कटोगे तो विकास करोगे! जंगल से जल ज़मीन छीन खोद खदानें, शेरों को सब्ज़ बाग़ दिखाती है सियासत। बंदूक फेंक दी है निहत्थे हुए हैं फिर, मज़बूर मुल्क में हुई बे-दख़्ल बग़ाबत। @ कुमार,०६.११.२५, गुरुवार, ०८०९ जंगल से कटे तो मिले शहरों के क़त्लगाह, वनवासी कभी शेर थे अब बैल बनेंगे। ख़ूँखार ज़िंदगी की कलाबाज़ियाँ गईं, चालाकियाँ के देश में ये खेल बनेंगे। @ कुमार, ०७.११.२५, शुक्रवार, ०७.३९ काटें ज़मीन से तुम्हें आकाश बनाएं। सूरज के, चांद तारों के सपनों से सजाएं। तुम पैर की जूती हो तुम्हें ऐसे उछालें, यूं मुफ़्त में दुनिया की तुम्हें सैर कराएं। @ कुमार, ०७.११.२५, शुक्रवार, ०७.५१
मिट्टी मेरे गॉंव की मचल रही है बहुत दिनों से पनहीँ मेरे पांव की। शायद मुझको बुला रही है मिट्टी मेरे गॉंव की।। आंगन में जलते दीपक का सुबह शाम यह काम था। आये-जाये कोई सबसे लेता खरा प्रणाम था। घर मेरा, आंगन मेरा था बेशक चौरा मेरा, लेकिन सबकी अपनी थी वह तुलसी मेरे गाँव की। नित सुख दुःख की सभा बनी थी, मौलशिरी की छांव घनी। आम, नीम, जामुन की छाया, कड़ी धूप में ठाँव बनी। इन चारों से चौपालें अब पंचायत क्या बन पातीं, बनी रसीली पंच पांचवीं इमली मेरे गाँव की। अमराई की ठंडी-ठंडी याद बसी मन में अब भी। रोक सकेंगे मुझको आख़िर नगरों के झंझट कब तक। बुला रहीं हैं जाने कब से यादों की दादी नानी, हाट, बाट, नदिया तट, पनघट, चक्की मेरे गॉंव की। मन में बढ़ता सन्नाटा है, बाहर इतनी भीड़ बढ़ी। तर्जन, वर्जन, धूल, धुआं की जाली मेरे नीड़ चढ़ी। स्थगनों के अम्बारों में व्यस्त विवशता ढूंढ रही, मिले कहीं निर्मल निर्झर-सी चिट्ठी मेरे गॉंव की। ...