सुन्दरियां

हमारे आंगन में फूले गुलाब और इठलाते डहलियों की कई प्रजातियां दूर से लोगों को आकर्षित करती रही हैं। पीले डहलिया भ्रमणार्थी रमणियों को विचलित कर देती और वे गुलाब के भ्रम में उन्हें देखने आ जाया करती। हमारे पड़ोस में एक नमकमिर्ची-पूर्णा थी। वह जुबान की काली थी। अगर वह आपके स्वास्थ्य की तारीफ कर दे तो आप बीमार पड़ जाएं। हमारे आंगन और बाड़ी में पत्नी अभिरुचि और प्रेम के कारण लहराते हुए गुलाब ,डहलिया ,सेवंती, गेंदे ,अनार ,अंगूर , चीकू , पालक , मैथी , बड़ी तुअर आदि की वह ‘मुंह में कुछ और दिल में कुछ’ के अंदाज में तारीफ करके उन्हें नज़र लगा चुकी है। उसकी तारीफ़ों से पत्नी को आजकल भय होने लगा है। हमेशा खिली रहनेवाली फुलवारी आजकल उदास हो गई है।
एक दिन पड़ोसन आई और झूठी सहानुभूति जताते हुए बोली:‘‘ अरे तुम्हारे आंगन को क्या हो गया भाभी ?’’ तो भरी बैठी पत्नी ने दुखी स्वर में कहा-‘‘ पता नहीं किस डायन की नजर लग कई पुन्नो ! कुछ दिनों से पनप ही नहीं रही हैं।’’ पड़ोसन समझ गई कि पोल खुल चुकी है। अब पड़ोसन नहीं आती और पत्नी नये सिरे से बगिया की संभाल में लग गई है।
पहले मुझे इस तरह की बातों पर यकीन नहीं होता था और लगता था कि यह सब बोड़मबत्तीसी है। पर उस दिन बच्ची ने कोई फिल्म देखी थी और मुझे बताया था:‘‘ पता है पापा ! जापान या हांगकांग में कहीं पेड़ काटते नहीं ।’’
‘‘गुड वेरी गुड, इकोलाजी के महत्त्व का ज्ञान है उन्हें।’’ मैंने पर्यावरण प्रेम प्रदर्शित करते हुए कहा।
‘‘ आंहां.. नहीं ! दरअसल वे जिस पेड़ के आसपास इकट्ठे होकर उसे बहुत भला बुरा कहते हैं। सुबह तक वह पेड़ अपने-आप सूख जाता है।’’ बच्ची ने कहा।
मैं दंग रह गया। चुप्पी लगी रह गई मुझे। मैं सोच के भूंसे में धंस गया था और सच्चाई की सूई को ढूंढने लग गया था। बच्ची ने चाइल्ड साइकोलाजी कीे अंधी परत को खोलने की पहल की थी। किसी बच्चों की फिल्म से उसने यह संवाद या सूत्र सुना था और बड़ों के द्वारा कमजोर बच्चों को दिए जानेवाले उलाहनों को इस तरह खारिज किया था। वह कहना चाहती थी कि जब पेड़ पौधे गाली दिये जाने से सूख जाते हैं तो बच्चे , जिन्हें ईश्वर ने शायद वनस्पतियों से ज्यादा संवेदनशाील बनाया हैं , उन पर आपके दुव्र्यवहार का कितना बुरा असर होता होगा ? यह आशय है इस सूत्र का।
अभिभावको को बच्चों की परवरिस की तालीम थी इसमें। ‘‘मैंने यथासंभव बच्चों को प्यार से रखा है और उन्हें अपनी बात कहने की आजादी बख्शी है ,इस ‘‘आत्म-आश्वासन’’ के साथ मैं वनस्पतियों की संवेदनशीलता की ओर उन्मुख हो गया था।
वनस्पतियों से बातें करने और वनस्पतियों को सुनाने के कई टोटकों , औषधिविज्ञान में उसके घटित चमत्कारों और विश्वासों की चर्चा मैं कई बार कर चुका हूं। इस बार मैं सुन्दरियों के कमाल को खंगालकर आया हूं।
जिस औरत की ब्याजस्तुति से वनस्पतियां मर जाती हैं ,मैं उस खड़ूस औरत की तरफ से अपना ध्यान खींचकर उन सुन्दरियों की ओर खिंच आया हूं जिन्हें कुछ वनस्पतिमिजाज शायर ‘ फूलों की रानी’ और ‘बहारों की मलिका’ कहा करते हैं। स्त्रियों को हम सहजाकर्षण का केन्द्र कहा करते हैं। दबे छुपे उनके अनिन्द्य सौन्दर्य का ध्यान और रूपपान किया करते हैं। किन्तु यह लम्पटपना नहीं है। लुच्चई भी नहीं है। कुदरत ने हमारे जीवन को सौन्दर्य का वरदान स्त्रियों के रूप में ही दिया है।
क्षमा करें ,यह मैं नहीं कह रहा , हमारे बुजुर्ग कहा करते हैं। आपको याद होगी यह कहावत ‘बिन घरनी घर भूत का डेरा।’ यह तो मैंने नहीं कहा। ‘‘यस्य नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवताः’’ यह भी संस्कृत की सुभाषित है। नारियों को सम्मान देने और उनकी देखभाल के कोमल सिद्धांत सैकड़ों हैं। उन्हें प्रकृति ने कोमल बनाया है मगर उनके बिना प्रकृति का गुजारा नहीं है। स्त्रियों की सुरक्षा के लिए पुरुष रूपी स्तम्भ भी हैं। मैंने सुना है स्त्रियां बेलाएं हैं और पुरुष तना है , जिसपर चढ़कर वह आकाश को छूती है। मैंने यह भी सुना है कि प्रत्येक सफल पुरुष के पीछे एक महिला है। इसलिए ‘भिक्षुक-कवि’ निराला वर मांगते हैं, ‘वर दे वीणावादिनी वरदे!’
