ब्रजकुमारी एकांतवास कर रहीं थीं। रात दिन राधामोहन के ध्यान में डूबे रहकर उपासना और उलाहना इन दो घनिष्ठ सहेलियों के साथ उनके दिन बीत रहे थे। भक्ति और प्रीति चिरयुवतियां निरन्तर उनकी सेवा में लगी रहती थीं।
एक दिन उन्हें ज्वर चढ़ा। यद्यपि ज्वर, पीड़ा, संताप, कष्ट, व्यवधान आदि आये दिन उनके अतिथि रहते थे। उनकी आवभगत में भी वे भक्ति और प्रीति के साथ यथोचित भजन और आरती प्रस्तुत करती थीं। आज भी वे नियमानुसार जाप और कीर्तन करने लगीं।
उनकी आरती और आर्तनाद के स्वर द्वारिकाधीश तक पहुंचे। उनके गुप्तचर अंतर्यामी ‘सर्वत्र’ और अनंतकुमार ‘दिव्यदृष्टि’ उन्हें राधारानी के पलपल के समाचार दिया करते थे।
समाचार प्राप्त होते ही तत्काल वे उनके पास पहुंच गए। भक्ति और प्रीति ने दोनों के लिए एकांत की पृष्ठभूमि बना दी और गोपनीय निज सहायिका समाधि को वहां तैनात कर दिया। उपासना और उलाहना मुख्य अतिथि के स्वागत सत्कार में लग गईं।
‘‘कैसी हो?’’ आनंदकंद ने चिरपरिचित मुस्कान के साथ पूछा।
‘‘जैसे तुम नहीं जानते?’’ - माधवप्रिया ने सदैव की तरह तुनककर कहा।
‘‘पता चला है कि तुम्हें ज्वर है।’’ हंसकर माधव ने प्रिया के माथे पर हथेलियां रख दीं। राधिका ने आंखें बंद कर लीं। एक अपूर्व सुख ने उनकी आंखों की कोरों को भिंगा दिया। मनभावन ने उन्हें पोंछते हुए कहा - ‘‘ज्वार और भाटे तो आते रहते हैं राधे! परन्तु समुद्र अपना धैर्य और संयम नहीं खोता। उठती हुई उद्दण्ड लहरें किनारों को दूर तक गीला कर देती हैं...फिर हारकर वे समुद्र में जा समाती हैं।’’
‘‘बातें बनाना कोई तुमसे सीखे।’’ - मुस्कुराकर राधा ने आंखें खोल दीं। फिर उलाहना देती हुई बोली -‘‘हरे हरे ! बस बन गया बतंगड़....थोड़ी सी समस्या आयी नहीं कि लगे मन बहलाने। पता नहीं कहां कहां के दृष्टांत खोज लाते हो।’’- उरंगना का उपालंभ सुनकर आराध्य हंसने लगे तो आराधना भी हंसने लगीं। कुछ पल इसी में बीत गए।
थोड़ी देर में राधिका फिर अन्यमनस्क (अनमनी) हो गईं। कुछ देर सन्नाटा खिंचा रहा। उनका मन बहलाने के लिए चित्तरंजन ने फिर एक बहाना खोज लिया -‘‘ राधे! इच्छा हो रही है कि तुम्हें बांसुरी सुनाऊं। पर कैसे सुनाऊं? वह बांसुरी तो किसी चोर ने कब की चुरा ली।’’
राधा ने आंखें तरेरकर कहा - ‘‘ तुम लड़ाई करने आए हो या सान्त्वना देने?’’
भोलेपन का स्वांग रचते हुए छलिया ने कहा -‘‘मैंने तो कुछ कहा ही नहीं.. तुम पता नहीं क्या समझ बैठीं...?’’
‘‘रहने दो...जो तुम्हारे प्रपंच को न समझे, उसे बताना .. मैं तो तुम्हारी नस नस पहचानती हूं.....बहुरुपिये कहीं के..’’ राधा के गौरांग कपोल गुलाबी होने लगे।
आनंद लेते हुए आनंदवर्द्धन ने कहा -‘‘अच्छा तो तुम सब जानती हो...?’’
