पड़े रह जाना तीन लेखकों का
फुटपाथ पर
और मेरा आगे निकल जाना
तीन लेखक फुटपाथ पर पड़े हैं। सोचता हूं कि उन्हें उठा लूं। मगर मेरी खुद की हालत खस्ता है। लोग देख रहें है कि मैं भी फुटपाथ पर खड़ा हुआ हूं। फुटपाथ के साथ मैं इस कदर तदाकार हो चुका हूं कि उससे मेरा तादात्म्य स्थापित हो चुका है। संतों ने इसे ही पहुंची हुई स्थिति कहा है। मगर मैं संतों को कहां ढूंढूं कि वे मेरी इस स्थिति को देख सकें। फलस्वरूप मैं मनमारे फुटपाथ पर खड़ा बेचैनी से उसका इंतजार कर रहा हूं। मेरे हाव भाव से ही लग रहा है कि मैं जिसका इंतजार कर रहा हूं उसके लिए किसी भी स्थिति से गुजर सकता हूं। उसे देखकर मैं बावरा सा दौड़ सकता हूं ,बिना यह सोचे कि पागलों की तरह दौड़नवाली गाड़ियों के नीचे आ भी सकता हूं। यही आदर्श लगाव और प्रतीक्षा है।
मैं जब अपनी बेसब्री नहीं संभाल पाता तो पास खड़े एक अजनबी से पूछता हूं:‘‘ वह कब आएगी।‘‘
अजनबी उपेक्षा से कहता है:‘‘ वह आधा घंटा बाद आएगी। मैं भी उसका इंतजार कर रहा हूं।‘‘
मैं समझ जाता हूं कि एक तो यही प्रतियोगिता में है जिसे पछाड़कर मुझे उस तक पहुंचना है।
मैं तनाव में आ जाता हूं। ध्यान बंटाने के लिए फिर उन तीन लेखकों की तरफ देखने लगता हूं जो फुटपाथ पर पड़े हुए हंै। उनके सिर पर खड़ा एक उठाईगीर जैसा आदमी मुझसे पूछता है:‘‘ क्या सोच रहे हो ?’’
‘‘ सोचता हूं इन्हें उठा लूं !?‘‘
‘‘ तो उठा लो ,किसने रोका है ? ये पड़े ही इसलिए हैं कि कोई तो इन्हें उठाए।‘‘
आखिर मैं हिम्मत करता हूं और तीनों को एक साथ उठा लेता हूं। तीनों इस कदर मेरे हाथ में आ जाते हैं जैसे घर से निकाले गए वे बच्चे जिन्हें कोई दयालु पालनहार मिल गया हो। उन्हें हाथ में लेकर मैं फिर सड़क की तरफ देखता हूं कि शायद वह आ जाए , शायद किसी की नजर मुझ पर पड़ जाए और उसे पता चल जाए कि मैंने कितना बड़ा काम किया है। यानी फुटपाथ पर पड़े तीन लेखकों को मैंने उठा लिया हैं। मगर गिरे हुए लेखकों को देखने की फुर्सत किसे है ? अगर मैं किसी लड़की को उठाता...........फालतू की बात कर रहा हूं मैं ! लड़की गिरती भी नहीं कि उसे उठाने कितने ही लोग लपक पड़ते ?मुझे तो अवसर ही नहीं मिलता।
मैं अंदर ही अंदर अपनी उत्साह से भरी गलत सोच से शर्मिंदा हो जाता हूं। झेंप मिटाने के लिए फिर इधर-उधर देखता हूं। मैं इस समय भरी-दोपहर मून-लाइट के ठीक सामनेवाले फुटपाथ पर हूं। यह सड़क जो सामने से सर्र-सर्र भागी जा रही है ,वह पागलखाने होते हुए डिफेंस की तरफ जाती है। मैं चाहता तो कह सकता था कि यह सड़क रिजर्व बैंक या लाइफ इंशुरेंस होकर डिफेंस की तरफ जाती है। मगर मेरी हालत ऐसी नहीं है कि मैं रिजर्व-बैंक या लाइफ-इशुरेंस