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मुक्तिबोध और भूलन-बाग़

मुक्तिबोध और भूलन-बाग़ :
अर्थात् किंवदंती, रहस्य, तथ्य और राजनांदगांव

          मुक्तिबोध की लंबी और प्रसिद्ध कविता है 'अंधेरे में'। यह कविता 8 अनुच्छेदों या भागों में है। मुक्तिबोध ने जिस घर में यह कविता लिखी वह आज वह सज संवरकर त्रिवेणी धरोहर के रूप में दमक रहा है। किंतु वह मुक्तिबोध को कितना उद्वेलित करता था, इस 'अंधेरे में' कविता के प्रथम भाग के इस अंश में बोल रहा है..

ज़िन्दगी के...
कमरों में अँधेरा
लगाता है चक्कर
कोई एक लगातार;
आवाज़ पैरों की देती है सुनाई
बार-बार....बार-बार,
वह नहीं दीखता... नहीं ही दीखता,
किन्तु वह रहा घूम
तिलस्मी खोह में ग़िरफ्तार कोई एक,
भीत-पार आती हुई पास से,
गहन रहस्यमय अन्धकार ध्वनि-सा
अस्तित्व जनाता
अनिवार कोई एक,
और मेरे हृदय की धक्-धक्
पूछती है--वह कौन?

       उसी महल का दूसरा हिस्सा है 'भूलनबाग़'. यानी भूलन बूटी का उद्यान। अब आप पूछेंगे- 'भूलन-बूटी' क्या?
        'संजीविनी-बूटी' तो सुनी होगी? जिसको सुंघाकर सुषेण ने मूर्छित लक्ष्मण को संजीवित किया था। पुराणकाल में जो युद्ध हुए उसमें घायल योद्धाओं के घाव पल भर में भर देने वाली बूटियों की भी कम सुनवाई नहीं हुई है। ऐसी वनस्पतियां का पत्तियों की शक्ल में विद्यमान होने की कथाएँ भी खूब सुनी हैं, जिनको टूटी हुई हड्डियों से बांध दो तो वे जुड़ जाएं। हमें वह बचपन भी याद है जिसने कई 'झठें' (चोटें) खायीं और उनका दर्द सहा है। अकस्मात यानी झटपट पैरों को घायल कर देनेवाली इन 'झठों'(चोटों) पर हमने 'सापरतीक' या सप्रतीक (प्रत्यक्षतः) गेंदे (mary gold) की पत्तियों का ताज़ा रस डाला है।
           तब ऐसी वनस्पति से कोई कैसे इंकार करे, जिसके शरीर से छू जाने से व्यक्ति अपनी याददाश्त ही भूल जाये!
         मानना ही पड़ेगा साहब क्योंकि ऐसी ही चमत्कारिक वनस्पति के नाम से राजनांदगांव के राजमहल परिसर में स्थित एक वाटिका या बाग़ का नाम 'भूलन बाग़' पड़ा था, जो आज भी अपने इसी नाम से जाना जाता है। हालांकि अब उस बगीचे में औषधीय वनस्पतियों और विविध उपयोगी पेड़ों के स्थान पर कंक्रीट के भवन, वाचनालय, प्रयोगशाला और स्मारक ऊग आये हैं। इसी क्रम में उल्लेखनीय है कि महंत राजा सर्वेश्वरदास के नाम पर तत्कालीन राजशाही ने शासकीय सर्वेश्वरदास उच्चतर माध्यमिक विद्यालय जनता को दिया, हॉकी के विश्व प्रसिद्ध खिलाड़ी दिए, साहित्यिक दिए, सुना है उसी पर आज की राजनीति की बुरी नज़र है।
         राजनांदगांव राज के महंत राजा सर्वेश्वरदास और उनके पुत्र महंत राजा दिग्विजय दास के समय में उनके राजमहल (वर्तमान में दिग्विजय कॉलेज) के बगल में एक बाग़ में ऐसा पौधा हुआ करता था, जिसके कारण  इस 'राजोद्यान' का नाम 'भूलन बाग़' हुआ। तरुणाई में अध्ययन के बाद विदाई की बेला में इसी 'भूलन-बाग़' में हमारे कुछ साथी अपने आपको भूल बैठे थे। कुछ पुष्प, कुछ मकरंद, कुछ सुगन्ध संभवतः इन्हीं किन्हीं वनस्पतियों से निकलकर उन्हें विस्मृतियों की रहस्यमय बावड़ियों में डुबा गयी थी। ध्यान रहे कि वनस्पतियों ने लिंग भेद नहीं किया था...लड़के लड़कियां दोनों पर असर हुआ था।
भूलन बूटी नाम के पौधे