‘‘हां..हां..सब जानती हूं...कोई पूछे तो ...’’ मानिनी ने मान भरे दर्प से कहा।
‘‘अच्छा .. तो बताओ...मेरी बांसुरी कहां है?’’ - त्रिभंगी ने तपाक् से पूछा।
राधा के चेहरे पर हंसी की एक लहर आई। उसने उसे तत्परता से छुपाकर कहा -‘‘मुझे क्या पता....क्या मैं चुराई हुई वस्तुओं को सहेजती रहती हूं....कि मैं कोई चोरों की नायिका हूं...?’’
‘‘क्या पता...तुम्हीं कह रही हो कि तुम्हें सब पता है....फिर किसी के बारे में कोई कुछ नहीं जानता...मैंने कोई गुप्तचर तो नहीं लगा रखे हैं....बस एक अनुमान से कहा कि कौन है जो मेरी प्राणप्रिय बांसुरी को हाथ लगा सकता है।’’ नटखट ने टेढ़ी मुसकान के साथ कहा तो अलहड़ ने भी कृत्रिम जिज्ञासा से कहा -‘‘क्या अनुमान है तुम्हारा ...सुनूं तो?’’
‘‘अब कौन छू सकता है उसे ....तुम्हारे अतिरिक्त...।’’ कृष्ण ने दृढ़ता से कहा।
‘‘मेरा नाम न लेना ...जाने कहां कहां जाते हो ..किस किसके साथ रहते हो...मैं क्या जानूं तुम्हारी घांस फूस की लकड़िया को......मेरे पास क्या कमी है?'’ फिर कनखियों से उसने मनमीत की ओर देखकर कहा -‘‘तुम्हें ही नहीं मिलता कुछ...कहीं इसका कुछ लिया ...कहीं उसका कुछ..’’
‘‘तुम्हारा क्या लिया?’’ अबोध बनते हुए कृत्रिमता से कृष्ण ने कहा। राधा तमतमाकर कुछ कहना ही चाहती थीं कि कृष्ण हंसने लगे। उनका हाथ पकड़ककर बोले - ‘‘अब जाने दो प्रिये! बता भी दो, कहां छुपाई है बांसुरी...कुछ नई तानें सुनाकर तुम्हारा ही मन बहलाना चाहता हूं...’’
बृषभानु लली ने मुस्कुराकर कहा -‘‘तो एक शर्त है...प्रतिज्ञा करो कि अब तुम एक पल भी मेरे पास से कहीं और न जाओगे....।’’
‘‘ओहो......!!‘‘ - रणछोड़ ने सिर हिलाकर कहा - ‘‘इसे ही कहते हैं....न नौ मन तेल होगा, न राधा नाचेगी.....प्रिये! तुम तो जानती ही हो कि केवल कहने को मैं द्वारिका का अधिपति हूं....इन्द्रप्रस्थ भी जाना होता है और मथुरा भी.....जहां से भी पुकार आती है और जहां दाऊ भेजते हैं, जाना पड़ता है.....मैं तो अपना ही स्वामी नहीं हूं.....’’ सर्वेश ने भुवनमोहिनी की अपने सर्वाधीन होने के पक्ष में तर्क देकर बहलाने का प्रयास किया।
‘‘बस बस .....‘‘ राधा ने कृष्ण का ध्यान उत्तरदायित्वों की ओर से हटाने का उपक्रम किया -‘‘तुम्हारे अनंत अध्याय अब यहीं रहने दो ......मैं अर्जुन नहीं हूं और ज्ञानी भी नहीं हूं......और यह तान तो मुझे मत ही सुनाओ ...... सुनानी है तो बांसुरी सुनाओ...’’