के बारे में सोच भी सकूं। मेरा रिजर्व बैंक और लाइफ इंशुरेंस तो डिफेंस रोड में रहनेवाला वह व्यक्ति है ,जिससे मदद मिलने की उम्मीद अंसभव है , मगर है तो। अंसभव होने पर भी उम्मीद की साख प्रजातंत्र में बहुत ऊंची है। मदद मिली तो कुछ मिलेगा ही , नहीं मिली तो पास से क्या गया ? सोचेंगे ,घूमने निकले थे। मैं महान साम्यवादियों का तुच्छ-सा लक्ष्यबिंदु हूं । मुझसे ही प्रेरित होकर उन्होंने कहा था ,‘‘पाने के लिए पूरी दुनिया, खोने के लिए कुछ भी नहीं। यही सर्वहारा की क्रांति है।’
यह विचार आते ही मैं फिर प्रगतिशील हो जाता हूं। उठाए गए लेखकों को दुर्गति से उठाकर संघर्ष के रास्ते पर धकेलने की कार्ययोजना बनाने लगता हूं। तभी लेखकों के सर पर खड़ा उठाईगीर बोलता हैः‘‘ देख क्या रहे हो.....ये तीनों बड़े महान लेखक हैं।‘‘
‘‘ तो फुटपाथ पर क्यों पड़े हैं ?‘‘ आदतन मैंने शंका की।
'‘यही दुनिया की रीत है...हर महान आदमी को पहले फुटपाथ पर पड़ना होता है फिर वह सुपर स्टार होता है।’’
मुझे हंसी आ गई। वह फिल्मी लोगों के बारे में कह रहा था। मैंने फिल्मी पत्रिकाएं पढ़ीं हैं।
‘‘हंसते क्या हो ? इन्हें अपने घर में रखोगे तो तुम्हारी इज्जत बढ़ जाएगी।‘‘ वह बोला और तरतीब से रखे गए किताबों के ढेर पर कपड़ा मारने लगा।
मैंने किताबों पर नजर डाली और उन लेखकों के नाम पढ़े जो सड़क पर पड़े थे । आगे चलकर यही मेरी इज्जत बढ़ानेवाले थे। उनमें एक का नाम था हरिशंकर ,दूसरा शरद था और तीसरा रवीन्द्रनाथ। तीनों नाम कुछ जाने-पहचाने से लगे। रवीन्द्रनाथ टैगोर को कौन नहीं जानता... जन गण मन अधिनायक वाले। शरद चंद्र को भी लोग जानते ही होंगे...देवदास वाले। तीसरा नाम मुझे ठीक से याद नहीं आ रहा था...हरिशंकर या हरिश्चंद्र ....। एक भारतेंदु हरिश्चंद्र का हास्य प्रहसन ’अंधेरनगरी ,चौपट राजा ’ बचपने में हमने पढ़ा था। मुझे वह नाटक याद आया तो हंसी आ गई। आदमी बोला:‘‘ देखा ,अभी तुमने सिर्फ नाम ही पढा़ है और तुम्हारी हंसी छूट गई। बड़े कार्टून लेखक हैं ये......घर ले जाकर पढ़ोगे तो हंसते हंसते तुमको बड़ा मजा आएगा।’’
‘‘ डुप्लीकेट तो नहीं हैं।‘‘ मैंने उन कार्टून लेखकों के नाम ठीक से देखते हुए प्रश्न किया। आजकल सेम नाम से डुप्लीकेट माल बहुत बिकता है। मेरा अनुमान सही था। भारतेन्दु हरिश्चंद्र से मिलता जुलता नाम हरिशंकर परसाई था। शरदचंद्र बंधोपाध्याय के नाम की नकल पर शरद जोशी छपा हुआ था। गुरुदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर के नाम की कापी करते हुए रवीन्द्रनाथ त्यागी लिखा हुआ था। अच्छा ,तभी वह जल्दबाजी कर रहा था कि मैं बिन देखे उठाऊं और चल दूं। मगर मैंने भी घास नहीं छीली !
