कामचोरी ने इस देश को ही नहीं, पूरी दुनिया को ऊंचे-ऊंचे विचार दिये हैं। कामचोरी से विचार प्रक्रिया तीव्र होती है। जितने भी नव्याचार प्रशासन द्वारा मातहतों पर थोपे जाते हैं वे सब कामचोरी की ही गाजरघास हैं, जो बड़ी तेजी से कागजी कार्यवाही के रूप में फैलती हैं और पूरे शासन तंत्र को कामचोरी के नये-नये गुर सिखाती हुई फूलने फलने लगती है।
यह उत्तम विचार भी मुझे कामचोरी के कारण आया। आज मैं गर्व से अपने पूर्वज-द्वय के प्रति कृतज्ञता ज्ञापित कर सकता हूं। कामचोरी को सबसे पहले परखनेवाले मेरे ये पुरोधा हैं मध्यकालीन श्री मलूकदास जी, जिन्होंने ‘अजगर करे ना चाकरी, पंछी करे न काम। दास मलूका कह गये सबके दाता राम’ का पांचजन्य फूंककर आलसियों का मनोबल बढ़ाया। दूसरे मेरे पुरखे है श्री हरिशंकर परसाई जिन्होंने ‘निठल्ले की डायरी’ लिखकर इस परम्परा को आगे बढ़ाया। मैं यह बताकर बेकार का काम नहीं करना चाहता कि तीसरा मैं हूं।
मैं दावा कर सकता हूं कि खाली रहो तो सर्वश्रेष्ठ विचार आते हैं। इसमें कोई मतभेद हो ही नहीं सकता। ‘खाली दिमाग में खुराफात और खाली घर में शैतान रहता है’ कहनेवाले लोग ‘केवल विरोध के लिये विरोध’ करते हैं। इस देश की धार्मिक संस्कृति के खिलाफ है यह कथन। खाली जमीन देखकर ही लोगों को मंदिर बनाने का विचार आता है कि नहीं। खाली घर देखकर लोग कुछ न कुछ करने के लिए घुसपैठ कर ही लेते है। नोट छापना, शराब बनाना, बम बनाना, जैसे अनेक रचनात्मक कार्य खालीपन के ही परिणाम है।
आज मेरे साथ भी ऐसा ही हुआ। खाली बैठा था। पत्नी चाय परांठा ले आयी। खाते हुए चबाना खूब पड़ता है। यही श्रम मुझे भारी पड़ गया। मुझे लगा कि हम लोग कितना समय बर्बाद करते हैं। गेहूं को सीधा नहीं खा सकते। उसका आटा बनायेंगे। फिर उसकी रोटी बनायेंगे। फिर उसे चबायेंगे। आटा बना ही लिया है तो उसे खा जाओ। चबाने में समय क्यों व्यर्थ करते हो। यह हमारा चटोरापन है। जानबूझकर अपने को चूल्हे में झौंकना है। कामचोर लोग जानबूझकर ऐसा काम पकड़ लेत हैं जिससे मूल काम से बचाा जा सके। चलो रोटियां बना ली। फिर परांठे क्यों बनाये। मोयन वाली रोंटी क्यों बनायी। फिर मसालेवाली रोटी क्यों बनायी। फिर आलू परांठे क्यों बनाये। तेली के घर तेल होता है तो पहाड़ को जाकर नहीं तेल से नहला देता। तुम्हारे यहां आधा लिटर तेल आया नहीं कि चढ़ा ली कढ़ाही और तलने लगे पूरियां। ये तो सिर्फ आटे का उदाहरण है साहब, दूसरी चीजों के साथ भी इस देश के रसोई घरों में कितने प्रयोग हो रहे हैं हम सब जानते हैं।