       अब पता चल गया है भूलन बूटी नाम के इस पौधे के कारण इस जगह को भूलनबाग कहा जाता था। प्रश्न यह है कि फिर ऐसी वनस्पति राज-बाग़ में क्यों? उत्तर साधारण सा है कि राजा के महल और राजरदबार की सुरक्षा के लिए इस तरह का इंतजाम यहां किया गया था। भूलनबाग के द्वार के पास और यहां फैले वृक्षों के बीच यह बूटी लगाई गई थी। इस बूटी की विशेषता ही थी कि इस पर पैर पड़ते ही व्यक्ति करीब दो-तीन घंटे के लिए अपनी सुध-बुध खो देता था। उसे कुछ भी याद नहीं रहता था। हम लोग भी दो तीन घंटे सुध-बुध खोकर, गाते-बतियाते और हल्का-फुल्का चबाते हुए एक आम के पेड़ के नीचे बैठे रहे।
     नयी पीढ़ी के हिस्से में यह विस्मृति नही आयी। भूलनबाग में अब इस तरह के पौधे नहीं हैं किन्तु 'जंगली लोग'(जंगलवासी) बताते हैं कि राजनांदगांव जिले के अंदरूनी जंगलों में इसका अस्तित्व है। पं. रविशंकर विश्वविद्यालय के लाईफ साईंस डिपार्टमेंट के विभागाध्यक्ष डॉ. एस के जाधव के अनुसार भूलन बूटी का बॉटनिकल नाम टाईलोफोरा रोटोनडीफोलिया है। उन्होंंने बताया कि रायगढ़ के फारेस्ट सर्वे के दौरान उन्होंने इस तरह के पौधे देखे हैं और राजनांदगांव के जंगल में भी यह मौजूद है। मंडला शहडोल के अमरकंटक के वनों में तो बहुतायत से है।डॉ. जाधव जैसे वैज्ञानिक भी मान्यता पर तथ्य को पटककर कहते कि अनजाने में और नंगे पैर पड़ने पर ही भूलने की घटनाएं होती हैं। इस तरह तो प्रयोग और जांच संभव नहीं।
भूलन बूटी के दो रंग
          यह बूटी दो रंग में होती है - सफेद और काले रंग में और इसके पत्ते हरे रंग के होते हैं। काले रंग की बूटी सबसे ज्यादा कारगर है। तांत्रिक क्रिया करने वाले काली बूटी को ही उपयोग करते हैं। भूलनबाग में दोनों ही तरह की बूटी उपलब्ध थी।
         पर्यावरणविद् डॉ. ओंकारलाल श्रीवास्तव ने बताया कि छत्तीसगढ़ और मध्यप्रदेश के जंगलों में कई तरह की 'भूलन घास' भी मिलती हैं। इनका उपयोग दवाईयां बनाने के लिए किया जाता है और राजनीतिक इसका प्रयोग चुनाव के समय जनता के साथ करते होंगे ताकि जनता उनके अपराध और अत्याचार भूल जाये। कुलमिलाकर वनस्पति या घास पर पैर पड़ने से याददाश्त जाने को लेकर अलग-अलग तरह के मत हैं।
भूलनबाग की समृद्धि और प्रसिद्धि
         शासकीय महंत राजा दिग्विजय दास स्वशासी स्नातकोत्तर महाविद्यालय, जिस भवन में संचालित है वह वस्तुतः रियासत कालीन भव्य महल है। महल के पार्श्व भाग में त्रिवेणी संग्रहालय स्थापित है तथा महल दो सरोवरों से आवृत है। महाविद्यालय के रजत जयंती वर्ष पर निकाली गई स्मारिका में संस्था के तत्कालीन प्रोफेसर डॉ. एस आर उबगड़े का भूलनबाग शीर्षक से एक लेख प्रकाशित हुआ था, जिसे पढ़कर इसकी समृद्ध होने का अनुमान लगाया जा सकता है। डॉ. उबगड़े के लेख में दिए तथ्य के अनुसार राजा महंत भोजदास के शासनकाल में रानीसागर और किले (वर्तमान में दिग्विजय महाविद्यालय) के मुख्य भवन के मध्य यह बाग एक लाख 83 हजार छह सौ वर्गफुट में फैला हुआ था। राजा महंत बलरामदास के शासनकाल में इसके पश्चिमी हिस्से में पौधों द्वारा भूल-भुलैया का निर्माण किया गया था। यहां दुर्लभ पौधे लगाए गए थे। इसके अतिरिक्त तरह तरह के उपयोगी पौधे और वृक्ष इस भूलन बाग़ में थे। डॉ. उबगड़े के अनुसार भूलनबाग़ में