Skip to main content

बुरा न मिल्या कोय

खोजी पत्रकारिता के इस युग में केवल कबीर ही प्रासंगिक हैं। क्योंकि कबीर में भी वही आदत थी जो आज के खोजी पत्रकारों में है। बहुत खोजने के बाद कबीर कहते हैं,‘बुरा जो खोजन मैं गया’। आज के खोजी पत्रकार भी हमारे देश में बुराई को ही खोज रहे हैं। यहां कहां मिलेगी भैया ! बुराई और इस देश में। हमारे देश की एकमात्र अवधारणा है कि बुराई तो केवल विदेश में है। अब इस अवधारणा को तुम बुराई मानते हो तो मानते रहो। पर बुराई यहां कहां? यह तो ऊंची संस्कृति और नैतिकतावाला देश है। आगे जाओ और कोई दूसरा देश देखो। यहां न बुराई थी , न है , न रहेगी।
तुम्हें क्या पता नहीं कि तुम्हारी तरह पहले एक कबीर आए। खूब इधर उधर खोजते रहे। पर बुराई उन्हें भी कहां मिली ? हार कर उन्होंने कहना पड़ा -‘‘ बुरा जो देखन मैं गया , बुरा न मिल्या कोय।’’
नई मिलता न, क्या करोगे ? हमारे देश की यही बुराई है कि यहां खोजने पर भी कोई बुरा नहीं मिलता। खोजनेवाला बुरा हो सकता है, मिलनेवाला बुरा हो ही नहीं पाता। वह ले देकर अच्छा ही होता है। हमारे देश में बुरा कोई है ही नहीं । सब अच्छे हैं। वैसे सारी दुनिया में एक हमारा ही तो देश अच्छा है। हमारे देश को छोड़कर जानेवाले मोहम्मद इक़बाल को भी आखिर कहना पड़ा ‘‘ सारे जहां से अच्छा हिन्दोस्तां हमारा।’’ तुम बेकार सिर मार रहे हो ,जो यहां बुराई खोज रहे हो। बुराई यहां कहां मिलेगी ?
और जब इस देश में बुराई नहीं है तो मेरे नगर में तो हो ही नहीं सकती। इस देश की पतीली के भात का एक दाना है मेरा नगर। देश को देखना है तो मेरे नगर का ‘सीता’(भात का दाना) दबाकर देख लो।
यानी जो देश में हो रहा है , वह मेरे नगर में हो रहा है। इस बात के साथ स्पष्ट कर दूं कि हो सकता है कुछ इधर का उधर हो जाए और कुछ उधर का इधर हो जाए। इसलिए निवेदन है कि मुझे पढ़ते हुए शहर सोचे कि यह देश के बारे में है और देश यह समझे कि यह इसके शहर के बारे में है। वरना मुझे जो सजा देने आएगा वह एक दूसरे को सजा देगा। क्योंकि मैं शहर का भी हूं और देश का भी। मेरे लिए दोनों प्रिय हैं। यह बात अलग है कि दोनों को मैं प्यारा हूं या नहीं यह बाकी सब जानते हैं मैं नहीं।
कभी कभी मुझे बताया जाता है कि मैं दोनो ंके लिए मूल्यवान हूं जब चुनाव होता है। मैं अपनी जिम्मेदारी दोनों के प्रति मानता हुआ दोनों को मतदान करता हूं। वैसे ये तीन हैं। नगर और देश के बीच में एक प्रांत भी है। एक व्यक्ति नगर का भी है जहां पार्षद जैसे अच्छे लोग है, प्रांत का भी है जहां विधायक जैसे नागरिकों से अच्छे लोग हैं और देश का भी है जहां सांसदों से जैसे सुशांत, संभ्रांत और संसदीय लोग हैं। तीनों के लिए मुझे दान करना पड़ता है अपने अमूल्य मतों का। तो सब आपस की बात समझते हुए खुश रहिएगा, बुरा मानने की क्या बात है।
बुरा तो हमारे आत्मानंद जी भी नहीं मानते और सदानंद भी। एक हैं वर्णानंद जी। वे पेशे से पत्रकार हैं। वे खोजखोजकर ऐसा कुछ छापते हैं कि कायदे से आत्मानंद और सदानंद को बुरा मानना चाहिए ,पर नहीं मानते। तीनों का अनन्याश्रित रिश्ता है। जो कुछ आत्मानंद और सदानंद ‘सृष्टि’ करते है , वर्णानंद उसी पर ‘दृष्टि’ करते हैं। बुरा मानने वाली बात कोई है ही नहीं।