प्रकृति की फुलवारी भी स्त्रियों से ही खिली खिली है। संस्कृत के कवि राजशेखर अपनी कृति काव्यमीमांसा के तेरहवें अध्याय में प्रकृति के पुष्पवति होने के लिए अनेक साक्ष्य प्रस्तुत करते हैं-
कुरबक कुचाघात क्र्रीड़ारसेन वियुज्यसे
बकुलविटपिन् स्मर्तव्यं ते मुखासव सेचनम्
चरणघटनाशून्यो यस्यस्य अशोक सशोकताम्
इतिनिजपुरत्यागे यस्य द्विषां जगदुः स्त्रियः।।
- अर्थात् कुरबक झकुचाघात और क्र्रीडा़रस से ; बकुल मुखासव के सिंचन से , कुल्ला करके पुलकने से , जिसके पास कोई नहीं जाता ऐसा अशोक ,संसार की ऐसी स्त्रियों के चरणस्पर्श से पुष्पित हो जाता है जिन्होंने अपना घर त्याग दिया है।क्ष् शायद इसीलिए कि अशोक खिल उठे, रावण ने घर से बिलगाकर सीता को अशोकवाटिका में रखा था और फलस्वरूप हनुमान ने उसमें लाल-लाल फूल देखे थे ...‘जनु अशोक अंगार’...
मुखमदिरया पादन्यासैर्विलास विलोकितैः
बकुलविटपी रक्ताशोकस्तथ तिलकद्रुमः।।
जलनिधि तटीकांताराणां क्रमात्ककुभां जये
झटितिगमिता यद्वग्र्याभिर्विकासमहोत्सवः
-अर्थात् बकुल ,रक्त-अशोक ,तिलकद्रुम क्रमशः मुखमदिरा , पादन्यास व विलासावलोकन से ,झटितगामिनी स्त्रियों के कारण समुद्र के किनारे की शोभायमान झााड़ियां पुष्पवति हो जाती हैं।
आलिंगितः कुरबकस्तिलको न दुष्टो
नो ताडितश्च सुदृशां चरणैः अशोकः
सिक्तो न वक्त्रमधुना बकुलश्च
चैत्रे चित्रं तथापि भवति प्रसवाकीर्णः ।
-‘तथापि भवति’ अर्थात् समय न होने पर भी आलिंगन ,स्पर्श , अवलोकन ,मधुरसंभाषण से ही क्रमशः कुरबक , तिलक ,अशोक ,बकुल दोहद प्राप्त करते हैं । शब्दशः कहें तो प्रसवाकीर्ण हो जाते हैं। दोहद का अर्थ पुष्पित होना या फलोत्सुक होना है, अन्य शब्दों में कहें तो उम्मीद से होना है।
यह संस्कृत साहित्य है जो वनस्पतियों को आश्रय बनाकर स्त्रियों के द्वारा समाज को सुन्दरता के देय का बखान कर रहा है। मगर हिन्दी साहित्य को भी पीछे नहीं रहने दिया गया है। ‘हिन्दी साहित्य की भूमिका’ में पं. हजारीप्रसाद द्विवेदी , कवि-प्रसिद्धियांे के माध्यम से ऐसे ही रसिक-पौधों और वनस्पतियों का अनुसंधान करते हैं जो आशिक मिज़ाज़ पुरुषों की भांति सुन्दरियों को देखते ही या स्पर्श पाकर या अन्यान्य स्त्री-संसर्ग से खिल उठते हैं। मैं संकल्पवान और दृढ़-प्रतिज्ञ परुष-पुरुषों से केवल निवेदन ही कर सकता हूं कि ज़रा प्रकृति और स्त्रियों के अतर्संबंधों का अनुसंधान मात्र तो करके देखें । अनुसंधान करते रहना चाहिए क्योंकि राजशेखर काव्यमीमांसा के अधिकारी की ‘मूल-अर्हता’ अनुसंधान ही मानते हैं। वे कहते हैं, ‘जो कवि अनुसंधान नहीं करता उसके गुण भी दोष हो जाते हैं और जो सावधान रहता है उसके दोष भी गुण हो जाते हैं।’ तो सावधान होकर सुन्दरियों के वानस्पतिक-अवदान का अनुसंधान करें। साहित्य के अवगाहन और निमज्जन के पश्चात् हजारीप्रसाद जी ने कुछ अनुसंधान- अवदान दिए हैं ,जिन पर मैंने अपनी आदत के अनुसार तड़का लगाए हैं। आप भी ज़रा उनपर गौर फर्माएं और स्त्री विमर्श की इक्कीसवीं सदी में स्त्रियों के महत्त्व को समझते हुए ,उनके पास उस-उस उद्देश्य से जाएं।
1. प्रत्येक संभ्रांत महापुरुष के भवन के द्वार के अभिरक्षक ‘अशोक’ का स्त्री-प्रेम देखिए कि वह सुन्दरियों के पदाघात से ,उनके लात खाकर खिल जाता है, उसमें पुष्प आ जाते हैं।
2. कर्णिकार जिसे अमलतास या आरग्वध भी कहते हैं ,वह थोड़ा सामन्ती किस्म का है। उस विलास-वैभवी कर्णिकार (अमलतास) के आगे अगर स्त्रियां नृत्य करें तो वह पुष्पित हो जाता है।
