(गीतों की पैथालाजी मे प्यार का इ.एस.आर,) कभी-कभी किसी-किसी दिन, सुबह रोज़ की तरह नहीं होती, सूरज आसमान से नहीं निकलता, किरणें दरवाजों से नहीं आतीं, रोशनी बाहर नहीं फैलती, गीत होठों से नहीं झरते, संगीत कानों से नहीं सुना जाता। कभी-कभी किसी-किसी दिन, कोई कोई सुबह, बिल्कुल अलग तरह की होती है, सूरज अंधेरे में खड़े, किसी मासूम बच्चे की तरह, अभी अभी जागे हुए सपनों की, आंखें मलता सा लगता है, खुशियों के फूलों को जमाने से छुपाता सा, आसमान उसकी पलकों में, दुबका हुआ लगता है, किरनें उसके होंठों में चमकती हैं, गीत उसके अंदर गूंजते हैं, संगीत उसके दिल में बजता है। कभी कभी किसी किसी दिन। आज कुछ ऐसा ही दिन था, जो रोज की तरह नहीं था। वैसे भी रोज वही दिन कभी नहीं होता। कभी कभी पिछले दिन का कुछ छूटा हुआ रात में कुछ नया जोड़कर सुबह सुबह आ जाता है। कभी उसके पास पिछला कुछ होता ही नहीं, कुछ बिल्कुल नया सा लेकर आ जाता है जो आश्चर्य की तरह अनोखा और जानने लायक होता है। आज सुबह वैसे ही हुआ। टेबल पर चमकता हुआ ‘स्पर्श पटलीय कोशिका चलितभाष’ (टच स्क्रीन सेल फोन) मेरा ध्यान खींचने लगा। उसे क्या हो गया...