वैसे भी सृष्टि के दो पहलू हैं। इधरवाला पहलू और उधरवाला पहलू। सृष्टि के उधरवाले पहलू में आत्मानंद हैं और इधरवाले में सदानंद। कहने की जरूरत नहीं है कि इधरवालों की उधर चलती है और उधरवाले इधर छाए रहते हैं। यही प्रजातंत्र है। हालांकि इधरवाले अपने को उधरवालों से अच्छा समझते हैं और उधरवाले इधरवालों से अपने को। वर्णानंद देश के सामने परेशान है कि देखें देश किसे अच्छा और बुरा मानता है। वर्णानंद को आत्मविष्वास रहता है कि वह जिसे भला कहेंगे देश उसे भला मान लेगा ओर जिसे बुरा बताएंगे देश उसे बुरा मान लेगा। पर देश है कि ऐन वक्त इधर का उधर कर देता है। कुछ लोग सोचते हैं कि नगरपालिका या संसद इस मामले में मदद कर सकती है। उनका ख्याल पूरी तरह गलत नहीं है। नगरपालिका ने जब आवारा कुत्तों और पालतू कुत्तों की पहचान के रिकार्ड कायम किए हैं तो उसे तो अच्छे और बुरे की तमीज़ तो होगी। यद्यपि नगरपालिका की भी कुछ मज़बूरियां हैं। वह जिस आसानी से गंदगी कूड़ा कर्कट उठवा सकती है, उतनी सरलता से अच्छे बुरे का फैसला नहीं सुना सकती। फैसला सुनाते हैं इधरवाले या उधरवाले।
हमारे नगर में जब अन्य नगरों की तरह चुनाव हुआ तो उसमें इधरवाले भी खड़े हुए और उधरवाले भी। हर मुहल्ले में ऐसा हुआ। जहां देखिए वहां इधरवाले और उधरवाले। हर एक व्यक्ति इधर भी दिख रहा था उधर भी। हर व्यक्ति अर्जुन की तरह इधर उधर के संशय से ग्रस्त हो गया था।
बारीकी से देखें तो सारी दुनिया ही इधर और उधरवालों की है। या तो आदमी उधर से इधर हो जाए या फिर इधर की उधर करे। उन दिनों भी बहुत से लोग इधर से उधर हुए और बहुत से इधर-उधर। कभी सदानंद लपेटे में आए कभी आत्मानंद। यद्वपि दोनों हे भाई भाई ही। दोनों परम्परा की धरोहरें हैं। दोनों मौसेरे ममेरे हैं। एक भी है और अलग अलग भी। वर्णानंद की यही परेशानी है कि अब क्या करें। जब वे आत्मानंदजी के बारे में लेख तैयार करते हैं तो सदानंद जी के बारे में नई बातें तैयार हो जाती है।
पिछले कितने ही सालों से यही हो रहा है। बात उन दिनों की है जब स्कूल कमेटी के चेयरमैन थे विप्रवर सदानंदजी और पण्डित आत्मानंदजी हरिजन छात्रावास के संरक्षक थे। इसके पहले कि मामला तूल पकड़ता दोनों इधर उधर हो गए। एक मंडी अध्यक्ष हो गए तो दूसरे पालिका अध्यक्ष हो गए। ‘‘खाते पीते’’ या ‘‘खाने पीने’’ वाले लोगों के भाग्य कभी मंदे नहीं होते। फिर ऐसे दो लोग साथ हों तो और बढ़िया। एक से भले दो। ऊपर से मौसेरे और ममेरे। जिन कारणों से उन्होंने हैसियत बदली वह काम भी उन्होंने कर ही दिया। मंडीवालों के पचासों ट्रैक्टरों को चूहे कुतर गए और नगरपालिकाने मुहल्ले मुहल्ले जो बोरिंग लगवाई थीं वह जमीन निगल गई या आकाश में हवा हो गईं। अब उनके स्थान पर तकरार ही तकरार है। वर्णानंद के कागज़ी घोड़े कई सौ मील निरन्तीर पार कर आए लेकिन बीच में कालपी का नाला आ गया। घोड़ा नया था और थककर चूर था अतः अंततः गिर पड़ा। वह पता नहीं कर पाया कि ट्रैक्टर कांड में कितने की दलाली हुई ? किस कम्पनी के ट्रैक्टर को कुतरने के लिए किस कम्पनी के चूहे आए थे ,यह वह पता नहीं कर सके। हालांकि किसकिसने कितना खाया और मंडी अध्यक्ष को कितना मिला ,सचिव की पाचन क्षमता कितने की थी? इस मामले की खोजबीन में इधरवाले भी शामिल थे और उधरवाले भी। दोनों को खुरचन की उम्मीद थी। खुरचन , जिसके बारे में कहते हैं कि वह असली गुड़ से मीठी होती है।
