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स्मृति के नीलकंठ

स्मृति के नीलकंठ 



           एक पक्षी होता है नीलकंठ। गहरे नीले रंग के कारण उसे नीलकंठ कह दिया गया होगा। कंठ उसका नीला नहीं होता, पंख ही नीले होते हैं। लेकिन इस पक्षी को लेकर जन-मान्यता यह है कि इस पक्षी को देखना शुभ होता है। दशहरा में इसे अवश्य देखना चाहिये। कहते हैं जिस अवस्था में इसे देख लो वैसी अवस्था वर्ष भर बनी रहती है। यात्रा में देखो लो तो वर्ष भर यात्रा होगी। आनन्द के अवसर मेंवदेख लो तो वर्ष भर आनन्द उठाओ। व्यापार करते हुए देख लो तो वर्ष भर पैसा ही पैसा। काले कौवे को लेकर भी बहुत सी धारणाएं हैं। आश्चर्य यह है कि अंधविश्वासों से भरे भारत में इसे लोग पाल क्यों नहीं लेते। केवल हरे रंग के रट्टू तोते कब तक पालेंगे लोग? रंग और वाणी के अतिरिक्त उसके पास है ही क्या? दूसरी ओर  निरन्तर सुख समृद्धि का प्रतीक, यह सुलभ-साधन कब तक डाल-डाल उड़ता फिरेगा? कब तक सुख समृद्धि से वंचित लोग इसे ढूंढते फिरेंगे?

मैं बहुत सोचता हूं न? सभी कहते हैं और छिटकते हैं। मैं भी जनता हूं कि मेरे अतिरिक्त मुझसे सभी लोग परेशान हैं। 

         कभी-कभी मेरे मन में आता है कि मुझसे नीलकंठ देखने का अपराध अनजाने में हो गया होगा। गहन विचार के क्षणों में मेरे आंगन की किसी अनार या कनेर की डाल पर बैठे नीलकंठ को मैंने देख लिया होगा। तभी तो समय-कुसमय मेरे अंदर विचारों का तांता लगा रहता है। विचार के साथ उसकी चुलबुली बहन स्मृति भी धमधम करती निरन्तर मटकती रहती है। 

         

           मेरी अंत:-ड्योढ़ी में अचानक स्मृति कूदी और पायल छ्मछ्माती हुई मस्तिष्क की रिवॉल्विंग चेयर पर घूमती हुई खिलखिलाने लगी। उसे पकड़ने के लिए उसका जुड़वा भाई  लपकता हुआ आया। वह उसका गुल्लक ले भागी थी। दोनों में छीन झपट होने लगी। मैं तमाशा देखने लगा। स्मृति छलांग लगाकर सूती कपड़ों के नगर त्रिपुर तक चली गयी।  


        त्रिपुर के आनन्द वन में बसन्तोत्सव का स्मृति पर्व मनाकर हम लौट रहे थे। त्रिपुर के आनन्दवन की ठंडी हवाएं अभी भी हमें छूकर गुजर रही थी, जबकि त्रिपुर छोड़े दस घण्टे बीच चुके थे और चेन्नई से निकलकर विजयवाड़ा की ओर बढ़ रहे थे। 

                     विजयवाड़ा से एक महिला अपने एक पांव से पोलियोग्रस्त पति के साथ चढ़ी और हमारे सामने की सीट पर बैठ गयी। वह आंध्र की पारम्परिक पोशाक रंगीन लंगा-वोनी (लहंगा, चोली और दुपट्टा) पहने थी। सांवले रंग में सहज सादगी थी और उसके लंबों बालों की चोटी भर मोंगरे और सिंदूरी फूलों की वेणी लिपटी हुई थी। गजरा नहीं बल्कि लम्बा हार जिसका एक छोर चोटी के उद्गम में खुस था और दूसरा चोटी में चौथी लट की तरह लिपटा हुआ था। 