3. कुरबक जो झिंटी,कटसरैया या पियावासा के नाम से जाना जाता है ,वह जरा ज्यादा लोभी है। उस व्यभिचारी वृक्ष का यदि स्त्रियां आलिंगन करें तो वह पुष्पित हो जाता है।
4. चंपक अथवा चंपा नाम का सुन्दर और कोमल पौधा ,जो नामधारियों ,शीर्षककारों और संवादशिल्पियों की प्रायः पसन्द है , अपेक्षाकृत शालीन और संस्कारित-श्रेणी का है। यह शिष्ट चंपा रमणियों के पटुमृदुहास से ,दबी छुपी मुस्कान से ही पुष्पित हो जाता है।
5. तिलक या पुन्नाग नाम का यह वृक्ष इतना शर्मिला और संवेदनशील है कि सुन्दरियों के वीक्षणमात्र से ,केवल नजर पड़ने से कुसुमित हो जाता है। दूसरे शब्दों में , प्रथम दृष्टिपात से ही इसे कुछ-कुछ हो जाता है।
6. नमेरु या सुरपुन्नाग नाम का यह वृक्ष ,जैसा कि नाम से ही स्पष्ट है ‘सुर’ का प्रेमी है, संगीत का शौकीन है। सुन्दरियां यदि इसके आगे बैठकर गाएं तो वह खिल जाता है।
7. प्रियंगु नाम का यह वृक्ष मन ही मन पता नहीं कैसे कैसे ख्यालों में खोया रहता है कि स्त्रियों के स्पर्शमात्र से विकसित हो उठता है। छुआ लगते ही मस्त हो जाता है। प्रियंगु नाम ही है उसका। प्रिया के अंग लगने की तड़प लिए वह दुनिया में जैसे आया है।
8. मंदार पौधा जिसे अंग्रजी में कोरल ट्री कहते हैं ,बड़ा भोला-भाला और सीधा-सादा है। यह रमणियों के नर्मवाक्य से ,ज़रा-सा मीठा-मीठा बोलने से पुष्पित हो जाता है। इसीलिए तो औघड़- बड़दानी आशुतोष भोलेनाथ का यह प्रिय है। ‘मंदारमाला कुलतालकाये’ यही है। इसे ही अर्क और धत्तूर कहते हैं। धत्तूर और धतूरा में जातिसाम्य हो सकता है ,मगर है दोनों अलग।
9. सहकार ,रसाल और आम तो रसों का राजा है। विश्व में उसके स्वाद और रस का डंका पीटा जाता है। यह सफल और कूटनीतिज्ञ जानते हैं किससे कान फुंकवाता है। हर सम्राटृ की भांति इसके कान भी स्त्री ही फूंकती है। कवि प्रसिद्धि है कि सुन्दरियों के मुंह की हवा पाकर सहकार तरु या आम का वृक्ष कुसुमित हो जाता है। पता नहीं एसे क्या पट्टी पढ़ाती हैं कि केवल मुंह की हवा से वह फूल जातस है ! वैसे आम स्वनामधन्य वृक्ष है। अर्थात् आम लोगों का वृक्ष। एकअमराई का भी समय था जब पुरुष स्त्रियों के लिए आम के पेड़ की टहनियों से झूला बांधते थे और अमराई खिलखिला उठती थी। आम पुरुष भी है और स्त्री भी। अर्द्धनारीश्वर है यह। वृक्ष भी है और लता भी। मेरे उपवन में जो नारीरूप बड़ी बड़ी पत्तियोंवाला आम्र-गुल्म है ,उसकी बेलाकार टहनियों और तने को सहारा देने के लिए हमें मोटी बल्ली का उपयोग करना पड़ा। कालिदास के सामने भी यही समस्या आई होगी ,तभी उनके नाटकों में सहकार-लता का वर्णन मिलता है।
10. बकुल या वकुल ,जिसे मौलसिरी (मौलश्री) भी कहते हैं ,ज़रा शरारत पसन्द है। पंडितजी बताते हैं कि सुन्दरियों की मुखमदिरा से सिंचकर बकुल पुष्प कुसुमित हो जाता है। वे जरा शिष्टता से कहते हैं। दरअसल स्त्रियां अगर कुल्ला करके इसके ऊपर पुलक (थूक) दें तो यह ‘पुलकित’ हो जाता है, खिल जाता है। किसी फिल्म में नायक ने पानी पीकर किसी नायिका पर पुलका (थूका) था और पैसा कमाने की दृष्टि से आयोजकों के कहने से उस काम को कई कई बार स्टेज शो आयोजित कर लड़कियों पर किया गया था। टीवी देखने वाली स्त्रियां चिल्लाती थीं ‘छीः’। भई ये अंदाज़ बेचने के लिए थोड़े हैं। यह तो सहज-सगाई है। एक फिल्म में भी एक प्रसिद्ध नायक की बेटी को नायिका बनाने के लिए यही टोटका आजमाया गया था। मगर सब व्यर्थ। सुना है दोनों फिल्में फलाप हो गईं। इसलिए सावधान ,भावनाओं के मक्खन को बाजार में मत बेचो। वह खट्टा हो जाएगा। फूल हमारी भावनाओं के पुष्प हैं और स्त्रियां इस फुलवारी की मालिन। दोनों के नम्र और शालीन उपादान का हमें सम्मान करना चाहिए और सुगंधित हो सकने का प्रयास करना चाहिए।
इति सुमन-सुन्दरी वार्ता ।
221109