उधर बोरिंग की खोज भी जारी है। खुरचनाकांक्षी खोजी लोग पालिका अध्यक्ष की भी खुदाई कर रहे हैं। बोरिंग के लिए कितना सैंक्शन हुआ ? कितने गड्ढे खोदे गए ? कितनी बोरिंग लगी ? कितनी बोरिंगों को ऊपर के पानी से पहले चालू बताया गया और बाद में उसको बंद बताकर उसकी अंत्येष्टि कर दी गई। इसकी भी जांच के असफल प्रयास हुए कि कितने लोग इस अंत्येष्टि में शामिल हुए और कितनों ने मरी हुई बोरिंग को कंधा दिया।
जनता कभी इधर देखती है कभी उधर । वर्णानंद विश्वासमत खोकर ग्लूकोस की बोतलों में अपना भाविष्य तलाश रहे हैं। सदानंद के लोग उसे रुपया खाकर लिखनेवाला बता रहे हैं और आत्मानंद के लोग उसे ब्लैकमेलिया कह रहे हैं। ‘माल उड़ावै कोई और मार खावै कोई’ की सी हालत उसकी हो गई है। अपवाह है कि सदानंद और आत्मानंद जैसे सदाचारी मौसेर भाइयों के अनुयायियों ने मिलकर उसकी पिटाई की है। घर में उनकी खटिया खड़ी हो गई है और अस्पताल मंे बिछी हुई है। उनकी दोनों टांगे ऊपर टंगी हुई हैं। जहां पहले हाथ पैर थे अब वहां प्लास्टर दिखाई देते हैं और जहां पहले आंखें मुंह और सिर था अब वह पट्टियों का फुटबाल दिखाई देता है। लोग सहानुभूति के लिए जाते है तो कहते है ‘‘ कैसे हो वर्णानंद , आनंद मंगल तो है न ?’’ वे कराहकर कहते हैं,‘‘ हां भैया ! दिल नामक स्थान की खोज हो गई है। उसमें छः सौ साल पुराना शिलालेख मिला है , जिसमें लिखा है ‘मौं सौं बुरा न कोय’।’’
वर्णानंद अब किसी से सीधी बात नहीं करते। लोग कहते हैं उनके दिमाग पर असर हुआ है। बुद्धिजीवी लोग कहते हैं ,वह दार्शनिक हो गए हैं। धार्मिक लोग कहते हैं, वे कबीरपंथी हो गए हैं। हारे हुए , पिटे हुए , दबे-,कुचलों के लिए एकमात्र ठिकाना कबीर हैं। अक्खड़ फक्कड़ कबीर को तुम क्या पीटोगे ?
इसलिए सदानंद कबीर की साखी गाने लगे हैं। पुलिस पूछ रही है,‘‘तुम को किसी पर शक है ? किसी का नाम लेना चाहते हो। तुम कोई बयान देना चाहते हो ?’’
दर्द भरी मुसकान में वर्णानंद बयान देते हैं‘‘ आग लगी आकाश में गिरगिर पड़े अंगार।
कबीर जल कंचन भया कांच भया संसार।।’’
पुलिस समझाती है -‘‘ डरो मत। तुम तो कलम के सिपाही हो। अत्याचार के खिलाफ आवाज़ बुलंद करो। हमारे काम में मदद करो। हम तुम्हारे हितैषी हैं। अपराधियों के नाम पते बताओ। हम उन्हें सजा दिलवाएंगे। तुम निश्चिंत होकर कहो।’’
पुलिस के काम का अर्थ जानते है इसलिए वर्णानंद हंसकर कहते हैं -
‘‘ ऐसा कोई न मिला जासों कहूं निसंक।
जासों हिरदे की कहूं सो फिर मारे डंक।।’’
खिसियाकर पुलिस कहती है -‘‘ देखो जब तक बुराई पर पर्दा डालोगे, पुलिस बुराई को खत्म कैसे करेगी ? तुम तो बुराई को खोजखोजकर मिटानेवाले लोगों में से हो। बताओ कौन है वे बुरे लोग जो समाज को खोखला कर रहे हैं ?’’
वर्णानंद ठहाका लगाकर कहते हैं: ‘‘ बुरा जो खोजन मैं चला बुरा न मिल्या कोय।
जो दिल खोजा आपना मांै सौं बुरा ना कोय।।’’
ठीक ही है। दूसरे बुरे नहीं हो सकते। ऋण और ऋण मिलकर धन हो जाते हैं। यह गणित छः सौ साल पहले कबीर की समझ में आ गया था। आज वर्णानंद समझ गए। कुलमिलाकर , खोजी पत्रकारिता के इस युग में केवल कबीर ही प्रासंगिक हैं।