            अभी आंखें तेलगुदेशम के रसम की तरह रसीले परिधान से मुक्त भी नहीं हुई थी कि उस महिला ने साथ रखी टोकनी से  एक दो मुट्ठी मोंगरे की कलियां और सिंदूरी फूल निकाले और लंगा के ऊपर रख लिए। टोकनी से टटोलकर उसने धागे की गड्डी निकाली और उसी में खुबी हुई सुई में धागा डालकर फूल पिरोने लगी। वह एक नई वेणी बनाने लग गयी थी। 

       वेणी का हार गुंथा जा रहा था कि चंचल स्मृति ने विचार को कुहनी मारी और खिलखिलाती हुई उत्तर की ओर उड़ चली। विचार पीछे लपका -"ठहर तुझे बताता हूँ।" यह ऐसी सहोदर धमकी है जो कभी पूरी नहीं होती । दोनों मस्तिष्क में धमाचौकड़ी करने लगे। 

  

           उत्तर में एक त्रिवेणी भी तो है। दक्षिण में गूंथी जा रही फूलों की लड़ पहले से ही गूंथी गयी बालों की त्रिवेणी में ही तो जाकर गुंथनेवाली त्रिवेणी की चौथी वेणी बनेगी।  


           विचार ने स्मृति से पूछा- 'अरी निर्बुद्धि स्मृति, तुझे भी पता है कि प्रयाग में जिन तीन नदियों का संगम हुआ उन्हें त्रिवेणी क्यों कहते हैं?"

        "मुझे पता है बुद्धू! गंगा, यमुना और सरस्वती तीन नदियां इस तरह आपस में गुंथी हुई हैं, जैसे स्त्रियों के बालों की तीन लटें गुंथकर चोटी बन गयी हों। तीनों देवियां यहां मिलकर ऐसी गुत्थमगुत्था  हो जाती हैं कि उनकी तीनों लटें, तीनों वेणियां एक ही हो जाती हैं। इसलिए इन्हें त्रिवेणी कहते हैं?"

        विचार विचार में पड़ गया। स्मृति ने हाथ लहराकर कहा-"क्यों भाई! लग गयी न चुप्पी? कुछ तो बोलो, ठीक कहा न?" 

         विचार ने असमंजस में सिर खुजाते हुए कहा-" विचार करना पड़ेगा।"

          "बस, तुम्हारा तो एक ही काम है विचार करना। करो विचार। मैं तो स्वच्छंद हूं। लो उड़ चली।" स्मृति ने हवा में पंख फैलाये। विचार चीखा-"कहां जा रही है।"

          "बनारस। गंगा में डुबकी लगाने। तू त्रिवेणी में धँसकर फूल गिन!" स्मृति पल भर में ओझल हो गयी। और विचार? विचार तो स्मृति का पिछलग्गू है न! कैसे बैठ पाता।

        स्मृति के इस उलाहने 'त्रिवेणी में धँसकर' कहने से मुझे अलाहाबाद के एक निराले कवि की याद आयी। उसने भी त्रिवेणी के तट पर बैठकर किसी की स्मृति में गाया था -

           "बांधों न नाव इस ठाँव बन्धु! 

           पूछेगा सारा गांव बन्धु!  


          यह घाट वही जिस पर हँसकर,

          वह कभी नहाती थी धँसकर,

          आँखें रह जाती थीं फँसकर,

             कँपते थे दोनों पाँव बंधु! बांधों न नाव..... 


           वह हँसी बहुत कुछ कहती थी,

          फिर भी अपने में रहती थी,

         सबकी सुनती थी, सहती थी,

         देती थी सबके दाँव, बंधु! बांधों न नाव....

                 

               कौन थी वह? क्या वही जो इलाहाबाद के पथ पर बैठकर पत्थर तोड़ती थी और यहां प्रयाग की त्रिवेणी में आकर नहाती थी? किससे पूंछू? 