‘‘हां..हां ...लाओ ना, कहां है बांसुरी?’’ कृष्ण ने बड़ी तत्परता से अवसर दिये बिना कहा।
‘‘हूउंउऊं...आ गए न अपने वास्तविक रूप पर...’’ राधा इठलाकर चिहुंकी और फिर मुकरकर बोली - ‘‘जाओ, मुझे कुछ नहीं पता। बड़े आए छलिया छल करने......तुम्हें बांसुरी मिल जायेगी तो फिर ...तो...फिर ...तुम पलटकर नहीं आओगे...अभी बांसुरी के बहाने आ तो जाते हो..’’ उनकी पलकें गीली होने लगीं।
कृष्ण ने बात पलटकर कहा - ‘‘जाने दो...मैं अब छलिया तो हो ही गया हूं...पर सोच लो ... तुम्हें भी लोग बंसीचोर और मुरलीचोर कहेंगे..।’’
‘‘मुझे कोई ऐसा नहीं कहेगा...तुम्हीं मुझे लांछित करने की चेष्टा कर रहे हो...है कोई, जो प्रमाण के साथ कह सके कि मैंने तुम्हारी बंसेड़ी ली है? तुम्हीं कह रहे हो बस....किसी ने सही कहा है ...चोरों को सब चोर ही दिखाई देते हैं...’’ राधा ने ठसक के साथ कहा।
‘‘मैं चोर ?’’ कृष्ण ने अचंम्भित होने का स्वांग रचते हुए कहा ‘‘अब यह नया लांछन दे रही हो तुम.. पहले छलिया ...अब चोर। मुझे कौन कहता है चोर ?’’
‘‘सब कहते हैं.....क्यों, बचपन में मक्खन चुराया नहीं करते थे? सारी ग्वालनें त्रस्त थीं तुमसे..पलक झपकते ऐसे माखन चुराते थे जैसे कोई किसी की आंखों से काजल चुराले.. ’’
‘‘बालपन की बातें न करो...तब कहां बोध रहता है?’’ - कृष्ण मुस्कुराए।
‘‘पढ़ने गए तो अपने सहपाठी सुदामा के चिउड़े किसने चुराए थे? ’’ राधा आंखें नचाकर बोली।
‘‘वह तो मित्रता थी....एक मित्र दूसरे मित्र की वस्तुएं ले लिया करता है..इसे चोरी नहीं कहते..बंधुत्व कहते हैं।’’ - कृष्ण की मुस्कुराहट गहरी हो रही थी।
‘‘कपड़े चुराना तो चोरी है न? जो तुम्हारे मित्र नहीं हैं, उनके वस्त्रों की चोरी तो की थी न तुमने? कि वह भी झूठ है?’’ - राधा ने रहस्यात्मक स्वर में कहा।
‘‘किसके कपड़े चुराए थे मैंने?’’ लीलाधर ने अनजान बनते हुए कहा।
‘‘अब मेरा मुंह न खुलवाओ...जैसे कुछ जानते ही नहीं....लाज नहीं आती तुम्हें?’’ - लाजवंती ने लज्जा के साथ कहा।
‘‘अरे जब कुछ किया ही नहीं तो काहे की लाज? तुम तो मनगढ़न्त बातें करने लगीं....न देना हो बांसुरी तो ना दो...लांछित तो न करो।’’ - नटवर ने कृत्रिम रोष से कहा तो रासेश्वरी बिफरकर बोली - ‘‘झूठे कहीं के...नदी में नहाने गई गोप कन्याओं के कपड़े नहीं चुरा लिये थे तुमने.? सारा ब्रज इसका साक्षी है। जानबूझकर धर्मात्मा न बनो!’’ - सांवले कृष्ण ने देखा कि हेमवर्णा माधवी उत्तेजना में लाल हो गयी थी।
यदुनन्दन हंसने लगे - ‘‘चुराए नहीं थे गोपांगने! उनकी रक्षा की थी, सहायता की थी। नदी के तट पर खुले में रखे वस्त्र सुरक्षित नहीं थे। उन वस्त्रों को बंदर तथा दूसरे पशु क्षतिग्रस्त कर सकते थे...गौएं चबा सकती थी......’’
राधा ललककर हाथ नचाती हुई बोली - ‘‘चुप रहो ... अपने तर्क अपने पास रहने दो ... ज्यादा लीपा पोती न करो.. . गौओं की बात करते हो!.... तो सुनो ... तुमको सब सम्मानपूर्वक गोपाल कहते हैं.. पर गाय की चोरी का लांछन भी तो है तुम पर.....इसके उत्तर में है कोई नया कुतर्क तुम्हारे पास?’’
