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चुहिया बनाम छछूंदर



डायरी 24.7.10

कल रात एक मोटे चूहे का एनकाउंटर किया। मारा नहीं ,बदहवास करके बाहर का रास्ता खोल दिया ताकि वह सुरक्षित जा सके।
हमारी यही परम्परा है। हम मानवीयता की दृष्टि से दुश्मनों को या अपराधियों को लानत मलामत करके बाहर जाने का सुरक्षित रास्ता दिखा देते हैं। बहुत ही शातिर हुआ तो देश निकाला दे देते हैं। आतंकवादियों तक को हम कहते हैं कि जाओ , अब दुबारा मत आना। इस तरह की शैली को आजकल ‘समझौता एक्सप्रेस’ कहा जाता है। मैंने चूहे को इसी एक्सप्रेस में बाहर भेज दिया और कहा कि नापाक ! अब दुबारा मेरे घर में मत घुसना। क्या करें , इतनी कठोरता भी हम नहीं बरतते यानी उसे घर से नहीं निकालते अगर वह केवल मटर गस्ती करता और हमारा मनोरंजन करता रहता। अगर वह सब्जियों के उतारे हुए छिलके कुतरता या उसके लिए डाले गए रोटी के टुकड़े खाकर संतुष्ट हो जाता। मगर वह तो कपड़े तक कुतरने लगा था जिसमें कोई स्वाद नहीं होता ना ही कोई विटामिन या प्रोटीन ही होता। अब ये तो कोई शराफत नहीं थी! जिस घर में रह रहे हो उसी में छेद कर रहे हो!? आखि़र तुम चूहे हो ,कोई आदमी थोड़े ही हो। चूहे को ऐसा करना शोभा नहीं देता।
हालांकि शुरू शुरू में वह सात्विक प्रवृत्ति का मालूम पड़ता था। पत्नी रामायण पाठ करती तो वह आसपास मंडराया करता। पत्नी समझती सुधर रहा है। रामायण के प्रति उसकी श्रद्धा बढ़ने लगी। एक दिन उसने रामायण की जिल्द का कोना कुतर लिया। यह बर्दास्त के बाहर था। पत्नी की श्रद्धा रामायण से तो कम न हुई लेकिन चूहे की औकात समझ आ गई जो रामायण सुनकर भी संत नहीं हो पाया था। मैंने सुना है कि कई आदमी मरते समय यह ग्रंथ सुनकर स्वर्ग पहुंच गए। यह कमबख्त चूहा हमारे घर में ही घूमता रहा। नहीं , मतलब .....यूं ... हमारा घर हमारे लिए स्वर्ग से कम नहीं है। चूहे के लिए भी स्वर्ग ही होगा तभी तो वह टिका हुआ है। इस बात पर देखो ,जितना सोचो उतना चूहे के पक्ष में जाता है ; इसलिए मैंने सोचना छोड़कर पत्नी की ‘चूहा मुक्ति योजना’ पर अमल का रास्ता खोजना शुरू कर दिया।
चूहा हमारे सोचने से बेपरवाह था। जब सब सो जाया करते थे तब वह ‘नाइट वाचमैन’ की तरह चुपचाप दबे पांव निकलता और वही जानता है कि किन-किन चीजों पर अपनी थूथनी आज़माता। कभी कुछ कुतरा हुआ मिलता ,कभी कुछ। वह जैसे जानबूझकर हमें आतंकित करने का प्रयास कर रहा था। खाद्य-अखाद्य सब पर थूथनी मार रहा था।
टमाटर कुतरा , चलो खाने की चीज है। चप्पल क्यों कुतरा ? मैं फिर सज्जनतापूर्वक चूहे से पूछना चाहता हूं -‘क्या तुम आदमी हो ? चप्पल तो तुम्हारे खाने की चीज़ नही है।’
आलू कुतरा तो हम शांत रहे कि चलो खाने की चीज़ कुतरा। साड़ी क्यों कुतरा ? यह चूहे की हरकत तो नहीं है ? ऐसे गंदे काम तो ‘विलेन’ करते हैं , दुश्शासन जैसे आदमी करते हैं।
शिमला मिर्च कुतरी तो हमें बुरा जरूर लगा ,पर उतना नहीं लगा कि चलो भाई चूहा है। पर 'डव' साबुन कुतर डाली...चूहा क्या खुद को कैटरीना कैफ या एंजेलिना जोली समझता है ....हीरोइन बनना चाहता है?
परन्तु चूहा हीरोइन कैसे बन सकता है ? चूहा तो पुल्लिंग है , पुरुषवाची है। चूहा का स्त्रीलिंग चुहिया है। अब कैसे पता चले कि कौन चूहा है ,कौन चुहिया !! क्या उन्हें आइना दिखाएं ?..इसका आशय समझ लें।
आचार्य रजनीश ओशो ने एक कथा बुनी कि एक दार्शनिक के पास शिष्यों ने समस्या रखी: गुरुदेव बताएं कि कैसे पता चले कि कोई मक्खी स्त्री है या पुरुष। दार्शनिक ने कहा - उन्हें आइना दिखाओ। आइना देखे ,मटके और उड़ जाए तो पुरुष । और आइने से चिपक के घंटों बैठे तो समझो स्त्री। अगर यह तार्किक-प्रमाण स्वीकार कर लिया जाए तो निश्चित रूप से यह पुरुष चूहा है। ड्रेसिंग टेबल के आइने के पास वह कभी नहीं दिखा।