प्रगट में मैं उस फुटपाथिये से कुछ नहीं बोला। मूर्खों से क्या उलझना। मैंने तय कर लिया था कि डुप्लीकेटों के चक्कर में मैं नहीं आउंगा। फिर भी समय काटने के लिए यूहीं पन्ने उलटने पलटने लगा।
पढ़ते पढ़ते मुझे फिर बौद्धिक गुस्सा आया। गधों को शीर्षक रखना भी नहीं आया। एक ही शीर्षक दिए थे तीनों को..‘ मेरी श्रेष्ठ व्यंग्य रचनाएं ’। एक यदि धोके से हिट हो जाए तो लोग शीर्षक देखकर ही दूसरी और फिर तीसरी ले जाएं।
परन्तु नकल में उनकी अकल की दाद देनी पड़ेगी। भारतेंदु हरिश्चंद्र का नाटक तो था ही हास्य व्यंग्य का। शरद बाबू ने भी देवदास में सामंतवादियों ,उनकी संतानों और समाज के ठाकुरों पर जी भर कर व्यंग्य किया है। इसी प्रकार बीस तीस सालों से रवीन्द्रनाथ जैसे गंभीर लेखक की रचना जनगणमन को भी विद्वानों ने सम्राट् जार्ज पंचम की स्तुति के बहाने उनपर व्यंग्य किया जाना सिद्ध कर दिया है। यानी मूलतः ‘ जनगणमन ’ एक नोबल प्राइज विनर सटायर है। इतने भारी और महान लेखकों की नकल पर इन तीन लेखकों को फुटपाथ पर बेचा जा रहा है।
‘‘तो ले रहे हो ? आधी कीमत पर !‘‘ फुटपाथिये ने कहा।
मैंने सोचा ‘देखो...कितनी हड़बड़ी है इसको नकल बेचने की..अब तो नहीं ही लूंगा जा...’
इसके पहले कि मैं कोई जवाब देता मेरे साथ खड़े रकीब ने मुझे बताया:‘‘ आ गई , चलो‘‘
मैंने देखा कि डिफेंस की ओर जानेवाली बस आ गई थी। मैंने उठाए हुए लेखकों को वही फुटपाथ पर डाला और लपका।
आपने देखा कि किस तरह महान लेखक फुटपाथ पर पड़े रह गए और मैं आगे बढ़ गया।
240709
समर्पण: एक बहुत महत्वपूर्ण रचना उपेक्षित हो रही थी। मेरी प्रिय रचनाओं में से यह एक है। आपकी भी यह प्रिय बने इस सद्भावना से इसे पूर्ण संकोच , संपूर्ण नादानी और व्यापक विनम्रता के साथ आपके हाथों में सौंप रहा हूं। कृपया प्यार से इसे देखें और औरों को भी दिखाएं। अब यह आपकी है।
जिन मित्रों को पढ़कर गुस्सा आए वे कृपा पूर्वक इसे ‘एक गधे की आत्मकथा’ समझ लें। जिन्हें मजा आए वे अपनी बौद्धिक उपलब्धि मानकर इसे हरिशंकर परसाई जी या शरद जोशी जी की रचना मान लें। मान लेने में क्या जाता है? वैसे भी जहीं भर को पनाह देनेवाले जहांपनाहों ! मैंने आपकी खुशी के लिए ही यह ‘राग-दरबारी’ गाया है। मैं तो अदना लोक-सेवक हूं आपका।
फुटपाथ पर
और मेरा आगे निकल जाना
तीन लेखक फुटपाथ पर पड़े हैं। सोचता हूं कि उन्हें उठा लूं। मगर मेरी खुद की हालत खस्ता है। लोग देख रहें है कि मैं भी फुटपाथ पर खड़ा हुआ हूं। फुटपाथ के साथ मैं इस कदर तदाकार हो चुका हूं कि उससे मेरा तादात्म्य स्थापित हो चुका है। संतों ने इसे ही पहुंची हुई स्थिति कहा है। मगर मैं संतों को कहां ढूंढूं कि वे मेरी इस स्थिति को देख सकें। फलस्वरूप मैं मनमारे फुटपाथ पर खड़ा बेचैनी से उसका इंतजार कर रहा हूं। मेरे हाव भाव से ही लग रहा है कि मैं जिसका इंतजार कर रहा हूं उसके लिए किसी भी स्थिति से गुजर सकता हूं। उसे देखकर मैं बावरा सा दौड़ सकता हूं ,बिना यह सोचे कि पागलों की तरह दौड़नवाली गाड़ियों के नीचे आ भी सकता हूं। यही आदर्श लगाव और प्रतीक्षा है।
मैं जब अपनी बेसब्री नहीं संभाल पाता तो पास खड़े एक अजनबी से पूछता हूं:‘‘ वह कब आएगी।‘‘
अजनबी उपेक्षा से कहता है:‘‘ वह आधा घंटा बाद आएगी। मैं भी उसका इंतजार कर रहा हूं।‘‘
मैं समझ जाता हूं कि एक तो यही प्रतियोगिता में है जिसे पछाड़कर मुझे उस तक पहुंचना है।
मैं तनाव में आ जाता हूं। ध्यान बंटाने के लिए फिर उन तीन लेखकों की तरफ देखने लगता हूं जो फुटपाथ पर पड़े हुए हंै। उनके सिर पर खड़ा एक उठाईगीर जैसा आदमी मुझसे पूछता है:‘‘ क्या सोच रहे हो ?’’