कदम्ब, लीची, हींग, डिकामॉली, रीठा, आंवला, सुपारी, इलायची, दालचीनी, लौंग, रक्तचंदन, अंजीर, मोरछल्ली, मेगास्टीम, गुलेनार, साईकस, फालसा, सतावर, सिल्वर ओक, मदनमस्त, गुलमोहर, नींबू, केला, यूकेलिप्टस, नारियल, ताड़, कैसूदाईना, रबर, केवड़ा आदि के पेड़ थे। चीनी अमरूद का पेड़ भी यहां था। कई प्रजातियों के आम इस बाग की शोभा थे। ठंड के मौसम में फल देने वाला आम का पेड़ भी यहां था। देश के अलग अलग हिस्सों से कई प्रजातियों के पेड़-पौधे यहां लाकर लगाए गए थे और वो यहां फल-फूल भी रहे थे।
        किसी समय दिग्विजय महाविद्यालय परिसर में निवास करते हुए कई कालजयी रचनाओं को जन्म देने वाले विश्वविख्यात साहित्यकार गजानन माधव मुक्तिबोध की कई रचनाओं में भूलनबाग की झलक दिखती है। मुक्तिबोध की कुछ कविताओं में भूलनबाग के ताड़ वृक्ष का उल्लेख मिलता है। मुक्तिबोध यहां के मेगास्टीम के मखमली फलों में भी खूब दिलचस्पी रखते थे। उनकी लघु उपन्यासिका 'विपात्र' में दालचीनी, इलाइची, लीची आदि का जिक्र आया है। 
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स्मृति संग्रहालय और रहस्यमयी बावड़ी
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त्रिवेणी एवं मुक्ति बोध परिसर
         राजनांदगांव रियासत के राजमहल महाविद्यालय में रूपांतरित हुआ और यहीं रूपांतरित हुए गजानन माधव मुक्तिबोध पत्रकार से प्राध्यापक के रूप मे। मूर्धन्य कवि–समीक्षक गजानन माधव मुक्तिबोध जी ने अपने जीवन काल की सर्वश्रेष्ठ रचनाएँ दिग्विजय कॉलेज में अपने सेवा काल (1958-1964) के दौरान लिखी। इसी महाविद्यालय में अध्ययन अध्यापन करते वे राष्ट्रीय स्तर के ख्याति प्राप्त साहित्यकार हुए। सरस्वती के संपादक और श्रेष्ठ निबंधकार एवं कहानीकार स्व. पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी भी इस महाविद्यालय में प्राध्यापक रहे और अपनी लेखनी से साहित्य की अनन्य सेवा की। ख्यातिनाम साहित्यकार डा. बलदेव प्रसाद मिश्र जी राजनांदगांव में राजनीति के शलाका पुरुष तो थे ही, तुलसी दर्शन के प्रखर सर्जक के रूप में मानस अध्येताओं के साहित्यिक आदर्श बन गए । साहित्य के क्षेत्र में ऐसी विभूतियों के योगदान के कारण दिग्विजय महाविद्यालय भवन के पिछले सिंहद्वार के बाएं भाग में स्थित दो मंजिला कक्ष को त्रिवेणी भवन के रूप में विकसित किया गया और महाविद्यालय भवन से लगे प्रसिद्ध भूलन बाग को मुक्तिबोध परिसर के रूप में रूपांतरित किया गया, जिसकी वर्तमान में सौदर्य देखते ही बनता है । इतना रमणीक स्थान प्रदेश में तो क्या राज्य के गिनती के शहरों में होंगे, जहां दो-दो तालाब से घिरा हुआ भू-खंड पृष्ठ भाग ऐतिहासिक पृष्ठभूमि को दर्शाने वाला मुक्ति बोध परिसर स्थापित किया गया है ।
मुक्तिबोध स्मारक-त्रिवेणी संग्रहालय
        त्रिवेणी संग्रहालय के उपरी मंजिल पर तीन खंड है । उसका उत्तरी खंड जहां मुक्तिबोध जी रहा करते थे, उनकी साहित्य साधना का स्थान और घुमावदार सीढ़ी जिसका उल्लेख उन्होंने अपनी रचनाओं में की है इसी उत्तरी खंड में है । इस खंड में पुनश्च मुक्तिबोध जी को उनकी यादों के साथ समर्पित करना निश्चय ही उनके प्रति कृतज्ञता एवं श्रद्धा का प्रतीक है । इस स्मारक के मध्य खंड को साहित्यकार डा. पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी तथा दक्षिणी खंड को मानस मर्मज्ञ डा. बल्देव प्रसाद मिश्र की स्मृतियों उनके पत्रों, रचनाओं एवं पांडुलिपियों के प्रदर्शन हेतु समर्पित कर इस स्मारक को तीन मूर्धन्य साहित्यकारों का संगम “त्रिवेणी” बना दिया गया है । इस स्मारक के भूतल में स्वागत कक्ष, प्रतीक्षा कक्ष एवं वाचनालय की व्यवस्था की गई है।