मैंने अधिकतर लोगों को पुरुषों के लिए चूहा शब्द का इस्तेमाल करते ही सुना है। मगर सबसे सच्चा प्रमाण मेरी पत्नी है। वह सभी चूहों को पुरुष मानती है। उसकी नजर में चुहिया केवल छछूंदर है। वह छछूंदर को ही चुहिया कहती है। दोनों की शारीरिक बनावट में अंतर हैं। चूहा गोल मटोल होता है। छछूंदर ....पत्नी के शब्दों में चुहिया ,... आगे के पैरों और पीछे के पैरों के बीच लम्बी होती है।
एक कहावत है कि जहां छछूंदर होती है वहां चूहे और सांप नहीं आते। इस दृष्टि से 'चूहों का नीतिशास्त्र' आदमियों से बेहतर है। आदमी रूपी चूहे या सांप तो वहीं मंडराते हैं जहां स्त्री रूपी छछूंदर ..पत्नी के शब्दों में .चुहिया होती है। यानी चूहों की दुनिया शरीफों की दुनिया है। तभी शरीफ आदमी को आदमी लोग चूहा कहते हैं। इसलिए जहां चूहे होते हैं ,वहां सांप आ जाते हैं। चूहे बिल बनाते हैं और सांप उन्हीं रास्तों से शरीफ चूहों तक पहुंच जाते हैं, उन्हे अपना शिकार बनाते हैं। विश्वास के रास्ते पर ही विश्वासघात के सांप दिल पर मार करते हैं।
बहरहाल ,छछूंदर जहां होती हैं ,वहां सांप नहीं होते ; यह एक उत्साहवर्धक सूचना है। सूरदास को जब पहले पहल यह सूचना मिली तो वे गा उठे थे-‘ भई गति सांप छछूंदर जैसी’। मेरे अंदर का सूरदास भी गा उठा। यह तो एक तीर से दो शिकार करने जैसा उपकरण मिल गया था। सोच रहा हूं छछूंदरों को बुलाने के उपायों पर विचार किया जाए। एक साथ दो फायदे उठाए जाएं- सांपों को भी दूर रखा जाए और चूहों को भी। जिन्दगी इन दो प्राणियों से घिरी न रहे इसका कितना सुन्दर उपाय हाथ लगा है। छछूंदर की एक खासियत है ,जो हमें अपने अनुभव से समझ आई है ,वह यह कि वह बहुत नमकहलाल किस्म की होती है। दिन भर घर के कोने कोने में दौड़ती रहती है। जितना खाती है उतना दौड़ दौड़कर वह घर के कोने कोने की चौकसी करती है कि किसी कोने से सांप या चूहा न आ जाए। उसकी इसी प्रवृति के कारण पत्नी उसे चुहिया कहती है। अब पत्नी के मन की पत्नी जाने। (सुना है और कोई नहीं जानता। ईश्वर नामक सर्वज्ञ भी नहीं। नोट करें कि इस रहस्य को ,जिसे सब जानते हैं ,मैं गोपनीयता की दृष्टि से ‘कोष्ठक’ में दे रहा हूं।)
परन्तु ,छछूंदर में एक ही बुरी बात है कि वह हर कोने में खाया पिया पचाकर निकालती रहती है। इससे घर बदबूदार हो जाता है। हमको चूहों और सांपों से भरी सुरक्षित जिन्दगी चाहिए तो बदबू बर्दास्त करनी पड़ेगी। देखिए प्रकृति के भी कितने कठोर नियम है। इसीलिए शायद समझदार और प्रेक्टीकल लोग बदबूदार जिन्दगी को स्वीकार करते हुए दौड़े जा रहे हैं , खूब खा रहे हैं....खूब कर रहें हैं(भागमभाग)... और हर कोने में बदबू फैला रहे हैं। कुलमिलाकर छछूंदर यानी पत्नी के शब्दों में चुहिया , हमारा वर्तमान आदर्श है।
एक और बात। जितना खाती है छछूंदर ,उतना दौड़ती है और उतनी जल्दी मर भी जाती है। सुना है मुफ्त का सूंटने और खानेवाले भी ब्लड प्रेशर , ब्रेन हैमरेज , शुगर , हार्टअटैक नामक इम्पोर्टेड इंगलिश बीमारियों से मर जाते हैं। हालांकि 'राष्ट्रीयता' नामक देशी बीमारी भी है। इस बीमारी का यह लक्षण है कि जिसे होती है वह बात बेबात दंगे फैलाया करता है। दंगों में फैलानेवाले तो नहीं मरते ,मासूम लोग मर जाते हैं। इसलिए बुद्धिमान लोग कहते हैं , बीमारी चाहे देशी हो या इम्पोर्टेड ..जहां तक बने , बचे रहो। यही कारण है कि चूहे से बचने के हम बहुत से उपाय करते रहे। पिंजरा रखा। कैक रखा , काला पावडर सफेद आटे में मिलाकर रखा। मगर चूहे से हम घिरे रहे। चूहे को हम किसी भी उपाय से घेर नहीं पाए। किसी चूहदानी में उसे फंसा नहीं पाए। मगर...

