शीत काल की पांच मुकरियां
1.
माघ-पूस में उसका होना।
उससे ख़ूब लिपटकर सोना।।
मौसम का धन, ऋतु का सम्बल।
ए सखि साजन,
ना सखि कम्बल।।
2.
चुनकर उत्तम वरा, सँवारा।
कठिन रात का वही गुज़ारा।।
बस, उससे ही गर्मी पाई।
ए सखि साजन,
नहीं रजाई।।
3.
सूखी यादें, ढूंढ समेटे।
सांसों की कुछ आग लपेटे।।
दहकाये फिर तपते भाव।
ए सखि साजन,
नहीं अलाव।।
4.
धड़कन जैसी रहे धधकती।
छाती से लग, गले लटकती।
चाहे पर ना भरे चौकड़ी।
क्यों सखे सजनी?
नहीं, काँगड़ी।
5.
उसकी लौ के सभी चहेते।
हाथ बढ़ा उसका सुख लेते।
घिरी रहे वह लाड़ो घर की ।
क्यों, नई दुल्हन?
ना भई, गुरसी।।
@कुमार, २१.११.२३, वृहस्पति.
आयुषी पाम ग्रीन, गंगानगर, जबलपुर.
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शब्दार्थ :
१. काँगड़ी > कश्मीरी पहाड़ियों में छाती सेंकने के लिए गले से लटकती छोटी से सिगड़ी।
२. गुरसी > बुंदेलखंड में गुरसी, छत्तीसगढ़ में गोरसी कहते हैं। इसे बोरसी और बरोसी भी कहते हैं।
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कुछ अन्य मुकरियां
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दीवाली की पांच फटाकेदार मुकरियां
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1. बहुत देर तक आग दिखाते।
तब उसको टस-मस कर पाते।
चमक पड़े फिर वह चिड़चिड़ी।
क्यों भई बीवी? नहीं फुलझड़ी।।
2. चाहे कितनी आग लगाओ।
उसमें हिम्मत भर नहीं पाओ।
उसमें नहीं ज़रा दम ख़म।
क्या वह शौहर? नहीं, फुस्सी बम।।
3. उसको तुम बस आग लगा दो।
फिर सबकी दीवार हिला दो।
बित्ते भर का, सबका आका।
क्यों सखी साजन? नहीं फटाका।
4. जल्दी उसे आग लग जाती।
फिरने लगती वह चकराती।
वह बरसे, तो जलती छतरी।
क्यों भई पत्नी? नहीं, नहीं, चकरी।
5. उसको कोई आग दिखा दे।
सर पर वह आकाश उठा ले।
उड़ उड़ चीरे नभ का पेट।
क्यों सखि साजन? नहीं, रॉकेट।।
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@कुमार, १३.११.२३, गोबरधन पूजा,
अग्रहायण प्रतिपदा,
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जनता जनार्दन (लोकतंत्र) की छोटी दीवाली (विधानसभा मतदान अंतिम चरण) (आज - 17 नवंबर 23.) दो मुकरियाँ :
१.
वह आये तो धूम मचाए।
घर आंगन रौशन कर जाए।
वह जाए, जग लगता ख़ाली.
अय सखि साजन?
नहीं दिवाली!!
@कुमार,
16.11.23, प्रातः 9 बजे,
२.
जन जन आकर हाथ लगाए।
उसकी ताक़त बढ़ती जाए।
उस पर सबको है अभिमान।
अय सखि साजन,
नहिं मतदान!!
@कुमार,
17.11.23, प्रातः 4.56 बजे
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