यह सब क्यों हो रहा है? यह सब कौन कर रहा है? यह सब कोई कर रहा है तो उसके पीछे क्या मानसिकता है? मेरे शोध का यह निष्कर्ष है मित्रों कि यह सब स्त्रियां कर रही है। ठहरिये, सुनिये जरा, समझिये पहले। एकदम से लाठी लेकर मत पिल पड़िये। मैं दोष स्त्रियों को कतई नहीं दे रहा हूं। स्त्रियां यह सब अपनी मर्जी से नहीं कर रही हैं। एक सोची समझी साजिश के तहत औरतों को चूल्हे में झौंका गया है ताकि पुरुष प्रधान समाज में वे अपना दूसरा हुनर न दिखा सके। औरतें भी क्या करें उनकी मेधा नई नई रेसिपी निकाल रही हैं और पुरुषों के मेदे में डाल रही है। आदमी औरतों को काम से लगाए हुए है, औरतें कामवाले आदमी बेकाम किये हुए हैं। इसलिये ये नकारात्मक मुहावरा बना ‘गया काम से’। यह तब बना होगा जब कामचोरों ने काम के लिये जानेवाले आदमी पर फिकरा कसा होगा।
भोजन के लिए जीने मरनेवाले विश्व में मनुष्य सुबह से उठकर केवल भोजन का चिन्तन करता है। पांच बजे से भोजन के ठेले खुल जाते हैं। रात देर तक चलते है। कहीं कहीं तो दिन रात चलते है। घर में औरतो को आराम नहीं है और बाहर होटलों को। मनुष्य हर चीज को खा रहा है। हर चीज की अलग अलग रेसिपी तैयार कर रहा है। राजनैतिक घोषणापत्रों की तरह हर रेसिपी के गुण उछाले जा रहे हैं। मार्केटिंग की जा रही है।
और तो और आदमी अपने शरीर और शरीर के अंगों तक की रेसिपी बेच रहा है। सिक्स पैक पेट बिक रहा है, जीरो साइज जिस्म बिक रहा है। सोला का डोला बिक रहा है तो छप्पन की छाती बिक रही है। खून बिक रहा है, किडनी बिक रही है। निस्संतानों को जीवन-द्रव्य बेचा जा रहा है। जमीर बेचा जा रहा है। ईमान और धर्म को बिकते हुए सदियां गुज़र गईं और ये धंधें हैं कि धड़ल्ले से चल रहे हैं।
मज़े की बात है कि सांसें भी बिक रही हैं। सांसों की अलग-अलग दूकानें खुली हुई हैं सैंकड़ों सालों से। अभी भी खुल रही है। किसी की ‘कपाल-भांति’ की दूकान चल रही है तो किसी के प्राणायाम शिविर लग रहे हैं। कोई ‘श्वांस की क्र्रियात्मक’ रेसिपी बेच रहा है तो किसी किसी का ‘सांसों का संपूर्ण कारखाना’ ही ‘योग-शाला’ के नाम से चल रहा है।
लोगों का बस चले तो सांसों में नमक मिर्च लगाकर प्लेटों में सजाने लग जायें। सर! ये तड़का सांस है, ये सांस मखनी है। इस सांस को राई जीरा से बघारा है सर!, इस सांस में शुद्ध घी है। इसे टेस्ट कीजिये, ये हर्बल सांस है। ये सांस चाइनीज है, ये अमेरिकन है। इस सांस में स्वीट-कार्न का मजा है। इस सांस में रोमांटिक फ्लेवर है। ये सांसें शुद्ध देशी हैं सर! और इन्हें जरूर नोश फरमायें, ये इंटरनेशनल है।
सांसों पर तो लोग गाने तक बनाकर बेच रहे हैं। सांसों को सांसों से मिलने दो जरा। मेरे हाथ में तेरा हाथ है...मेरी सांस से तेरी सांस आये......और इस सांस को सुगंधित बनाने के लिए कई विदेशी कंपनी माउथ फ्रेशनर और डिओ, स्प्रे वगैरह बेच रही है।
ओह! मेरी तो सांसें फूल रही हैं। थोड़ी सांस ले लूं।
फिर एक और बात। मेरे पास तो काम नहीं है। आपको तो होगा। तो आज बस करते हैं। 27.08.14
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