एक रात की बात है। पत्नी किचन समेटकर बैठकखाने में आराम से बैठकर टीवी देखने आ गई। नियमानुसार आधे घंटे में पानी पीने किचन में गई। चूहे को पता ही नहीं था कि आम भारतीय स्वास्थ्य-सतर्क व्यक्ति खाना खाने के आधा घंटे बाद पानी भी पीता है। वह समझा कि खाने के साथ ही पानी को भी निपटा दिया गया होगा। यहीं वह फंस गया। फंस क्या गया घिर गया साहब!
पत्नी ने किचन के दरवाजे पर सैनिक की तरह डटकर मुझे आवाज दी... ‘‘पति नामक प्राणी ! आइये...वह किचन में है...’’ वह यानी चूहा ..मैं तुरंत लपका। पत्नी के हाथ में फूलझाड़ू थी। फूलझाड़ू को कौन नहीं जानता ? पत्नियां तो अवश्य। कुछ नब्बे प्रतिशत पति भी इसे पहचानते हैं। मैंने भी लपककर खरेटा उठा लिया। खरेटा झाड़ू का पुल्लिंग है। यह मोटी सीकों से बनता है। इसका उपयोग पत्नियां प्रायः कम करती हैं। जब कोई कचरा बहुत मोटा , भारी और अड़ियल होता है ,तब पत्नियों को खरेटा का इस्तेमाल करना होता है। आप समझ ही गए होंगे कि खरेटा मैंने क्यों उठाया। मोटा अड़ियल शत्रु हमारी घेरेबंदी में आया था। किचन मे रखी क्राकरी , बर्तन , खाने पीने की सामग्रियों के डिब्बों को बचाते हुए हम पूरे सुरक्षात्मक आक्रमण के मूड में आ गए। इधर मैं खरेटे से कोंच रहा था। पत्नी उधर चीखकर और उछलकर खुद को डरा रही थी। स्त्री जब डरकर चीखती है तो हमलावर अपने आप डर जाता है। पत्नी चीखकर उछलती तो चूहा घबराकर मेरी तरफ भागता। मानो मैं उसे बचाने खड़ा था। मैं इत्मीनान से उस पर खरेटे का वार करता जो कभी उस पर नहीं पड़ता। आखि़र वह दौड़-दौड़कर और पत्नी की चीखों से घबराकर अधमरा हो गया। घबराहट में वह यह भी नहीं देख पाया कि बाहर निकलने के लिए हमने किचन के कोर्टयार्डवाला दरवाजा खोल रखा है। जब वह बिल्कुल डगमगाने लगा और दौड़ने लायक भी नहीं रहा तो मैंने उसे खरेटे से बाहर उलीचना शुरू कर दिया। पांच छः बार खरेटे से उछालने पर उसे आंगन तक पहुंचा दिया गया। गिरता पड़ता चलकर वह अंधेरे में गुम हो गया।
‘‘अब वह इतना पिट चुका है कि दुबारा नहीं आएगा।’’ मैंने बुरी तरह हांफते हुए दीवान पर बैठते हुए कहा। पत्नी की सांसे भी उखड़ी हुई थी इसलिए वह केवल सिर हिलाकर रह गई।
यह था एक शुद्ध भारतीय चूहे का विशुद्ध भारतीय एन्काउन्टर।
इस घटना के दसेक दिन बाद , यानी इन पंक्तियों को अंतिम रूप देने तक एक विलायती समाचार छपा। मैं पढ़कर हैरान रह गया कि यार! ब्रिटिश चूहे तक स्मार्ट होते हैं कि वे चीनियों को चूना लगाकर ड्रेन पाइप से निकल जाएं। कि ब्रिटिश ड्रेन पाइप से ही क्यों भागते हैं......आई मीन ब्रिटिश चूहे !!!
लीजिए , आप भी पढ़िये और हो सके तो हैरान हो जाइये.........