‘‘ सोचता हूं इन्हें उठा लूं !?‘‘
‘‘ तो उठा लो ,किसने रोका है ? ये पड़े ही इसलिए हैं कि कोई तो इन्हें उठाए।‘‘
आखिर मैं हिम्मत करता हूं और तीनों को एक साथ उठा लेता हूं। तीनों इस कदर मेरे हाथ में आ जाते हैं जैसे घर से निकाले गए वे बच्चे जिन्हें कोई दयालु पालनहार मिल गया हो। उन्हें हाथ में लेकर मैं फिर सड़क की तरफ देखता हूं कि शायद वह आ जाए , शायद किसी की नजर मुझ पर पड़ जाए और उसे पता चल जाए कि मैंने कितना बड़ा काम किया है। यानी फुटपाथ पर पड़े तीन लेखकों को मैंने उठा लिया हैं। मगर गिरे हुए लेखकों को देखने की फुर्सत किसे है ? अगर मैं किसी लड़की को उठाता...........फालतू की बात कर रहा हूं मैं ! लड़की गिरती भी नहीं कि उसे उठाने कितने ही लोग लपक पड़ते ?मुझे तो अवसर ही नहीं मिलता।
मैं अंदर ही अंदर अपनी उत्साह से भरी गलत सोच से शर्मिंदा हो जाता हूं। झेंप मिटाने के लिए फिर इधर-उधर देखता हूं। मैं इस समय भरी-दोपहर मून-लाइट के ठीक सामनेवाले फुटपाथ पर हूं। यह सड़क जो सामने से सर्र-सर्र भागी जा रही है ,वह पागलखाने होते हुए डिफेंस की तरफ जाती है। मैं चाहता तो कह सकता था कि यह सड़क रिजर्व बैंक या लाइफ इंशुरेंस होकर डिफेंस की तरफ जाती है। मगर मेरी हालत ऐसी नहीं है कि मैं रिजर्व-बैंक या लाइफ-इशुरेंस के बारे में सोच भी सकूं। मेरा रिजर्व बैंक और लाइफ इंशुरेंस तो डिफेंस रोड में रहनेवाला वह व्यक्ति है ,जिससे मदद मिलने की उम्मीद अंसभव है , मगर है तो। अंसभव होने पर भी उम्मीद की साख प्रजातंत्र में बहुत ऊंची है। मदद मिली तो कुछ मिलेगा ही , नहीं मिली तो पास से क्या गया ? सोचेंगे ,घूमने निकले थे। मैं महान साम्यवादियों का तुच्छ-सा लक्ष्यबिंदु हूं । मुझसे ही प्रेरित होकर उन्होंने कहा था ,‘‘पाने के लिए पूरी दुनिया, खोने के लिए कुछ भी नहीं। यही सर्वहारा की क्रांति है।’
यह विचार आते ही मैं फिर प्रगतिशील हो जाता हूं। उठाए गए लेखकों को दुर्गति से उठाकर संघर्ष के रास्ते पर धकेलने की कार्ययोजना बनाने लगता हूं। तभी लेखकों के सर पर खड़ा उठाईगीर बोलता हैः‘‘ देख क्या रहे हो.....ये तीनों बड़े महान लेखक हैं।‘‘
‘‘ तो फुटपाथ पर क्यों पड़े हैं ?‘‘ आदतन मैंने शंका की।
'‘यही दुनिया की रीत है...हर महान आदमी को पहले फुटपाथ पर पड़ना होता है फिर वह सुपर स्टार होता है।’’
मुझे हंसी आ गई। वह फिल्मी लोगों के बारे में कह रहा था। मैंने फिल्मी पत्रिकाएं पढ़ीं हैं।
‘‘हंसते क्या हो ? इन्हें अपने घर में रखोगे तो तुम्हारी इज्जत बढ़ जाएगी।‘‘ वह बोला और तरतीब से रखे गए किताबों के ढेर पर कपड़ा मारने लगा।