‘‘कुतर्क नहीं हैं शुभांगिनी! एक ज्योतिषीय त्रुटी की बात है इसमें...तुम भी जानती हो..’’ - राधावल्लभ ने लगभग ठहाका लगाकर कहा।
चिढ़कर राधा ने कहा - ‘‘झूठे ठहाके न लगाओ स्वांगी! ...तुम ज्योतिष को कब से मानने लगे?.. सारी मान्यताओं को झुठला देनेवाले क्रांतिकारी! तुम किस ज्योतिष के फेर में मुझे बहका रहे हो?’’
‘‘बहका मैं नहीं रहा हूं ...ज्योतिष बहका रहा है? क्या तुम नहीं जानती कि मैंने भादों की चौथ का चांद देख लिया था तो तुमने कहा था....'शिव! शिव!! अशुभ हो गया ... तुम पर चोरी का आरोप लग सकता है।’ घटना तो तुम्हें याद है न ......’’
राधा ने मुंह बनाकर कहा - ‘‘रहने दो, मुझे कुछ नहीं याद ..’’
मनमोहन ने इस पर फिर ठहाका लगाया और बोले - ‘‘याद तो है मानिनी, नहीं मानती तो बता देता हूं कि क्या हुआ .....कि एक बार कदंब के नीचे मैं सो रहा था ... तुम्हारी ही प्रतीक्षा में नींद लग गई थी। कुछ चोर गाय चुराकर भाग रहे थे. ... गोस्वामियों ने उनका पीछा किया ... वे गाय छोड़कर भाग गए .... गाय भटककर मेरे पास आईं और पेड़ की छांह में जुगाली करने लगीं ...गोस्वामी आए .... मैं कंबल औढ़े पड़ा था ... वे पहचान न पाए... उन्होंने मुझे चोर समझ लिया ... सुन रही हो गो-पाल को गो-चोर समझ लिया!! बस, हल्ला मच गया... बाद में तो सत्य सामने आ गया ...पर तुमने और तुम्हारी सहेलियों ने छेड़ने के लिए अब भी मुझ पर यह छाप धरी हुई है ..... किन्तु, प्रिये! .......’’ - कृष्ण राधा के थोड़ा पास आकर बोले - ‘‘लांछनों का टोकरा समाप्त हो गया हो, तो चित्त को शांति पहुंचे, ऐसी बातें करें?’’
‘‘कौन से चित्त की शांति की बातें कर रहे हो चितचोर!’’ राधा की आंखें डबडबाने लगीं - ‘‘चित्त होता तो शांति होती...मन है तो वह वश में नहीं है....वह भी तुम्हारा ही गुप्तचर है...आंखें भी बस तुम्हारी अनुचरी हैं...उन आंखों की नींद भी तुमने चुरा लीं हैं। रात दिन जागकर जैसे वे मुझपर ही पहरा देती रहती हैं। तुम कहते हो, चित्त की शांति की बातें करें ’...कैसे करें ?’’ कहते कहते राधा का स्वर रुंध गया ...आंखों से आंसू टपकने लगे। चितचोर ने आगे बढ़कर प्रेयसी के कपोलों से बहने वाले आंसू को तर्जनी से समेटते हुए कहा - ‘‘ओह! ये नीलमणि से अनमोल अश्रुकण !!...इन्हें व्यर्थ न बहाओ... अभी तो चौथ के चांद का एक और आरोप मुझपर शेष है.... वही नीलमणि की चोरी का ..जिसके कारण जामवंत से मेरा द्वंद्व हुआ था...। फिर चित की और निद्रा की प्रसिद्ध चोरनी तो तुम भी हो.... हमारे ये दो अपराध तो समान हैं...हैं न?’’