एक समाचार: चूहे ने रेस्त्रां मालिक को मुश्किल में डाला !गाना चूहे का रेस्त्रां में परोसे जानेवाले सॉस में डुबकी और मिलना रेस्त्रां मालिक को अदालत की घुड़की । पस्त हो गई हिम्मत ,चुकानी पड़ी लापरवाही की किम्मत।
बात ब्रिटेन में स्थित एक चीनी रेस्त्रां की है। रेस्त्रां की रसोई में चूहे अक्सर उछल कूद मचाते रहते हैं। लेकिन उस दिन चूूहों की इस मस्ती को रेस्त्रां का निरीहक्षण करने आए स्वास्थ्य विभाग के एक अधिकारी ने देख लिया। चूहा तो निकल गया अपने रास्ते, गाज गिरी रेस्त्रां के मालिक पर। उसे तीस हजार पाउंड ( करीब 21 लाख रुपये) के जुर्माने के साथ आठ महीने जेल की निलंबित-सजा भी भुगतनी होगी। स्वास्थ्य अधिकारी लंदन के ‘क्वीन्सवे’ में स्थित चीनी रेस्त्रां ‘केम टोंग’ का औचक निरीक्षण करने आए। जैसे ही वह रसोई में पहुंचे , उन्होंने देखा कि पूरी रसोई गंदी पड़ी है। कॉकरोच के अंडे और झींगा मछली के टुकड़े यहां वहां बिखरे हैं। एक चूहा तो ग्राहकों को परोसे जानेवाले सॉस के कटोरे में कूदकर निकला और ड्रेन पाइप के रास्ते बाहर चला गया। अधिकारियों ने इसका फोटो खींच लिया। (एजेन्सी.)

Comments

कपड़े तक कुतरने लगा था जिसमें कोई स्वाद नहीं होता ना ही कोई विटामिन या प्रोटीन ही होता। अब ये तो कोई शराफत नहीं थी! जिस घर में रह रहे हो उसी में छेद कर रहे हो!? आखि़र तुम चूहे हो ,कोई आदमी थोड़े ही हो। चूहे को ऐसा करना शोभा नहीं देता।


बढ़िया लेख लिखा है ........


