मित्रों!
कुछ गर्मी से बचाए हुए फूल प्रस्तुत हैं, उम्मीद है आप तक आते आते इनकी खुष्बू बरकरार रहेगी....
लिखकर बताइये कि
आप के उधर गर्मी के क्या हाल हैं।
इधर तो ये हैं..........
नदियां छूकर जल मरीं, तले अतल सब ताल ।
वह भागे चारों तरफ़, पहन कांच की खाल ।।
लपट झपटकर लूटता, उड़ता ले आकाश ।
खींच दुपट्टे फाड़ता, धूल झौंक बदमाश ।।
होंठ फटे, सूखे नयन, संदेहों में नेह ।
हरे दुपट्टे से ढंकी, बिखरी धूसर देह ।।
वृक्षों से टकरा गिरी, भरी जवानी धूप ।
उनकी बांहों में पड़ा, सांवल शीतल रूप ।।
गर्मी के उपकार को, भूल सकेगा कौन ।
फिर प्यासों के होंठ तक, गागर आई मौन ।।
बढ़ता जाता ताप है, घटती जाती भाप।
धरा निर्जला कर रही, मृत्युंजय का जाप।।
जलती धरती, जल रहे जलाशयों के घाट।
पनघट मरघट हो गए, बस्ती सन्न सनाट।।
(सन्न सनाट- मूच्छित)
आंखें पथराई हुई, पपड़ाए हैं होंट।
भट्टी सी निकली हवा, दम जाएगी घोंट।।
नागिन सी लू लपकती, हवा हुई है व्याल।
हर पल अब लगने लगा, आग उगलता काल।।
Comments
बहुत सजीव चित्रण किया आपने गर्मी का और उससे उपजे हालात का. अब तो सोच सोच कर भी गर्मी लग रही है. बहुत सुंदर प्रस्तुति.
आभार अच्छी रचना से रूबरू करने के लिये.
हां कुछ करना ही होगा।
Rajpurohit Ji,
Premsarover Ji,
Aapka Shukriya,
Aapne housla Badhaya.