जगन्नाथ कुछ और कहते कि राधा ने बीच में टोक दिया -‘‘बस, अब चुप भी करो।''
चितचोर की चितचोरनी रोने लगीं। गौरांगी ने श्यामल की काली कंबली में अपना स्वर्णाभ मुख छुपा लिया। वेणुमाधव भी जैसे पराभूत हो चुके थे। वे अपने अंदर उमड़ते ज्वार को भरसक रोकते हुए धीरे धीरे अपनी उर-बेल के केशों को सहलाते रह गए।
डॉ. आर.रामकुमार,
‘‘हां..हां..सब जानती हूं...कोई पूछे तो ...’’ मानिनी ने मान भरे दर्प से कहा।
‘‘अच्छा .. तो बताओ...मेरी बांसुरी कहां है?’’ - त्रिभंगी ने तपाक् से पूछा।
राधा के चेहरे पर हंसी की एक लहर आई। उसने उसे तत्परता से छुपाकर कहा -‘‘मुझे क्या पता....क्या मैं चुराई हुई वस्तुओं को सहेजती रहती हूं....कि मैं कोई चोरों की नायिका हूं...?’’
‘‘क्या पता...तुम्हीं कह रही हो कि तुम्हें सब पता है....फिर किसी के बारे में कोई कुछ नहीं जानता...मैंने कोई गुप्तचर तो नहीं लगा रखे हैं....बस एक अनुमान से कहा कि कौन है जो मेरी प्राणप्रिय बांसुरी को हाथ लगा सकता है।’’ नटखट ने टेढ़ी मुसकान के साथ कहा तो अलहड़ ने भी कृत्रिम जिज्ञासा से कहा -‘‘क्या अनुमान है तुम्हारा ...सुनूं तो?’’
‘‘अब कौन छू सकता है उसे ....तुम्हारे अतिरिक्त...।’’ कृष्ण ने दृढ़ता से कहा।
‘‘मेरा नाम न लेना ...जाने कहां कहां जाते हो ..किस किसके साथ रहते हो...मैं क्या जानूं तुम्हारी घांस फूस की लकड़िया को......मेरे पास क्या कमी है?'’ फिर कनखियों से उसने मनमीत की ओर देखकर कहा -‘‘तुम्हें ही नहीं मिलता कुछ...कहीं इसका कुछ लिया ...कहीं उसका कुछ..’’
‘‘तुम्हारा क्या लिया?’’ अबोध बनते हुए कृत्रिमता से कृष्ण ने कहा। राधा तमतमाकर कुछ कहना ही चाहती थीं कि कृष्ण हंसने लगे। उनका हाथ पकड़ककर बोले - ‘‘अब जाने दो प्रिये! बता भी दो, कहां छुपाई है बांसुरी...कुछ नई तानें सुनाकर तुम्हारा ही मन बहलाना चाहता हूं...’’
बृषभानु लली ने मुस्कुराकर कहा -‘‘तो एक शर्त है...प्रतिज्ञा करो कि अब तुम एक पल भी मेरे पास से कहीं और न जाओगे....।’’
‘‘ओहो......!!‘‘ - रणछोड़ ने सिर हिलाकर कहा - ‘‘इसे ही कहते हैं....न नौ मन तेल होगा, न राधा नाचेगी.....प्रिये! तुम तो जानती ही हो कि केवल कहने को मैं द्वारिका का अधिपति हूं....इन्द्रप्रस्थ भी जाना होता है और मथुरा भी.....जहां से भी पुकार आती है और जहां दाऊ भेजते हैं, जाना पड़ता है.....मैं तो अपना ही स्वामी नहीं हूं.....’’ सर्वेश ने भुवनमोहिनी की अपने सर्वाधीन होने के पक्ष में तर्क देकर बहलाने का प्रयास किया।
‘‘बस बस .....‘‘ राधा ने कृष्ण का ध्यान उत्तरदायित्वों की ओर से हटाने का उपक्रम किया -‘‘तुम्हारे अनंत अध्याय अब यहीं रहने दो ......मैं अर्जुन नहीं हूं और ज्ञानी भी नहीं हूं......और यह तान तो मुझे मत ही सुनाओ ...... सुनानी है तो बांसुरी सुनाओ...’’
