'धरती_की_सतह_पर' खड़ा ज़मीनी कवि : अदम_गोंडवी आज, 22 अक्टूबर को मानवता के दर्द और माटी की बू-बास के कवि अदम गोंडवी की जयंती है। उनके पहले हिंदी ग़ज़ल संग्रह 'धरती की सतह पर' से उनकी एक ग़ज़ल उन्हीं को समर्पित इन शब्दों के साथ- साहित्य और वैचारिक विमर्शों के पाखंडों और वादों की संकीर्णता पर उनकी पैनी तुतारी भी बेमुरव्वत चली। एक साहित्यिक के दायित्वबोध के अंतर्गत वे मानवता के दर्द, माटी की बू और कालखंड के इतिहास को पाठ्यक्रम के रूप में नियोजित करते रहे। उन्होंने उपेक्षितों और दलितों की करुणा के साथ मुद्राराक्षस और रैदास के साथ स्वर से स्वर मिलाकर लिखने को कवि की निष्ठा और वैचारिक ईमानदारी को मानदंड बनाया। प्रेमचंद और ओशो के अंतर को स्पष्ट करते हुए परम्परा पोषकों और परम्परा भंजकों के बीच की विभाजक रेखा को चिंहित किया। लगे हाथ उन्होंने कामी और भोगी कवियों की भी खिंचाई की है और उनके द्वारा मांसल-प्रेम को शाश्वत सत्य बताकर, श्रृंगार की कविताओं को सार्थक कहकर, पाठकों के प्रति अपने उत्तरदायित्व की उपेक्षाकर, मूल्यहीन लोकप्रियता के पीछे भागने के भोगवाद पर तीखा व्यंग्य किया।
एक हिंदुस्तानी गीत जिसकी लाठी भैंस उसी की, है ज़मीन बलवान की। देखी जाती नहीं है मुझसे, हालत हिंदुस्तान की। मंचों पर जो चल निकले वो, कविता चोरी हो जाए। और पकड़ में आ जाए तो सीनाज़ोरी हो जाए।। आज अभी की बात नहीं यह सदियों से होता आया। हमने कविता की लाशों पर कवियों को रोता पाया।। गोद नहीं लेता है कोई, गुप्त अपहरण करता है। दुल्हन को कुछ पता न चलता कौन संवरण करता है।। ऐसे चलती है क्या दुनिया? यही तुम्हारी निष्ठा है? यही कीर्ति कहलाती है क्या? यह सम्मान प्रतिष्ठा है? चिंता नहीं किसी को कोई, अपने स्वाभिमान की। देखी जाती नहीं है मुझसे, हालत हिंदुस्तान की। रूप रंग संभ्रांत, शिष्ट है, कोमल मीठी वाणी है। कौन देखकर नहीं कहेगा सम्मुख सज्जन-प्राणी है। आंख मूंदकर उस पर किसका, नहीं भरोसा हो जाए। वही आंख का काजल चोरी करके चंपत हो जाए। चेहरा पढ़ लेने का दावा करने वाले हार गए। माथे लिखा नहीं पढ़ पाए, पढ़े ग्रंथ बेकार गए। जीवन एक सराय है लेकिन अनुभव यही बताता है। सच्चा राही वही जो भोजन, स्वयं पकाकर खाता है। क्योंकि हमें ही रक्षा करनी, है अपने सामान की। देखी जाती नहीं है मुझसे, हालत हिंदुस्तान की। हिंस