मेरे ब्लॉग कि संभवतया अंतिम पोस्ट, अपनी राय जरुर दे :-
http://thodamuskurakardekho.blogspot.com/2010/09/blog-post_15.html
"टमाटर कुतरा , चलो खाने की चीज है। चप्पल क्यों कुतरा ? मैं फिर सज्जनतापूर्वक चूहे से पूछना चाहता हूं -‘क्या तुम आदमी हो ? चप्पल तो तुम्हारे खाने की चीज़ नही है।’
आलू कुतरा तो हम शांत रहे कि चलो खाने की चीज़ कुतरा। साड़ी क्यों कुतरा ? यह चूहे की हरकत तो नहीं है ? ऐसे गंदे काम तो ‘विलेन’ करते हैं , दुश्शासन जैसे आदमी करते हैं।"

वाह राम कुमार जी इतने दिनों में आते हैं.और अनुभूतियाँ अच्छी लाते हैं.ये चूहा पुराण तो लाजवाब है बहुत नजदीक से देखा और महसूस किया लगता है कैसे सोच लेते हैं इतना सब ‘समझौता एक्सप्रेस’ स्त्रीलिंग पुल्लिंग ‘नाइट वाचमैन’ -‘ भई गति सांप छछूंदर जैसी’।
kshama said…
Ha,ha,ha! Chuhe pe itna mazedaar aalekh likha ja sakta hai,ye pahlibaar dekha!
kumar zahid said…
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kumar zahid said…
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Dr.R.Ramkumar said…
भाई गजेन्द्र सिंह जी धन्यवाद!
आपके ब्लाग में पहुंचा पर कोई पोस्ट ना पाकर हैरान भी हुआ और निराश भी।
आपकी पोस्ट का इंतजार रहेगा।
Dr.R.Ramkumar said…
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Dr.R.Ramkumar said…
रचना जी!
आपकी आत्मीय और अपनेपन से दी गई त्वरित टिप्पणियां मुझे प्रोत्साहित भी करती हैं और रोमांचित भी।
Dr.R.Ramkumar said…
क्षमाजी!
आपकी उदार और संवेदनशील टिप्पणियां किसी पुरस्कार से कम नहीं।
मैंने आपके विचार जानने के लिए आपके ब्लाग को काफी टटोला है।
कृपया ई मेल कर दें।
गज़ब का चूहा पुराण...
काफ़ी कुछ कह गये हैं...बेहतर...
Dr.R.Ramkumar said…
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Arvind Mishra said…
जबरदस्त रचना -थोड़ी लम्बी है मगर छरहरी है ....छछूदर अररर चुहिया माफिक !
गज़ब ...शानदार व्यंग्य लेखन ...!
Dr.R.Ramkumar said…
रवि भाई सा!
टिप्पणी के लिए धन्यवाद और नये लुक के लिए बधाई ।
Dr.R.Ramkumar said…
अरविंद भाई और वाणी जी !
ब्लाग में आने और मनोबल बढ़ाने के लिए धन्यवाद।
चुहे के बहाने बहुत कुछ कह गये आप। अच्छा लगा व्यंग। धन्यवाद।
Dr.R.Ramkumar said…
आ.निर्मला जी!
आपका आशीर्वाद सर आंखों पर।
ऐसे व्यंग्य लेखों की बहुत आवश्यकता है हिन्दी ब्लोगिंग में.. आभार..
इस रचना का सहज हास्य मन को गुदगुदा देता है। आपके पास हास्य चित्रण की अद्भुत कला है।
बहुत अच्छी प्रस्तुति। हार्दिक शुभकामनाएं!

अलाउद्दीन के शासनकाल में सस्‍ता भारत-१, राजभाषा हिन्दी पर मनोज कुमार की प्रस्तुति, पधारें

अभिलाषा की तीव्रता एक समीक्षा आचार्य परशुराम राय, द्वारा “मनोज” पर, पढिए!
Dr.R.Ramkumar said…
भाई दीपक जी,
मनोज जी और
हास्य फुहार उर्फ सविता जी !
प्रोत्साहन का धन्यवाद।
कृपया मनोबल बढ़ाते चलें।
व्यँग्य उत्कृष्ट ।
ZEAL said…
.