        अरे! यह नौका विहार करनेवाला सुकुमार व्यक्ति कौन है? इसे पुकारूँ, इसे पता होगा। इसके घुंघराले बालों में जाने कितने रहस्य दबे हो सकते हैं। यह तो संयोग से मिल गए, गोंसाई दत्त ही कहिये इन्हें। 

          मैंने उन्हें पुकारा भी- "सुनिए गोसाईं महाराज!"

          लेकिन वे गोंसाई दत्त तो अपनी ही कल्पना के घुंघराले गहन केश पाश में बंधे और बिंधे गुनगुना रहे थे-

             शांत स्निग्ध, ज्योत्स्ना उज्ज्वल!

            अपलक अनंत, नीरव भू-तल!

            सैकत-शय्या पर दुग्ध-धवल, 

            तन्वंगी गंगा, ग्रीष्म-विरल, 


           लेटी हैं श्रान्त, क्लान्त, निश्चल!

           तापस-बाला गंगा, निर्मल, 

           शशि-मुख से दीपित मृदु-करतल,

           लहरे उर पर कोमल कुंतल।

          गोरे अंगों पर सिहर-सिहर, 

          लहराता तार-तरल सुन्दर 


          चंचल अंचल-सा नीलांबर!

         साड़ी की सिकुड़न-सी जिस पर, 

         शशि की रेशमी-विभा से भर,

         सिमटी हैं वर्तुल, मृदुल लहर। 


         चाँदनी रात का प्रथम प्रहर,

          हम चले नाव लेकर सत्वर।

                 और यह गुनगुनाते हुए वे जैसे कहा वैसे सत्वर नौका (नाव) लेकर गंगा के विस्तृत फैलाव में अदृश्य हो गए। 

             अब क्या करे?  


               अचानक मुझे याद आया कि स्मृति ने विचार को त्रिवेणी का परिचय देते हुए कहा था कि त्रिवेणी तीन भाई बहनों की स्मृतियों से भी गुंथी हुई है। तीनों की संघर्ष गाथा इस त्रिवेणी में गूंथी हुई है।  तीनों ने क्या नहीं खोया? कितने दुःख नहीं उठाए। अपनों का विछोह तीनों को हुआ। 

              निराले कवि ने  अल्पायु प्रिय पुत्री को खोया, पत्नी खोई और युवा बीटा खोकर एकदम अकेले रह गए। फक्कड़, मस्त और मृत्युंजयी। न खाने पीने की फिक्र, न जीवन मृत्यु का भय। इतना छीनकर अब और क्या छिनेगी मृत्यु?

              सुकुमार कवि की अभी आंख ठीक से खुली भी न थी और मां ने आंख मूंद ली। जैसे तैसे दादी ने बड़ा किया तो युवा होते ही पिता कर्ज में डूबने का धक्का न सह सकें और काल-कवलित हो गए। क्या करे वह सुकुमार गोंसाई दत्त होकर? दादी ने तो बड़ी आशा से यह नाम दिया, लेकिन गोंसाई ने मां, पिता और समृद्धि तीनों छीन ली। गोसाई दत्त का विश्वास गोसाई से, ईश्वर से उठ गया। वह प्रकृति का हो गया। अविवाहित रहकर कविता से एक निष्ठ संबंध बना लिये। 

दोनों से छोटी उनकी एक बहन यहीं कहीं रहती है। विवाहित किंतु अविवाहित। अबल स्त्रियों को शिक्षित करती। अपने लाघव को महादेवी का विस्तार देती। अपनी पीड़ा को गा गा कर विस्मृत करती। चित्रों में अपनी रहस्यमयी दुनिया के चित्र बनाती। सुनो, शायद कहीं से करुण पुकार उठ रही है।  

             मैं नीर भरी दुख की बदली! 