       मुक्तिबोध जी को समर्पित कक्ष को देखकर ऐसा प्रतीत होता है, जैसे वह आज भी अपनी रचनाओं के सृजन में लीन हो । मुक्तिबोध जी का सिगरेट बॉक्स, उनकी पोशाक, चश्मा और उनकी वह दो कलमें (पेन) जिससे उन्होंने अपनी अनेक रचनाएँ लिखी थी, को वहां देखकर या आभास होता है जैसे वह कहीं हमारे आसपास मौजूद हो । स्मारक के मध्यकक्ष में डा. पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी जी के अनेक दुर्लभ छायाचित्र, पांडुलिपियों , उनके ग्रंथो आदि को सजाकर रखा जाता है । उनकी ओईल पेंटिंग का अवलोकन सहज ही उनकी स्मृति को जीवंत बनाता है । स्मारक के दक्षिण कक्ष में डा. बल्देव प्रसाद मिश्र जी का तेल चित्र के साथ, उनके जीवन से जुडी अनेक यादों को संजोया गया है ।
       कुल मिलाकर राजनांदगांव में स्थापित मुक्तिबोध स्मारक-त्रिवेणी संग्रहालय अपने आप में अनूठा है । छत्तीसगढ़ राज्य ही नहीं अपितु राष्ट्रीय स्तर पर साहित्यकारों की स्मृति को समर्पित या एक ऐसा स्मारक है जिसका कहीं अन्यत्र उदाहरण नहीं मिलता। साहित्य प्रेमियों एवं शोधकर्ताओं के लिए यह एक अमूल्य धरोहर है ।
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भूलन-बाग़ की बावड़ी (राजनांदगांव)
         खिलाड़ी महंत राजा दिग्विजयदास के नाम से 1956 से संचालित एवं 1972 में राज्याधीन शासकीय स्वशासी स्नातकोत्तर महाविद्यालय राजा के महल में ही संचालित होता है। दोनों ओर रानी सागर और बूढ़ा सागर या राजा का ताल नामक तालाब हैं। महाविद्यालय भवन के दक्षिण में दिग्विजय कॉलेज के पीछे स्थित भूलन बाग में मां सात बहिनिया मंदिर परिसर है जिसे भूलन बाग के नाम से ख्याति प्राप्त है। इसमें रानी सागर या तालाब से जुड़ी एक बावड़ी, (सतबहनी मंदिर,1976 तक थी) है जो रानी और रनवास का स्नानागार के रूप में भी ख्यात था। कहते हैं यहीं से एक सुरंग (भूमिगत-रास्ता) राजा के महल तक है जो बूढ़ा सागर के किनारे स्थित है। रानी-सागर और (बूढ़ा) राजा-सागर के बीच से एक बड़ा रास्ता किले या रानी-महल के पीछे द्वार से होता हुआ राजा-महल तक जाता है। यह रथ-मार्ग के आसपास अब लाल-बाग कॉलोनी के भव्य अट्टालिकाओं और व्यावसायिक भवनों से भर गया है। यह रथ-मार्ग जिस महामार्ग में खुलता है उसका नाम गांधी नेहरू मार्ग हो गया है और राज-दरबार में स्टेट-बैंक का मुख्यालय है। इसी दरबार में कभी राजा दिग्विजय दास के दीवान किशोरीलाल शुक्ल हुआ करते थे जो महल महाविद्यालय में परिवर्तित होते ही पहले प्राचार्य हुए और बाद में मंत्री बने। 1972-73 में जब दीवान किशोरीलाल शुक्ल, मुख्यमंत्री प्रकाशचन्द सेठी सरकार में राजस्व मंत्री थे उन्होंने राजनांदगांव को जिला बनाया, दिग्विजय स्टेडियम दिया और दिग्विजय महाविद्यालय का शासकीयकरण करवाया। मैं इन क्षणों का मुखर गवाह हूं। 
          मेरे स्नातक, स्नातकोत्तर और विधि के वर्षों सहित पांच सक्रिय वर्ष इस महलमें स्थित महाविद्यालय में बीते हैं। मैं इसके चप्पे चप्पे से वाकिफ़ हूं। 