Tom and Jerry के बाद आप ही को पाया चूहा-प्रेमी। चूहों के भी दिन फिर गए।

सुन्दर लेख।

.
Dr.R.Ramkumar said…
भाई अरुणेश जी!
इतनी सुन्दर टिप्पणी के लिए धन्यवाद!


जील (उत्कंठा)
ये गणेत्सव का समय है , पशुपति के पुत्र गजमुख का आनंदोत्सव।

मै। तो देखिए..भैंस, कुत्ता , चूहा , सांप ,बिच्छू, आदि अनादि सभी का प्रेमी हूं। ये प्रेरणाएं मुझे गजानन के पितृश्री महादेव पशुपतिनाथ से मिली।

ऊपर गिनाएं गए सभी नाम ..पशुपति नाथ की सेना में होने से पूजनीय हैं। यम और काली दुर्गा के मन में भी इनके प्रति प्रेम था।..

आपकी टिप्पणी के लिए बधाई।
रामकुमार जी अस्पताल तक तो ठीक था अब ये चूहे को भी पकड़ लाये आप ......?

अद्भुत लेखन कला है आपमें .......
किसी एक विषय पर इतनी गहराई से सोच पाना आम लेखक के बस की बात नहीं .....
शुरुआत में तो लगा चूहे के मध्याम से पाक-नापाक पड़ोसियों पर कड़ा व्यंग किया है ......
पर आगे जाकर कथा चूहे पर ही केन्द्रित रही ......

@ पत्नी रामायण पाठ करती तो वह आसपास मंडराया करता। पत्नी समझती सुधर रहा है। रामायण के प्रति उसकी श्रद्धा बढ़ने लगी। एक दिन उसने रामायण की जिल्द का कोना कुतर लिया। यह बर्दास्त के बाहर था। पत्नी की श्रद्धा रामायण से तो कम न हुई लेकिन चूहे की औकात समझ आ गई जो रामायण सुनकर भी संत नहीं हो पाया था।
@ अगर यह तार्किक-प्रमाण स्वीकार कर लिया जाए तो निश्चित रूप से यह पुरुष चूहा है। ड्रेसिंग टेबल के आइने के पास वह कभी नहीं दिखा।

हा...हा...हा....कहाँ से लाते हैं ऐसी सोच .....?
लाजवाब .....!!
बस सलाम है आपको ......!!
Dr.R.Ramkumar said…
हरकीरतजी! बस, आप जैसे अद्भुत शब्द शिल्पियों की दुआओं का असर है। इसी तरह प्रोत्साहित करती रहें शायद सोच ठीक दिशा में बढ़ती चली जाए।
हमारी यही परम्परा है। हम मानवीयता की दृष्टि से दुश्मनों को या अपराधियों को लानत मलामत करके बाहर जाने का सुरक्षित रास्ता दिखा देते हैं। बहुत ही शातिर हुआ तो देश निकाला दे देते हैं। आतंकवादियों तक को हम कहते हैं कि जाओ , अब दुबारा मत आना। इस तरह की शैली को आजकल ‘समझौता एक्सप्रेस’ कहा जाता है। मैंने चूहे को इसी एक्सप्रेस में बाहर भेज दिया और कहा कि नापाक ! अब दुबारा मेरे घर में मत घुसना।


wah! kya perception hai!!
hats off to you.
Kumar Koutuhal said…
चूहा तो पुल्लिंग है , पुरुषवाची है। चूहा का स्त्रीलिंग चुहिया है। अब कैसे पता चले कि कौन चूहा है ,कौन चुहिया !! क्या उन्हें आइना दिखाएं ?..इसका आशय समझ लें।
आचार्य रजनीश ओशो ने एक कथा बुनी कि एक दार्शनिक के पास शिष्यों ने समस्या रखी: गुरुदेव बताएं कि कैसे पता चले कि कोई मक्खी स्त्री है या पुरुष। दार्शनिक ने कहा - उन्हें आइना दिखाओ। आइना देखे ,मटके और उड़ जाए तो पुरुष । और आइने से चिपक के घंटों बैठे तो समझो स्त्री।


This is the shortest way to determine anybody's gender!