             स्पन्दन में चिर निस्पन्द बसा

            क्रन्दन में आहत विश्व हँसा

           नयनों में दीपक से जलते,

                     पलकों में निर्झारिणी मचली! 


           मेरा पग-पग संगीत भरा

           श्वासों से स्वप्न-पराग झरा

           नभ के नव रंग बुनते दुकूल

                       छाया में मलय-बयार पली। 


           मैं क्षितिज-भृकुटि पर घिर धूमिल

           चिन्ता का भार बनी अविरल

            रज-कण पर जल-कण हो बरसी,

                       नव जीवन-अंकुर बन निकली! 


            पथ को न मलिन करता आना

            पथ-चिह्न न दे जाता जाना;

            सुधि मेरे आगन की जग में

                       सुख की सिहरन हो अन्त खिली! 


             विस्तृत नभ का कोई कोना

             मेरा न कभी अपना होना,

             परिचय इतना, इतिहास यही-

                      उमड़ी कल थी, मिट आज चली! 


                 आह! इस त्रिवेणी में कितनी पीड़ा एकाकार होकर गुंथी जा रही है। 

        यही गंगा तो बनारस भी जाती है न? इसने इस दुखियारी का दुख भी बनारस के कानों में घोला होगा। ज़रूर घोला होगा, तभी तो सुदूर बैठे प्रसाद कवि ने महादेवी को ढांढस बंधाया होगा- 

                    क्या कहती हो ठहरो नारी!

                    संकल्प अश्रु-जल-से-अपने।

                    तुम दान कर चुकी पहले ही

                    जीवन के सोने-से सपने। 
                    नारी! तुम केवल श्रद्धा हो
                    विश्वास-रजत-नग पगतल में।
                    पीयूष-स्रोत-सी बहा करो
                    जीवन के सुंदर समतल में।       
         वे वरिष्ठतम हैं। फिर निराला, फिर सुकुमार कवि, फिर सबसे छोटी महादेवी। वरिष्ठतम और परिवार तथा धन सम्पन्न ज्येष्ठ भाई का कहा माना महादेवी ने। स्वर संभाल लिए। संभलकर गाने लगीं -
               चिर सजग आंखें उनींदी। आज कैसा व्यस्त बाना। 
                                                   जाग तुझको दूर जाना।  
               अचल हिमगिरि के हृदय में आज चाहे कम्प हो ले,
               या प्रलय के आंसुओं में मौन अलसित व्योम रो ले;
               आज पी आलोक को डोले तिमिर की घोर छाया,
               जाग या विद्युत्-शिखाओं में निठुर तूफान बोले!
                    पर तुझे है नाश-पथ पर चिह्न अपने छोड़ आना!
                                  जाग तुझको दूर जाना! 
           स्मृति और विचार लौट आये थे। वे दक्षिण की तरफ जा रहे थे। 