मैंने किताबों पर नजर डाली और उन लेखकों के नाम पढ़े जो सड़क पर पड़े थे । आगे चलकर यही मेरी इज्जत बढ़ानेवाले थे। उनमें एक का नाम था हरिशंकर ,दूसरा शरद था और तीसरा रवीन्द्रनाथ। तीनों नाम कुछ जाने-पहचाने से लगे। रवीन्द्रनाथ टैगोर को कौन नहीं जानता... जन गण मन अधिनायक वाले। शरद चंद्र को भी लोग जानते ही होंगे...देवदास वाले। तीसरा नाम मुझे ठीक से याद नहीं आ रहा था...हरिशंकर या हरिश्चंद्र ....। एक भारतेंदु हरिश्चंद्र का हास्य प्रहसन ’अंधेरनगरी ,चौपट राजा ’ बचपने में हमने पढ़ा था। मुझे वह नाटक याद आया तो हंसी आ गई। आदमी बोला:‘‘ देखा ,अभी तुमने सिर्फ नाम ही पढा़ है और तुम्हारी हंसी छूट गई। बड़े कार्टून लेखक हैं ये......घर ले जाकर पढ़ोगे तो हंसते हंसते तुमको बड़ा मजा आएगा।’’
‘‘ डुप्लीकेट तो नहीं हैं।‘‘ मैंने उन कार्टून लेखकों के नाम ठीक से देखते हुए प्रश्न किया। आजकल सेम नाम से डुप्लीकेट माल बहुत बिकता है। मेरा अनुमान सही था। भारतेन्दु हरिश्चंद्र से मिलता जुलता नाम हरिशंकर परसाई था। शरदचंद्र बंधोपाध्याय के नाम की नकल पर शरद जोशी छपा हुआ था। गुरुदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर के नाम की कापी करते हुए रवीन्द्रनाथ त्यागी लिखा हुआ था। अच्छा ,तभी वह जल्दबाजी कर रहा था कि मैं बिन देखे उठाऊं और चल दूं। मगर मैंने भी घास नहीं छीली !
प्रगट में मैं उस फुटपाथिये से कुछ नहीं बोला। मूर्खों से क्या उलझना। मैंने तय कर लिया था कि डुप्लीकेटों के चक्कर में मैं नहीं आउंगा। फिर भी समय काटने के लिए यूहीं पन्ने उलटने पलटने लगा।
पढ़ते पढ़ते मुझे फिर बौद्धिक गुस्सा आया। गधों को शीर्षक रखना भी नहीं आया। एक ही शीर्षक दिए थे तीनों को..‘ मेरी श्रेष्ठ व्यंग्य रचनाएं ’। एक यदि धोके से हिट हो जाए तो लोग शीर्षक देखकर ही दूसरी और फिर तीसरी ले जाएं।
परन्तु नकल में उनकी अकल की दाद देनी पड़ेगी। भारतेंदु हरिश्चंद्र का नाटक तो था ही हास्य व्यंग्य का। शरद बाबू ने भी देवदास में सामंतवादियों ,उनकी संतानों और समाज के ठाकुरों पर जी भर कर व्यंग्य किया है। इसी प्रकार बीस तीस सालों से रवीन्द्रनाथ जैसे गंभीर लेखक की रचना जनगणमन को भी विद्वानों ने सम्राट् जार्ज पंचम की स्तुति के बहाने उनपर व्यंग्य किया जाना सिद्ध कर दिया है। यानी मूलतः ‘ जनगणमन ’ एक नोबल प्राइज विनर सटायर है। इतने भारी और महान लेखकों की नकल पर इन तीन लेखकों को फुटपाथ पर बेचा जा रहा है।
‘‘तो ले रहे हो ? आधी कीमत पर !‘‘ फुटपाथिये ने कहा।
मैंने सोचा ‘देखो...कितनी हड़बड़ी है इसको नकल बेचने की..अब तो नहीं ही लूंगा जा...’