Comments

साहित्य का बहुत जानकार तो नहीं पर यह पोस्ट पढ़कर बहुत अच्छा लगा । बहुत ही सुन्दर पोस्ट ।
Anonymous said…
बेहतर सुमन-सुन्दरी आख्यान...
बहुत सार्थक लेख है. एक अच्छा शोध कार्य दिख रहा है. बधाई स्वीकारें इस सुंदर प्रस्तुती पर
Kumar Koutuhal said…
प्रियंगु नाम का यह वृक्ष मन ही मन पता नहीं कैसे कैसे ख्यालों में खोया रहता है कि स्त्रियों के स्पर्शमात्र से विकसित हो उठता है। छुआ लगते ही मस्त हो जाता है। प्रियंगु नाम ही है उसका। प्रिया के अंग लगने की तड़प लिए वह दुनिया में जैसे आया है।

sir, The total compilation is extra ordinary.your dipiction and analysis is systemetic and sublimed.How easily you go into the deep of the matter and put it on the table in proper purified way.
Admirable,hatsoff!
kumar zahid said…
1. प्रत्येक संभ्रांत महापुरुष के भवन के द्वार के अभिरक्षक ‘अशोक’ का स्त्री-प्रेम देखिए कि वह सुन्दरियों के पदाघात से ,उनके लात खाकर खिल जाता है, उसमें पुष्प आ जाते हैं।
3. कुरबक जो झिंटी,कटसरैया या पियावासा के नाम से जाना जाता है ,वह जरा ज्यादा लोभी है। उस व्यभिचारी वृक्ष का यदि स्त्रियां आलिंगन करें तो वह पुष्पित हो जाता है।

वाह!
वाह!
हर नुक़्ते पर आपकी जो छौंक है वह लजीज़ और लाजवाब है। बहुत हैरानी होती है कि जिन चीज़ों पर आमतौर पर कोई तवज्जों नही करता उस पर आप इतनी अज़ीज़ी के साथ गौर फर्माते हैं। खुसुसियत पैदा करना कोई आप से सीखे। सलाम हुज़ूर।
बहुत सुंदर आलेख।
एकदम ललित निबंध की तरह।
बधाई स्वीकारें।

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तोता उड़ गया

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