‘‘हां..हां ...लाओ ना, कहां है बांसुरी?’’ कृष्ण ने बड़ी तत्परता से अवसर दिये बिना कहा।
‘‘हूउंउऊं...आ गए न अपने वास्तविक रूप पर...’’ राधा इठलाकर चिहुंकी और फिर मुकरकर बोली - ‘‘जाओ, मुझे कुछ नहीं पता। बड़े आए छलिया छल करने......तुम्हें बांसुरी मिल जायेगी तो फिर ...तो...फिर ...तुम पलटकर नहीं आओगे...अभी बांसुरी के बहाने आ तो जाते हो..’’ उनकी पलकें गीली होने लगीं।
कृष्ण ने बात पलटकर कहा - ‘‘जाने दो...मैं अब छलिया तो हो ही गया हूं...पर सोच लो ... तुम्हें भी लोग बंसीचोर और मुरलीचोर कहेंगे..।’’
‘‘मुझे कोई ऐसा नहीं कहेगा...तुम्हीं मुझे लांछित करने की चेष्टा कर रहे हो...है कोई, जो प्रमाण के साथ कह सके कि मैंने तुम्हारी बंसेड़ी ली है? तुम्हीं कह रहे हो बस....किसी ने सही कहा है ...चोरों को सब चोर ही दिखाई देते हैं...’’ राधा ने ठसक के साथ कहा।
‘‘मैं चोर ?’’ कृष्ण ने अचंम्भित होने का स्वांग रचते हुए कहा ‘‘अब यह नया लांछन दे रही हो तुम.. पहले छलिया ...अब चोर। मुझे कौन कहता है चोर ?’’
‘‘सब कहते हैं.....क्यों, बचपन में मक्खन चुराया नहीं करते थे? सारी ग्वालनें त्रस्त थीं तुमसे..पलक झपकते ऐसे माखन चुराते थे जैसे कोई किसी की आंखों से काजल चुराले.. ’’
‘‘बालपन की बातें न करो...तब कहां बोध रहता है?’’ - कृष्ण मुस्कुराए।
‘‘पढ़ने गए तो अपने सहपाठी सुदामा के चिउड़े किसने चुराए थे? ’’ राधा आंखें नचाकर बोली।
‘‘वह तो मित्रता थी....एक मित्र दूसरे मित्र की वस्तुएं ले लिया करता है..इसे चोरी नहीं कहते..बंधुत्व कहते हैं।’’ - कृष्ण की मुस्कुराहट गहरी हो रही थी।
‘‘कपड़े चुराना तो चोरी है न? जो तुम्हारे मित्र नहीं हैं, उनके वस्त्रों की चोरी तो की थी न तुमने? कि वह भी झूठ है?’’ - राधा ने रहस्यात्मक स्वर में कहा।
‘‘किसके कपड़े चुराए थे मैंने?’’ लीलाधर ने अनजान बनते हुए कहा।
‘‘अब मेरा मुंह न खुलवाओ...जैसे कुछ जानते ही नहीं....लाज नहीं आती तुम्हें?’’ - लाजवंती ने लज्जा के साथ कहा।
‘‘अरे जब कुछ किया ही नहीं तो काहे की लाज? तुम तो मनगढ़न्त बातें करने लगीं....न देना हो बांसुरी तो ना दो...लांछित तो न करो।’’ - नटवर ने कृत्रिम रोष से कहा तो रासेश्वरी बिफरकर बोली - ‘‘झूठे कहीं के...नदी में नहाने गई गोप कन्याओं के कपड़े नहीं चुरा लिये थे तुमने.? सारा ब्रज इसका साक्षी है। जानबूझकर धर्मात्मा न बनो!’’ - सांवले कृष्ण ने देखा कि हेमवर्णा माधवी उत्तेजना में लाल हो गयी थी।
यदुनन्दन हंसने लगे - ‘‘चुराए नहीं थे गोपांगने! उनकी रक्षा की थी, सहायता की थी। नदी के तट पर खुले में रखे वस्त्र सुरक्षित नहीं थे। उन वस्त्रों को बंदर तथा दूसरे पशु क्षतिग्रस्त कर सकते थे...गौएं चबा सकती थी......’’
राधा ललककर हाथ नचाती हुई बोली - ‘‘चुप रहो ... अपने तर्क अपने पास रहने दो ... ज्यादा लीपा पोती न करो.. . गौओं की बात करते हो!.... तो सुनो ... तुमको सब सम्मानपूर्वक गोपाल कहते हैं.. पर गाय की चोरी का लांछन भी तो है तुम पर.....इसके उत्तर में है कोई नया कुतर्क तुम्हारे पास?’’