इसके पहले कि मैं कोई जवाब देता मेरे साथ खड़े रकीब ने मुझे बताया:‘‘ आ गई , चलो‘‘
मैंने देखा कि डिफेंस की ओर जानेवाली बस आ गई थी। मैंने उठाए हुए लेखकों को वही फुटपाथ पर डाला और लपका।
आपने देखा कि किस तरह महान लेखक फुटपाथ पर पड़े रह गए और मैं आगे बढ़ गया।
240709
समर्पण: एक बहुत महत्वपूर्ण रचना उपेक्षित हो रही थी। मेरी प्रिय रचनाओं में से यह एक है। आपकी भी यह प्रिय बने इस सद्भावना से इसे पूर्ण संकोच , संपूर्ण नादानी और व्यापक विनम्रता के साथ आपके हाथों में सौंप रहा हूं। कृपया प्यार से इसे देखें और औरों को भी दिखाएं। अब यह आपकी है।
जिन मित्रों को पढ़कर गुस्सा आए वे कृपा पूर्वक इसे ‘एक गधे की आत्मकथा’ समझ लें। जिन्हें मजा आए वे अपनी बौद्धिक उपलब्धि मानकर इसे हरिशंकर परसाई जी या शरद जोशी जी की रचना मान लें। मान लेने में क्या जाता है? वैसे भी जहीं भर को पनाह देनेवाले जहांपनाहों ! मैंने आपकी खुशी के लिए ही यह ‘राग-दरबारी’ गाया है। मैं तो अदना लोक-सेवक हूं आपका।
Comments
Dhanyabaad
आपका स्नेह बना रहे, मानना मनाना तो बस हास्य है, कटाक्ष भी, जोकि आप समझती ही हैं।
शाहिद भाई!
मेरी रचनाओं पर आपका उर्जावान प्रोत्साहन मेरे लिए बहुमूल्य है।
धन्यवाद।
भाई ब्रजमोहन जी,
आप जैसे गुणग्राही लोग ही किसी रचना के सामयिक संदर्भों की पड़ताल कर सकते हैं। नैनपुर संस्कारधानी जबलपुर से 111 किलोमीटर दक्षिण में स्थित है। राष्ट्रीय बाघ अभ्यारण्य के लिए पर्यटक यहां से जाते हैं। नैनपु नेरोगेज का एशिया का सबसे बड़ा जंक्शन भी माना जाता है। नैनपुर के लिए आपकी जिज्ञासा बढ़ी यह मेरी रचना का सम्मान है। मैं वस्तुतः आज भी नैनपुर में परदेशी हूं।
भाई केवल जी,
मेरी रचना पढ़ने और उसपर सकारात्मक प्रतिक्रिया प्रस्तुत करने के लिए आभार।
बहुत सुन्दर !! वाह!
आखिर मैं हिम्मत करता हूं और तीनों को एक साथ उठा लेता हूं। तीनों इस कदर मेरे हाथ में आ जाते हैं जैसे घर से निकाले गए वे बच्चे जिन्हें कोई दयालु पालनहार मिल गया हो।
ओहो!! क्या यतीम-नवाजी है। अदब के लिए आपका यह अंदाज़ और दर्द जाहिर तौर पर काबिलेतवज्जो है।
इस सद्भावना से इसे पूर्ण संकोच , संपूर्ण नादानी और व्यापक विनम्रता के साथ आपके हाथों में सौंप रहा हूं। कृपया प्यार से इसे देखें और औरों को भी दिखाएं। अब यह आपकी है।
वैसे भी जहीं भर को पनाह देनेवाले जहांपनाहों ! मैंने आपकी खुशी के लिए ही यह ‘राग-दरबारी’ गाया है।
टिप्पणी को भी टिप्पणी नहीं रहने दिया हुजूर!!
सलाम!!