निवेदन है कि इस लेख का संबंध कल परसों आए बिहार के नतीजे का परिणाम न मानें । यह लेख तो 'नीरक्षीर ' में, 30 अगस्त 1989 , अमृतसंदेश , रायपुर से छप चुका है। यह साभार है और पुनर्प्रकाशन है।

Comments

व्यंग के माध्यम से बहुत महत्वपूर्ण बात समझा दी है। धन्यवाद ।
व्यंग्य लिखा पहले अवश्य है, लेकिन आज भी सार्थक है.
अरे ..यह क्या हो रहा है ?....कबीर की सार्थकता ....सच कहा .....खोज रहे हैं लोग बहार कमियां ..पर खुद के बारे में कभी नहीं सोचा ....बहुत सार्थकता से समझा दिया आपने ....शुक्रिया
चलते -चलते पर आपका स्वागत है
Dr Varsha Singh said…
कबीर हर युग में प्रासंगिक रहेंगे। लेख बहुत अच्छा है। विचारणीय है।
Anonymous said…
नंद के घर आनंद भयो...
आपके आयाम निराले हैं....
क्या बात है प्रोफेसर साहब मजा आगया। बुराई और इस देश में?उंची संस्कृति वाले देश में? ले देकर अच्छा होता है व्दिअर्थी ।दूसरे को सजा देगा और करे अपराध कोउ और पाव फल कोउ एसा नहीं होना चाहिये। भले लोंगो का देश है सब भले लोग ही चुनाव लडते है तो फिर वोट एक को क्यो?आत्मानंद सदानंद और फिर वर्णानंद। आप आदेश न भी करते तो भी हम आपके इस लेख को किसी चुनावी नतीजे का परिणाम नहीं मानते । नीरक्षीर और अमृत संदेश दौनों पत्रिकायें नहीं पढ पाया हूं यध्यपि पाठक हूं और पढने का आदी हूं लिखना तो पार्ट टाइम है फुल टाइम पाठक ही हूं । व्यंग्य रचना मजेदार लगी
आपकी हर पोस्ट मुझे निरुत्तर कर देती है मैं तो कुछ भी कहने की स्थिति में नहीं रहती शब्दों का खजाना जो आपने ले रखा है उसमें से कुछ शब्द कभी तो उधार दे दीजिये
ZEAL said…
बरखा दत्ता जैसे पत्रकारों को भी कहीं कोई बुराई नहीं दिखती। जो कुछ मिला उसमें उन्हें खबर बनाने लायक नहीं लगा , इसलिए जनता के सामने कुछ नहीं लाया उन्होंने। उन्हें तो बस रेप आदि की घटना ही खबर लगती है शायद ।
Dr.R.Ramkumar said…
आदरणीय बंधुओं ,
जिस गंभीरता से आप रचनाओं को पढ़ रहे हैं वह मुझे उत्साह और प्रेरणा देता रहेगा।
आप का निरन्तर साथ मिले यही अभिलाषा है ।
bahut satik rachna... kabeer aur hamare desh ke log , ... vyangya saarthak hai
व्यंग के साध्यम से आपने बहुत कुछ कह दिया है।
मेरे वलाग पर आप सादर आमंत्रित हैं।
बहुत ही प्रासंगिक व्यंग्य है !
-ज्ञानचंद मर्मज्ञ
Apanatva said…
bahut karara vyang hai.....ye hee haal hai jee aajkal.........

