एक हिंदुस्तानी गीत जिसकी लाठी भैंस उसी की, है ज़मीन बलवान की। देखी जाती नहीं है मुझसे, हालत हिंदुस्तान की। मंचों पर जो चल निकले वो, कविता चोरी हो जाए। और पकड़ में आ जाए तो सीनाज़ोरी हो जाए।। आज अभी की बात नहीं यह सदियों से होता आया। हमने कविता की लाशों पर कवियों को रोता पाया।। गोद नहीं लेता है कोई, गुप्त अपहरण करता है। दुल्हन को कुछ पता न चलता कौन संवरण करता है।। ऐसे चलती है क्या दुनिया? यही तुम्हारी निष्ठा है? यही कीर्ति कहलाती है क्या? यह सम्मान प्रतिष्ठा है? चिंता नहीं किसी को कोई, अपने स्वाभिमान की। देखी जाती नहीं है मुझसे, हालत हिंदुस्तान की। रूप रंग संभ्रांत, शिष्ट है, कोमल मीठी वाणी है। कौन देखकर नहीं कहेगा सम्मुख सज्जन-प्राणी है। आंख मूंदकर उस पर किसका, नहीं भरोसा हो जाए। वही आंख का काजल चोरी करके चंपत हो जाए। चेहरा पढ़ लेने का दावा करने वाले हार गए। माथे लिखा नहीं पढ़ पाए, पढ़े ग्रंथ बेकार गए। जीवन एक सराय है लेकिन अनुभव यही बताता है। सच्चा राही वही जो भोजन, स्वयं पकाकर खाता है। क्योंकि हमें ही रक्षा करनी, है अपने सामान की। देखी जाती नहीं है मुझसे, हालत हिंदुस्तान की। हिंस
महाप्राण निराला हिंदी साहित्य के काल-विभाजन में छायावाद एक युगीन पड़ाव है। इस युग की प्रतिभा चतुष्टयी में आयु-क्रम से प्रसाद, निराला, पंत और महादेवी ये चारों अपनी अपनी नितांत भिन्न प्रवृत्तियों के लिए जाने जाते हैं। प्रसाद अपने इतिहास बोध के लिए, निराला अपने प्रखर यथार्थ बोध के लिए, पंत अपने प्रकृति प्रेम और महादेवी करुणा की अभिव्यक्ति के लिये। प्रतिभा का द्रवीकरण नहीं होता इसलिए उनका यौगिक नहीं बनता। एक मिश्रण की तरह किसी काल-पात्र में रहकर भी अपने वस्तु-स्वरूप, विचार-रंग और ध्येय-आस्वाद के कारण वे अलग से पहचान में आ जाती हैं। आज की तिथि/तारीख 15 अक्टूबर को निराला जी की मृत्यु हुई थी। यह एक प्रसंग हो सकता है कि उनकी याद की जाए, उनकी रचनाओं की चर्चा की जाए। लेकिन जिनकी प्रतिभा, लेखन और वैचारिकी ने अपने युग में रचनात्मक क्रांति की है, वे क्या किसी दिन, दिनांक या प्रसंग की प्रतीक्षा करते हैं? न जाने कब कब और किस किस प्रसंग में वे याद आते ही रहते हैं। जीवन सभी के सरल नहीं है, सबके लिए दुष्कर और कठिन है। यह बात अलग है कि जीवन को बहुमूल्य मानकर संघर्षों को महत्त