          रामगुंडम निकल गया तो वेणी गूंथती महिला ने अपनी टोकनी समेटनी शुरू कर दी। टोकनी मोंगरे की मालाओं या कहूं कि वेणियों से भर चुकी थी।  अपने हाथ की जो माला उसने अभी अभी समाप्त की थी उसने उसे मेरी तरफ बढ़ा दिया। मैं बड़े गौर से उसे वेणी गूंथते हुए सारे रास्ते देख जो रहा था। शायद उसने सोचा हो कि मुझे वह माला चाहिए। नहीं, मैं तो उसका हुनर देख रहा था। 
            मैंने असमंजस में अपनी पत्नी की तरफ़ देखा जो मालिन के एकदम सामने और मेरी बगल में थी।  वह भी  चौंकी हुई थी। मैंने इंकार का सिर हिलाया तो उस मालिन ने इशारा किया कि माला लेकर पत्नी को दे दूं। 
मैंने अपनी समझ के खुलासे के लिए उसके पति की तरफ देखा तो टूटी फूटी अंग्रेजी-हिन्दी में उसने कहा: "बोलता ... टेक आउर यू गिव मिसेस।"      
         मैंने पत्नी से कहा :" ले लो!"
          उसके पति ने कहा : "नो नो, यु लो.. अपना हैंड से मिसेस को दो... ये मंगलं माल्यम होने का"
           मैंने मंगल माला लेकर पत्नी के हाथ में रख दी। स्त्री प्रसन्न दिखाई दी। उसने पत्नी से इशारे से कहा कि मंगल माल्यम को चोटी में उसकी तरह लपेट ले। उसने हाथ के इशारे से लपेटने की विधि भी समझा दी। जाने क्या देखा था उसने पत्नी के हाव भाव में कि एक अज्ञात सी आत्मीयता उत्तर और दक्षिण को निकट ले आयी थी। 
           एक पल में मैं समझ गया कि यह स्त्री विजयवाड़ा से मंगल माल्यम को बल्लारशाह में ऐसी सुहागिनों को पहुंचाती होगी जो मंगल माल्य नहीं गूंथ सकती या जिनके पास समय नहीं होता। उसकी टोकनी में बहुत मालाएं थीं और बहुत फूल शेष थे। दिन भर किसी स्थान पर वह बैठकर माला बनाती और बेचती होगी। बेचती शब्द से मेरी चेतना जागी। पर्स निकालते हुए मैंने पूछा : "मंगल माल्यम् का  कितना मूल्य? हाउ मच"
          स्त्री ने जीभ दांतों से दबाकर आंख चौड़ी की और इनकार से सिर हिला दिया। उसके पति ने कहा: "खुशी से देता...नो प्राइज. "     
        मैं स्तब्ध । लेकिन स्त्रियां बहुत सतर्क और तुरंत-बुद्धि होती हैं। उसी त्वरात्मक बुद्धि से पत्नी ने तत्काल बैग से एक ब्लॉउज का कपड़ा निकाला, जो वह त्रिपुर से अपने लिए ले आयी थी, उसे उसने स्त्री के हाथ में २८में उसके माल्यम् गूंथते हाथ दिखाई दे रहे थे। मैं तो कवि नहीं हूं। निराला पत्थर तोड़ती स्त्री पर चटकती हुई कविता लिख सकते हैं तो माला गूंथती स्त्री पर क्यों नही? दोनों का काम एक ही है... जीवन की कठिनाइयों के पत्थर तोड़ना। 
        और ऐसे अवसर में क्या कहते सुकुमार कवि?
              अरे! ये पल्लव-बाल!
              सजा सुमनों के सौरभ-हार
              गूँथते वे उपहार;
             अभी तो हैं ये नवल-प्रवाल,
            नहीं छूटो तरु-डाल;
            विश्व पर विस्मित-चितवन डाल,
            हिलाते मधुरिम अधर-प्रवाल! 

          अकस्मात दृष्टि ने देखा... कोई नौका घाट की तरफ़ लौट रही है। देखा कि जो व्यक्ति गाता हुआ गया था वह सोया हुआ है। और चंचलद्वय स्मृति और विचार उसके सिरहाने सर झुकाए म्लान बैठे हैं? 
        क्या हुआ? 
        ओह!
         आज २८ दिसंबर है। जो पुराना है वो जा रहा है। और तीन दिन शेष हैं सब चला जाएगा। स्मृति और विचार ही रह जाएंगे विगत के सिरहाने कम्बल ओढ़कर बैठे हुए। जैसे अभी बैठे हैं सिरहाने जिनके, वे चिरनिंद्रा में मग्न सुकुमार कवि, गोसांई दत्त, सुमित्रानन्दन पंत, प्रकृति प्रेमी, एक सौ पच्चीस वर्षीय विभूति की सैंतालीसवी पुण्य-तिथि पर सर झुकाए।  
         इस नौका विहार को नमन! 

                                         @कुमार, २७.१२.२४, गूंगालय



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