‘‘कुतर्क नहीं हैं शुभांगिनी! एक ज्योतिषीय त्रुटी की बात है इसमें...तुम भी जानती हो..’’ - राधावल्लभ ने लगभग ठहाका लगाकर कहा।
चिढ़कर राधा ने कहा - ‘‘झूठे ठहाके न लगाओ स्वांगी! ...तुम ज्योतिष को कब से मानने लगे?.. सारी मान्यताओं को झुठला देनेवाले क्रांतिकारी! तुम किस ज्योतिष के फेर में मुझे बहका रहे हो?’’
‘‘बहका मैं नहीं रहा हूं ...ज्योतिष बहका रहा है? क्या तुम नहीं जानती कि मैंने भादों की चौथ का चांद देख लिया था तो तुमने कहा था....'शिव! शिव!! अशुभ हो गया ... तुम पर चोरी का आरोप लग सकता है।’ घटना तो तुम्हें याद है न ......’’
राधा ने मुंह बनाकर कहा - ‘‘रहने दो, मुझे कुछ नहीं याद ..’’
मनमोहन ने इस पर फिर ठहाका लगाया और बोले - ‘‘याद तो है मानिनी, नहीं मानती तो बता देता हूं कि क्या हुआ .....कि एक बार कदंब के नीचे मैं सो रहा था ... तुम्हारी ही प्रतीक्षा में नींद लग गई थी। कुछ चोर गाय चुराकर भाग रहे थे. ... गोस्वामियों ने उनका पीछा किया ... वे गाय छोड़कर भाग गए .... गाय भटककर मेरे पास आईं और पेड़ की छांह में जुगाली करने लगीं ...गोस्वामी आए .... मैं कंबल औढ़े पड़ा था ... वे पहचान न पाए... उन्होंने मुझे चोर समझ लिया ... सुन रही हो गो-पाल को गो-चोर समझ लिया!! बस, हल्ला मच गया... बाद में तो सत्य सामने आ गया ...पर तुमने और तुम्हारी सहेलियों ने छेड़ने के लिए अब भी मुझ पर यह छाप धरी हुई है ..... किन्तु, प्रिये! .......’’ - कृष्ण राधा के थोड़ा पास आकर बोले - ‘‘लांछनों का टोकरा समाप्त हो गया हो, तो चित्त को शांति पहुंचे, ऐसी बातें करें?’’
‘‘कौन से चित्त की शांति की बातें कर रहे हो चितचोर!’’ राधा की आंखें डबडबाने लगीं - ‘‘चित्त होता तो शांति होती...मन है तो वह वश में नहीं है....वह भी तुम्हारा ही गुप्तचर है...आंखें भी बस तुम्हारी अनुचरी हैं...उन आंखों की नींद भी तुमने चुरा लीं हैं। रात दिन जागकर जैसे वे मुझपर ही पहरा देती रहती हैं। तुम कहते हो, चित्त की शांति की बातें करें ’...कैसे करें ?’’ कहते कहते राधा का स्वर रुंध गया ...आंखों से आंसू टपकने लगे। चितचोर ने आगे बढ़कर प्रेयसी के कपोलों से बहने वाले आंसू को तर्जनी से समेटते हुए कहा - ‘‘ओह! ये नीलमणि से अनमोल अश्रुकण !!...इन्हें व्यर्थ न बहाओ... अभी तो चौथ के चांद का एक और आरोप मुझपर शेष है.... वही नीलमणि की चोरी का ..जिसके कारण जामवंत से मेरा द्वंद्व हुआ था...। फिर चित की और निद्रा की प्रसिद्ध चोरनी तो तुम भी हो.... हमारे ये दो अपराध तो समान हैं...हैं न?’’
जगन्नाथ कुछ और कहते कि राधा ने बीच में टोक दिया -‘‘बस, अब चुप भी करो।''
चितचोर की चितचोरनी रोने लगीं। गौरांगी ने श्यामल की काली कंबली में अपना स्वर्णाभ मुख छुपा लिया। वेणुमाधव भी जैसे पराभूत हो चुके थे। वे अपने अंदर उमड़ते ज्वार को भरसक रोकते हुए धीरे धीरे अपनी उर-बेल के केशों को सहलाते रह गए।
डॉ. आर.रामकुमार,
Comments
बहुत - बहुत शुभकामना
धन्यवाद डा.रामकुमार जी,
-ज्ञानचंद मर्मज्ञ
saadar!
ram se gaye.......aabhar
aabhar..
