गुरुपूर्णिमा दिवस की हार्दिक शुभकामनाएं! संस्कृत ग्रंथों में एक श्लोक प्रसिद्ध है- अज्ञान तिमिरान्धस्य ज्ञानाञ्जन शलाकया। चक्षुरुन्मीलितं येन तस्मै श्री गुरवे नमः॥ *शब्दार्थ*: अज्ञान के अंधे-अंधेरे से बंद आंखों (चक्षुओं) को ज्ञान अंजन युक्त शलाका से जो खोलता है, उस गुरु को नमन! भावार्थ : एक परम्परा सिखाती है, शिक्षित और दीक्षित करती है कि आंख मूंदक तथाकथित गुरुओं पर भरोसा कर लो और वही करो जो वह कहता है, वही देखो जो वह दिखाता है। इसका लाभ स्वार्थी और पाखंडी गुरुओं को बहुत होता है। किंतु एक परम्परा वह भी है जहां व्यक्ति को तार्किक बनाया जाता है, वैज्ञानिक दृष्टि जिसे दी जाती है और जिसे आंख मूंदकर भरोसा करने की न शिक्षा दी जाती, न दीक्षा। इस परंपरा के गुरु आंख खुली रखकर दुनिया का अध्ययन, सत्य का परीक्षण करने के लिए निरन्तर सचेत करते हैं। वास्तव में ऐसे ही आंख खोलकर जीने का ज्ञान और विवेक का अभ्यास कराने वाले मार्गदर्शक अथवा गुरु को ही नमन है। तस्मै श्री गुरुवै नमः का यही अर्थ है- *उ...
एक चतुष्पदी , (चौपड़, चौसर)...तीसरी पंक्ति के मुक्त होने से- मुक्तक , टुकड़ा या क़ता (क़िता) और पूरी ग़ज़ल ० जहां कोई भी थी न रहगुज़र, मैं वहां वहां भी गुज़र गया। मिले हर तरफ़ खंढर क़िले, मैं जहां गया, मैं जिधर गया। बड़ा अजनबी ये सफ़र रहा,थी मुसाफ़िरों की ज़ुबां क़लम, रहा देखता, जो गया, गया, गईं बस्तियां, वो शहर गया। @ कुमार, २८-३० मई २५ 0 और ये ग़ज़ल , (छन्द पूर्णिका, निपुणिका, बहरे कामिल मुसम्मन सालिम, रुक्न- मुतफ़ाइलुन) ० जहां कोई भी थी न रहगुज़र, मैं वहां वहां भी गुज़र गया। मिले हर तरफ़ खंढर मुझे, मैं जहां गया, मैं जिधर गया। बड़ा अजनबी ये सफ़र रहा, थी मुसाफ़िरों की ज़ुबां क़लम, रहा देखता, जो गया, गया, गईं बस्तियां, वो शहर गया। जो भी सोचता,जो भी बोलता,कहा ख़ुद से,ख़ुद ने सुना किया, मैं रहा ख़ुदी से ख़ुदा तलब, मेरा हर असर मेरे सर गया। मेरी आरज़ू थीं मुहब्बतें, मुझे हर क़दम मिली नफ़रतें, मेरी चाहतें हुईं चाक ...