आस्था और अर्थतंत्र का बीजगणित: लोचदऊँ
''लॉक डाउन' में अर्थव्यवस्था चरमरा गई है', ऐसे हृदय विदारक समाचार मिलते रहते थे। चारों ओर उत्पादन और व्यापार के द्वार पर सन्नाटा छाया हुआ था। अर्थोपार्जन के हर माध्यम पर ताले पड़ गए थे। निर्माण की मजदूर इकाइयां उजड़े हुए घरों में लौटकर दम तोड़ रही थीं। देश महामारी और प्राकृतिक आपदाओं के टिड्डी दलों से घिर चुका था। केवल मुसीबतों की चर्चा ही ज़ोर-ज़ोर से बात कर रही थी बाक़ी सारी बातें सहमी और घिघियायी हुई थीं। कानाफूसी होने लगी थी कि ग़रीब देश और कितना ग़रीब हो जाएगा। अब पुलिस और सेना का क्या होगा? सरकारी अधिकारी और मंत्रियों का क्या होगा? पूंजीपतियों और उद्योगपतियों का क्या होगा? बैंक में करोड़ों मध्यम वर्गी साधारण लोगों का जो पैसा जमा है उसका क्या होगा? क्या जान और माल देश की अस्मिता को बचाने के लिए राजसात हो जाएगा? तरह तरह की चिंताओं से चिंतनशील प्राणियों का स्वास्थ्य खराब हो रहा था। इम्मुनिटी क्षीण हो रही थी और कमज़ोर होती दीवारों को तोड़कर कोविड शरीरों में प्रवेश कर रहा था। मृतदेहें आंकड़ें बना रहीं थीं।
धीरे-धीरे दस महीने बीते। नया साल आया। भयावह रूप से बढ़ी बेरोजगारी और उद्योग व्यापार की मंदी के साथ साथ चीन और पाकिस्तान से लड़ते हुए देश ने राजनीतिक और कूटनीतिक तौर पर लगातार विश्व में अपने ध्वज फहराये। श्री नगर, कश्मीर और लद्दाख का रूपांतरण हुआ, धाराएं बदलीं और धाराओं ने ऋषि-गंगा और धौली-गंगा में विकास की जड़ें उखाड़ फेंकीं। जैसे व्यापारवाद के चलते केदारनाथ को अनाथ बना बैठी आस्था की अंधी धारा।धार्मिक आयोजन और धर्म के नाम पर किसी संगठन के लिए जब सदस्यता और सहयोग के बहाने धन एकत्र होता है। जब आस्था के मठों से ट्रकों पर धन इधर और उधर होता है, खुले आम काला धन सफेद होता है तब पता चलता है, हम कितने धनी हैं। सोने की चिड़िया कहाने के दिन गए, अब तो सोने के बाज कहाने के दिन हैं। स्वर्ण नगर और स्वर्ण राष्ट्र, सोने के पहाड़ों, मंदिरों और गुप्त-गर्भों के दिन है। भारत ने भी अपने पौराणिक कुबेर को सिद्ध कर लिया और कामधेनु को संसद में बांध लिया है।
हमारे मोहल्ले में भागवत कथा का आयोजन हो रहा है। मंडप में, अर्थदान और श्रमदान के साथ-साथ खानदान की बहार है। लोग देखते ही देखते सब धार्मिक और अस्थावान हो गए। सेवाभाव और मिलनसारिता उनमें आ गयी। गर्दनों ने मुंह फेरना और आंखें चुराना छोड़कर होंठों पर मुस्कान सजा ली। जिन मुंह से पीठ पीछे न सुनने योग्य गाली निकलती है उनसे सम्मानसूचक शब्द निकलने लगे। सप्ताह भर की तो बात है। 365 में से 7 दिन कट गए तो 358 अभी अपने हैं। 365 क्या हम तो 370 काट कर आये हैं। सब कुछ काट के रख देंगे।
'बोल वृंदावन बिहारीलाल की जय।' बोलते हुए वृंदावन से जो टीम आयी है वह चार पांच लाख के शुल्क पर आई है। रोज़ का खानपान, दान दक्षिणा, पूजा शुल्क और वस्त्र अलग। गो-दान और वृंदावन आश्रम के लिए भंडारा और निराश्रित वृध्द ब्राह्मणों के भरण पोषण के लिए बीस हज़ार, तीस हज़ार देनेवाले दिल खोलकर आगे आ रहे हैं। आसपास श्रवण पुण्य के लिए जो आमंत्रण भेजे जा रहे हैं, उनसे भी गोदान और आश्रम सेवा के नाम पर दान-दक्षिणा का आग्रह किया जा रहा है। आश्चर्य है, जहां लोग साफ़-सफ़ाई, बिजली और पानी के लिए दो-सौ पांच-सौ वसूलने के लिए गाली-गलौज करते हैं, वे लोग पता नहीं किस भावना के इंद्रजाल में फंसे बीस-पच्चीस हज़ार वृंदावन के नाम पर दान दे रहे हैं। आश्रम तो हजारों हैं वृंदावन में और हर आश्रम में जनता के अर्थदान पर लाखों निराश्रित लोग जीवन यापन कर रहे हैं। अर्थात देश आत्म-निर्भर है। आयकर से बचाकर रखा गया धन आश्रम में काम आ रहा है। देश के ख़जाने में तो आम आदमी कर के नामपर दे ही रहा है। देश चल ही रहा है मजे से। फिर भी फटेहाल और गन्दी आबादियां कम नहीं हो रही, भिखारियों की संख्या कम नहीं हो रही। इससे देश गरीब दिखाई दे रहा है। अगर सबको आश्रमों में जगह मिल जाये तो देश की समृद्धि सड़कों में दिखाई देने लग जाये।
आज घोषणा हुई है कि एक सम्प्रदाय दूध वितरित करेगा। बसंत पंचमी कल है, आज चौथ का दूध इसलिए बंटेगा ताकि लोग बसन्त-पंचमी को नाग-पंचमी न समझ लें। अतः बसन्त की चौथ का दूध पीने आप सादर आमंत्रित हैं।
नोट : ऊपर लॉक डाउन लिखने से लोचदऊँ छप गया। नोंच देने के अर्थ में यह शब्द बुंदेली क्षेत्रों में प्रयुक्त होता है जो कीबोर्ड के कारण संयोग से ऐसा हो गया।
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