एक दिन उन्हें ज्वर चढ़ा। यद्यपि ज्वर ,पीड़ा ,संताप ,कष्ट ,व्यवधान आदि आये दिन उनके अतिथि रहते थे। उनकी आवभगत में भी वे भक्ति और प्रीति के साथ यथोचित भजन और आरती प्रस्तुत करती थीं। आज भी वे नियमानुसार जाप और कीर्तन करने लगीं।
धारणा ,ध्यान और समाधि का कितनी योगमय चित्रण किया है आपने। प्रतीक और बिंब के माध्यम से आप अध्यात्म की एक एक सीढ़ीका वर्णन हंसी खेल में कर गए आप।
श्रृंगार भी संन्यास भी, डाॅ.साहब इस सीढ़ी पर कोई योगाभ्यासी ही पैंठ सकता है।
‘‘मेरा नाम न लेना ...जाने कहां कहां जाते हो ..किस किसके साथ रहते हो...मैं क्या जानूं तुम्हारी घांस फूस की लकड़िया को......मेरे पास क्या कमी है ?’ फिर कनखियों से उसने मनमीत की ओर देखकर कहा ‘‘ तुम्हें ही नहीं मिलता कुछ...कहीं इसका कुछ लिया ...कहीं उसका कुछ..’’
‘‘ तुम्हारा क्या लिया ?’’ अबोध बनते हुए कृत्रिमता से कृष्ण ने कहा। राधा तमतमाकर कुछ कहना ही चाहती थीं कि कृष्ण हंसने लगे। उनका हाथ पकड़ककर बोले:‘‘ अब जाने दो प्रिये! बता भी दो ,कहां छुपाई है बांसुरी...कुछ नई तानें सुनाकर तुम्हारा ही मन बहलाना चाहता हूं...’’
बृषभानु लली ने मुस्कुराकर कहा:‘‘ तो एक शर्त है...प्रतिज्ञा करो कि अब तुम एक पल भी मेरे पास से कहीं और न जाओगे....।’’
बहुत बहुत सुन्दर...यह अनुबंध कितना लौकिक और कितना अलौकिक है..बधाई सर!
मैंने कहा : प्रेम भाव को समझता है, तथ्यों की गर्म रेत पर नहीं चलता। तथ्य तो यह भी है कि राधा कोई थी ही नहीं।
कल्पना का आनंद ही सर्वानंद है देवी![06/06, 5:49 PM] Dr. Ramkumar Ramarya]
लिखा है उसे विरहिन सहकर्मी पढ़ें। वे भौतिकशास्त्र की प्राध्यापिका थीं और उनके प्रानप्रिय विदेश में रहते थे। विरह बना रहता था। इसीलिए कृष्ण पर उनका गुस्सा निकला।
[08/06, 1:17 pm] Dr. R. Ramkumar,: अगर कृष्ण थे और सर्वव्यापि थे तो वे राधा को छोड़कर जा ही नहीं सकते थे। वे मथुरा में थे बरसाने में भी राधा के सुख दुःख में सदैव साथ थे। सर्वव्यापि के लिए क्या आना और क्या जाना।
[08/06, 1:22 pm] Dr. R. Ramkumar,: जिन लोगों ने वृंदावन की यात्रा की है वे जानते हैं कि हर जीव में विरहग्रस्त गोप और गोपी है। राधा भी एक गोपी थी, आराधना के कारण वह राधा हुई। राधना से आराधना शब्द बना। वल्लभी सम्प्रदाय में कोई गोप गोपी हुए बिना कैसे गोप और *राधा* हो सकता है। मीरा भी *राधा* थी जो कृष्ण की आराधना में जीवन भर *विरहिन* बनी रही।
[08/06, 1:27 pm] Dr. R. Ramkumar,: मुझे वो गीत आ रहा है...
यहां हर बालक इक मोहन है और राधा हर इक बाला।