Sir you are great in satire as well as in humour.
kumar zahid said…
एक कहावत है कि जहां छछूंदर होती है वहां चूहे और सांप नहीं आते। इस दृष्टि से 'चूहों का नीतिशास्त्र' आदमियों से बेहतर है। आदमी रूपी चूहे या सांप तो वहीं मंडराते हैं जहां स्त्री रूपी छछूंदर ..पत्नी के शब्दों में .चुहिया होती है। यानी चूहों की दुनिया शरीफों की दुनिया है। तभी शरीफ आदमी को आदमी लोग चूहा कहते हैं। इसलिए जहां चूहे होते हैं ,वहां सांप आ जाते हैं। चूहे बिल बनाते हैं और सांप उन्हीं रास्तों से शरीफ चूहों तक पहुंच जाते हैं, उन्हे अपना शिकार बनाते हैं। विश्वास के रास्ते पर ही विश्वासघात के सांप दिल पर मार करते हैं।


क्या बात है हुजूर !! वल्लाह कितनी बारीकी से आपने नैतिकता की खाल कुतरी...ना ना उधेड़ी है।
वाकई जादुई लेखन ! तसलीम!!
चूहे छछूंदर सांप के माध्यम से आपने उत्कृष्ट हास्य रच डाला है...कमाल की लेखनी है जनाब आपकी...चूहा हुआ हो या न हुआ हो लेकिन हम तो दीवाने हो गए आपके...सच्ची...

नीरज
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Parul kanani said…
mujhe to rochak laga :)
RAJWANT RAJ said…
ye mooshak puran to bhut vjandar hai . bhav our shilp dono me uttam .kmal hai .
समझौता एक्सप्रेस की व्याख्या पसंद आई यह मैने भी सुना है कि जहां छछूंदर होती है वहां सांप नहीं आते अव क्यो? या तो छछूंदर जाने या सांप जाने
Dr.R.Ramkumar said…
श्रृंखला, जी,
कौतुहल जी,
हुजूर ज़ाहिद साहब ,
नीरज भाई ,
आपको यह चिट्ठा पसन्द आया और आपने इतने प्यार और आत्मीयता के साथ मंझे प्रोत्साहित किया वह बस प्रणम्य है।
पारुल जी,
आपको यह लेख रोवचक लगा । धन्यवाद। उम्मीद है आपकी हिचक तोडत्रने में मुझे भविष्य में कामयाबी अवश्य मिलेगी। कृपया आती रहें।
राजवंत जी,
सूक्ष्मता के साथ मेरे चिट्ठा के विश्लेषण करने के लिए और प्रोत्साहित करने के लिए बहुत बहुत धन्यवाद!
बृजमोहन भाई ,
भइ गति सांप छदूंदर केरी
उगलत निगलत पीर घनेरी ’
-यह साक्ष्य अपने पद में महाकवि सूर ने दिया है।
प्रकृति ने हर प्राणी को अपने बचाव के कुछ गुर दिए हैं। छिपकली संकट के समय अपनी पूंछ डोड़ कर भाग जाती है। हमलावर पूछ के पीछे पड़ जाता है और छिपकली साफ बच जाती है। रिप्रडक्शन प्रकृति ने सभ शरीर को दे रखा है । कटी हुई पूंछ फिर निकल आती है।
इसी प्रकार छंछूदर को प्रकृति ने अत्यंत दुर्गन्ध डोड़ने की सुरक्षा दे रखी है।
सांप अगर छछूंदर को फिर भी निगलने लगे जाए तो मर जाता है । और दुर्गन्ध से उकता कर उसे उगल दे तो अंधा हो जाता है। इसलिए सांप छछूंदर के आसपास भी नहीं फटकते।
monali said…
Very interesting...
Dr.R.Ramkumar said…
मोनाली जी बहुत से धन्यवाद, स्वीकारें और आती रहें।
Dr.R.Ramkumar said…
सी बी कुमार साहब आभार!! कृपया ऐसी इनयतों से नवाज़ते रहें!!
Unknown said…
इतना मजा आया कि हम वाक्यों से व्याख्यान नहीं कर सकते हर एक वह चीज जो कि गांव से और घर से जुड़ी हो अपने उस चीज को दर्शाया है वह मनोदशा को व्यतीत किया है आपको बहुत-बहुत धन्यवाद बहुत ही हास्यप्रद यह कहानी है

