एक ग़ज़ल : दुविधाओं की शल्य चिकित्सा
मुंसिफ़ बड़ा है शाह से ...सच है कि बतकही
लगती है आग आह से ...सच है कि बतकही
लगती है आग आह से ...सच है कि बतकही
ईमां का हाथ छोड़ के ... कुर्सी को थाम के
बचते हैं हर गुनाह से ... सच है कि बतकह
बचते हैं हर गुनाह से ... सच है कि बतकह
बिकते उसूल हाट में ... मिलते रसूख़ ज़र
निकले वो बारगाह से ... सच है कि बतकही
निकले वो बारगाह से ... सच है कि बतकही
किस पर यक़ीन किस पे भरोसा किया लुटे
बैठे हैं अब तबाह से ... सच है कि बतकही
बैठे हैं अब तबाह से ... सच है कि बतकही
तख़्तापलट के दौर में ... मुर्दार मोहरे
उठ आते क़ब्रगाह से ... सच है कि बतकही
उठ आते क़ब्रगाह से ... सच है कि बतकही
@कुमार, ३०.०६.२०२२,
शब्दार्थ :
मुंसिफ़ : न्याय करनेवाला, न्यायाधीश,
रसूख़ : प्रभाव, इज़्ज़त, साख, रुतवा,
ज़र : धन, दौलत,
बारगाह : दरबार, सदन, खेमा, डेरा, घर,
मुर्दार : मरा हुआ, मृत-पशु, डरा हुआ, अयोग्य व्यक्ति,
मुंसिफ़ : न्याय करनेवाला, न्यायाधीश,
रसूख़ : प्रभाव, इज़्ज़त, साख, रुतवा,
ज़र : धन, दौलत,
बारगाह : दरबार, सदन, खेमा, डेरा, घर,
मुर्दार : मरा हुआ, मृत-पशु, डरा हुआ, अयोग्य व्यक्ति,
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