Popular posts from this blog

काग के भाग बड़े सजनी

पितृपक्ष में रसखान रोते हुए मिले। सजनी ने पूछा -‘क्यों रोते हो हे कवि!’ कवि ने कहा:‘ सजनी पितृ पक्ष लग गया है। एक बेसहारा चैनल ने पितृ पक्ष में कौवे की सराहना करते हुए एक पद की पंक्ति गलत सलत उठायी है कि कागा के भाग बड़े, कृश्न के हाथ से रोटी ले गया।’ सजनी ने हंसकर कहा-‘ यह तो तुम्हारी ही कविता का अंश है। जरा तोड़मरोड़कर प्रस्तुत किया है बस। तुम्हें खुश होना चाहिए । तुम तो रो रहे हो।’ कवि ने एक हिचकी लेकर कहा-‘ रोने की ही बात है ,हे सजनी! तोड़मोड़कर पेश करते तो उतनी बुरी बात नहीं है। कहते हैं यह कविता सूरदास ने लिखी है। एक कवि को अपनी कविता दूसरे के नाम से लगी देखकर रोना नहीं आएगा ? इन दिनों बाबरी-रामभूमि की संवेदनशीलता चल रही है। तो क्या जानबूझकर रसखान को खान मानकर वल्लभी सूरदास का नाम लगा दिया है। मनसे की तर्ज पर..?’ खिलखिलाकर हंस पड़ी सजनी-‘ भारतीय राजनीति की मार मध्यकाल तक चली गई कविराज ?’ फिर उसने अपने आंचल से कवि रसखान की आंखों से आंसू पोंछे और ढांढस बंधाने लगी। दृष्य में अंतरंगता को बढ़ते देख मैं एक शरीफ आदमी की तरह आगे बढ़ गया। मेरे साथ रसखान का कौवा भी कांव कांव करता चला आया।...

तोता उड़ गया

और आखिर अपनी आदत के मुताबिक मेरे पड़ौसी का तोता उड़ गया। उसके उड़ जाने की उम्मीद बिल्कुल नहीं थी। वह दिन भर खुले हुए दरवाजों के भीतर एक चाौखट पर बैठा रहता था। दोनों तरफ खुले हुए दरवाजे के बाहर जाने की उसने कभी कोशिश नहीं की। एक बार हाथों से जरूर उड़ा था। पड़ौसी की लड़की के हाथों में उसके नाखून गड़ गए थे। वह घबराई तो घबराहट में तोते ने उड़ान भर ली। वह उड़ान अनभ्यस्त थी। थोडी दूर पर ही खत्म हो गई। तोता स्वेच्छा से पकड़ में आ गया। तोते या पक्षी की उड़ान या तो घबराने पर होती है या बहुत खुश होने पर। जानवरों के पास दौड़ पड़ने का हुनर होता है , पक्षियों के पास उड़ने का। पशुओं के पिल्ले या शावक खुशियों में कुलांचे भरते हैं। आनंद में जोर से चीखते हैं और भारी दुख पड़ने पर भी चीखते हैं। पक्षी भी कूकते हैं या उड़ते हैं। इस बार भी तोता किसी बात से घबराया होगा। पड़ौसी की पत्नी शासकीय प्रवास पर है। एक कारण यह भी हो सकता है। हो सकता है घर में सबसे ज्यादा वह उन्हें ही चाहता रहा हो। जैसा कि प्रायः होता है कि स्त्री ही घरेलू मामलों में चाहत और लगाव का प्रतीक होती है। दूसरा बड़ा जगजाहिर कारण यह है कि लाख पिजरों के सुख के ब...

सूप बोले तो बोले छलनी भी..

सूप बुहारे, तौले, झाड़े चलनी झर-झर बोले। साहूकारों में आये तो चोर बहुत मुंह खोले। एक कहावत है, 'लोक-उक्ति' है (लोकोक्ति) - 'सूप बोले तो बोले, चलनी बोले जिसमें सौ छेद।' ऊपर की पंक्तियां इसी लोकोक्ति का भावानुवाद है। ऊपर की कविता बहुत साफ है और चोर के दृष्टांत से उसे और स्पष्ट कर दिया गया है। कविता कहती है कि सूप बोलता है क्योंकि वह झाड़-बुहार करता है। करता है तो बोलता है। चलनी तो जबरदस्ती मुंह खोलती है। कुछ ग्रहण करती तो नहीं जो भी सुना-समझा उसे झर-झर झार दिया ... खाली मुंह चल रहा है..झर-झर, झरर-झरर. बेमतलब मुंह चलाने के कारण ही उसका नाम चलनी पड़ा होगा। कुछ उसे छलनी कहते है.. शायद उसके इस व्यर्थ पाखंड के कारण, छल के कारण। काम में ऊपरी तौर पर दोनों में समानता है। सूप (सं - शूर्प) का काम है अनाज रहने देना और कचरा बाहर निकाल फेंकना। कुछ भारी कंकड़ पत्थर हों तो निकास की तरफ उन्हें खिसका देना ताकि कुशल-ग्रहणी उसे अपनी अनुभवी हथेलियों से सकेलकर साफ़ कर दे। चलनी उर्फ छलनी का पाखंड यह है कि वह अपने छेद के आकारानुसार कंकड़ भी निकाल दे और अगर उस आकार का अनाज हो तो उसे भी नि...