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पितृपक्ष में रसखान रोते हुए मिले। सजनी ने पूछा -‘क्यों रोते हो हे कवि!’ कवि ने कहा:‘ सजनी पितृ पक्ष लग गया है। एक बेसहारा चैनल ने पितृ पक्ष में कौवे की सराहना करते हुए एक पद की पंक्ति गलत सलत उठायी है कि कागा के भाग बड़े, कृश्न के हाथ से रोटी ले गया।’ सजनी ने हंसकर कहा-‘ यह तो तुम्हारी ही कविता का अंश है। जरा तोड़मरोड़कर प्रस्तुत किया है बस। तुम्हें खुश होना चाहिए । तुम तो रो रहे हो।’ कवि ने एक हिचकी लेकर कहा-‘ रोने की ही बात है ,हे सजनी! तोड़मोड़कर पेश करते तो उतनी बुरी बात नहीं है। कहते हैं यह कविता सूरदास ने लिखी है। एक कवि को अपनी कविता दूसरे के नाम से लगी देखकर रोना नहीं आएगा ? इन दिनों बाबरी-रामभूमि की संवेदनशीलता चल रही है। तो क्या जानबूझकर रसखान को खान मानकर वल्लभी सूरदास का नाम लगा दिया है। मनसे की तर्ज पर..?’ खिलखिलाकर हंस पड़ी सजनी-‘ भारतीय राजनीति की मार मध्यकाल तक चली गई कविराज ?’ फिर उसने अपने आंचल से कवि रसखान की आंखों से आंसू पोंछे और ढांढस बंधाने लगी। दृष्य में अंतरंगता को बढ़ते देख मैं एक शरीफ आदमी की तरह आगे बढ़ गया। मेरे साथ रसखान का कौवा भी कांव कांव करता चला आया।

सूप बोले तो बोले छलनी भी..

सूप बुहारे, तौले, झाड़े चलनी झर-झर बोले। साहूकारों में आये तो चोर बहुत मुंह खोले। एक कहावत है, 'लोक-उक्ति' है (लोकोक्ति) - 'सूप बोले तो बोले, चलनी बोले जिसमें सौ छेद।' ऊपर की पंक्तियां इसी लोकोक्ति का भावानुवाद है। ऊपर की कविता बहुत साफ है और चोर के दृष्टांत से उसे और स्पष्ट कर दिया गया है। कविता कहती है कि सूप बोलता है क्योंकि वह झाड़-बुहार करता है। करता है तो बोलता है। चलनी तो जबरदस्ती मुंह खोलती है। कुछ ग्रहण करती तो नहीं जो भी सुना-समझा उसे झर-झर झार दिया ... खाली मुंह चल रहा है..झर-झर, झरर-झरर. बेमतलब मुंह चलाने के कारण ही उसका नाम चलनी पड़ा होगा। कुछ उसे छलनी कहते है.. शायद उसके इस व्यर्थ पाखंड के कारण, छल के कारण। काम में ऊपरी तौर पर दोनों में समानता है। सूप (सं - शूर्प) का काम है अनाज रहने देना और कचरा बाहर निकाल फेंकना। कुछ भारी कंकड़ पत्थर हों तो निकास की तरफ उन्हें खिसका देना ताकि कुशल-ग्रहणी उसे अपनी अनुभवी हथेलियों से सकेलकर साफ़ कर दे। चलनी उर्फ छलनी का पाखंड यह है कि वह अपने छेद के आकारानुसार कंकड़ भी निकाल दे और अगर उस आकार का अनाज हो तो उसे भी नि