@रा.रामकुमार,




Comments

Dr.R.Ramkumar said…
कान्हा बाघ अभ्यारण्य के खटिया मोचा गेट के रास्ते में पड़नेवाली इंद्री ग्राम पंचायत से लगे बहेरी ग्राम के शिक्षक, गीतकार मेरे शिष्य श्याम बैरागी ने इस लेख के प्रत्युत्तर में निम्न जानकारियां दीं।
[25/11, 7:17 PM] Shyam Bairagi 2: सही है सर। भूल भुलैया की पाती से हम भी परिचित हैं। मैं जब छोटा था तो गाय चराने जंगल चला गया था। पता नहीं किस पौधे या पत्ती पर पैर पड़ गया था। लगभग दो-तीन घंटे मुझे समझ में नहीं आ रहा था कि घर किस तरफ है। मैं एक पेड़ के नीचे बैठ गया था। पिताजी मुझे ढूंढते आए थे और पेड़ के पास से पकड़ कर मुझे घर ले गए थे। तब उन्होंने बताया था कि यह भूलन बेला को खूंद दिया होगा।
Dr.R.Ramkumar said…
[25/11, 7:19 PM] Shyam Bairagi 2: गांव के लोग आज भी कहते हैं अगर जंगल जा रहे हो और यह समझ में ना आए कि घर किस तरफ है तो अपनी पगिया को उतार कर उस पर बैठ जाएं। एक आध घंटे बैठे रहे। फिर अपने आप ध्यान आ जाएगा।
Dr.R.Ramkumar said…
[25/11, 7:21 PM] Shyam Bairagi 2: सर मेरे घर के पीछे तिलई और बहेरी के बीच में जो जंगल पड़ता है यह वहां की घटना है
[25/11 कुछ ।, 7:22 PM] Shyam Bairagi 2: मुझे लगता है सर यह बहुत छोटा पौधा होगा क्योंकि आज तक किसी ने इस पौधे को चिन्हित नहीं किया
[25/11, 7:23 PM] Shyam Bairagi 2: सर गांव में अहीर लोग जो गायों को जंगल चराने लेकर जाते हैं वह लोग अक्सर इसका शिकार होते हैं
[25/11, 7:24 PM] Shyam Bairagi 2: कई बार देर रात घर आते हैं और कहते हैं आज मैं भूलन बेला खूंद दिया था।
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Dr.R.Ramkumar said…
बालाघाट के अन्य शिक्षक, कवि और आकाशवाणी के आंशिक उद्घोषक कुंज किशोर विरुरकर ने टिप्पणी की है :-
"अच्छी और महत्वपूर्ण जानकारी है । हम भी जब छोटे थे तो खेतों की ओर या जंगलों की ओर चले जाते थे। हमारे कई दोस्त उम्र में हमसे बड़े थे। वे अक्सर 'भूलन-बेल' की चर्चा किया करते थे और उससे बचने की भी बात करते थे क्योंकि यह बेल भटकाने वाली बेल होती थी, जो हमे रास्ता भटका देती थी और भी बहुत कुछ।
Dr.R.Ramkumar said…
This comment has been removed by the author.
Dr.R.Ramkumar said…
उषा सक्सेना जी ने एक और नाम सूचित किया है। भूलन कांदा.
इस तरह भूलन-बूटी (पौधा या वनस्पति), भूलन-बेल (लता) और भूलन-कांदा (जड़)

भूलन कांदो के विषय में तो सुना था पर यह भूलनबेलपहली बार सुन रही हूं । अच्छा नवगीत
Dr.R.Ramkumar said…
उमा जगवंशी जी ने एक नाम और सुझाया है। वे लिखती हैं:-बहुत सुंदर रचना, सरजी
भूलनबेल को, चकवा बेल भी कहते है हमारे क्षेत्र में।
Unknown said…
Mujhe meri puri yaddast mitani h.Koi jadi booti btae
shankar yadav said…
डॉक्टर रामकुमार हमें भी भूलन देखनी है

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