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Showing posts from May, 2021

रचनाकारों के लिए अनिवार्य सूक्त

किसी भी रचना, गीत, ग़ज़ल, मुक्तक, कविता, लेख आदि के लिए अनिवार्य नियामक सूक्त : ( *अनुरोध* : कृपया प्रथम दृष्टया पढ़कर न तो धार्मिक हो जाएं  न हंसने लगें।)  दोहा :  *स्नान, ध्यान, चिंतन, मनन, समिधा, वस्तु प्रबंध।*  *फलाहार, उपवास, व्रत, साधक के अनुबंध।*  शब्दार्थ : * स्नान * : अवगाहन, किसी विषय का डूबकर अध्ययन, स्नातक होने की दिशा में चेष्टाएँ।  * ध्यान * : एकाग्रता, अपने कर्त्तव्य के प्रति पूर्ण निष्ठा, आपने उद्देश्य की सतत स्मृति। * चिंतन * : अपनी, अपने परिवार की, अपने परिवेश, प्रान्त और देश की दशा दुर्दशा पर विचार, सतत निरीक्षण, समस्या से मुक्त होने/समाधान की तलाश। * मनन * : किसी भी समस्या की जड़ तक पहुंचने और उसके उन्मूलन का अनुसंधान, अब तक उस विषय में हुए अनुसंधानों का अनुशीलन।  * समिधा * : जिस विषय /विधा के पूरा करने का मानसिक संकल्प लिया है, उसमें सहायक समस्त सामग्रियों के चयन- संचयन  का ईमानदार प्रयास, शिल्प, भाषा,  शब्द सम्पदा, शब्द शक्ति, रस ,छंद, अलंकार, सम्बन्धित विधा या विषय में प्रसिद्ध कृतियों का सिंहावलोकन।  * वस्तु-प्रबंध * ...

अकेला चल रे उर्फ 'एकला चॅलो रे'

किसी भी  समूह में उपस्थित साहित्य  के समस्त गुणी जनों को  इस नवगीत का यह शीर्षक चौंका सकता है, क्योंकि मनुष्य समूह में रहता है और साहित्य का सरोकार भी सहित से है, जिससे यह शब्द बना साहित्य । वह अकेला चलने वाली बात कैसे कर सकता है?  फिर भी  'चल अकेला' शीर्षक का यह गीत अवश्य पढ़ें। इसलिए कि इसमें वर्तमान समय की बाह्य और आंतरिक  भयावह स्थितियों का प्रासंगिक चित्रण है। पहले गीत पढ़ें फिर आगे की बात करेंगे।  0 नवगीत : अकेला चल रे। * यदि सुनकर करुण पुकार, न आये कोई तेरे पास साहसी!  रख खुद पर विश्वास,  अकेला चल रे,  चल रे, अकेला चल रे, चल रे, अकेला चल रे  यदि कोई करे ना बात, फेरकर मुंह बैठे। जब भय की कुंडी मार, घरों में ही पैठे। सजग उठ, निज प्राणों को खोल, मुखर हो, मन की पीड़ा बोल,  उद्यमी!  गा, होकर बिंदास, अकेला चल रे,  चल रे अकेला चल रे, चल रे अकेला चल रे  यदि सब हो जाएं दूर, पथिक पथ से तेरे। यदि एकाकी पा तुझे, कठिन बाधा घेरे।  चुभें, जो कांटे, सभी निकाल,  रक्त-रंजित पग, पुनः संभाल, भुलाकर, तन मन के संत्र...