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Showing posts from March, 2010

चूहों का साहित्य-विमर्श

पिछले पत्र का पुनश्च: चूहों का साहित्य-विमर्श मेरे आत्मन,, मेरे अपरूप चींचीं, इतनी आत्मीय से घबराना मत कि कहीं मैं सरक तो नहीं गया। आगे पढ़ोगे तो समझ जाओगे कि मैं तुम्हें अपना अपरूप क्यों कह रहा हूं। ‘पर्दे के पीछे’ के लेखक जयप्रकाश चौकसे एक समर्थ लेखक है। दिनांक 24 मार्च 10 को प्रकाशित उनका लेख ‘ बचपन को समर्पित अमर पात्र ’ चींची तुम्हारी याद में है। श्री चौकसे कविता दर्शन और साहित्य का ऐसा समन्वय उपस्थित करते हैं कि उनका लेख फिल्मी कहीं से नहीं रह पाता। वे गंभीरता पूर्वक सामाजिक सरोकार के पैरोकार लगते हैं और उनके सूत्र विश्वगुरुओं के उद्गार। मैं उनके आलेखों को रेखांकित करते हुए पन्नों को और काला करता हूं। यह साहित्य का अद्भुत रंग दर्शन है कि जितने काले होते हैं पन्ने ,उतने उजले होते हैं। श्रद्धेय चैकसे के कुछ रेखांकित अंश चींचीं तुम भी पढ़ो..............‘ बचपन को समर्पित अमर पात्र ’ कार्टून पात्र ‘टाॅम एंड जैरी ’ सारी दुनिया के लागों का मनोरंजन विगत सत्तर वर्षों से कर रहे हैं।..हर कथा के अंत में मजबूत और डील डौल में बड़ी बिल्ली थककर निराश हो जाती है । हमेशा छोटा चूहा जीत जाता है। ...

चूहों की प्रयोगशाला

( चींचीं चूहे से रेटसन जैरी तक ) मेरे प्रिय बालसखा , बचपन के दोस्त , चींचीं ! कैसे हो ? तुम तो खैर हमेशा मज़े में रहते हो। तुम्हें मैंने कभी उदास ,हताश और निराश नहीं देखा। जो तुमने ठान लिया वो तुम करके ही दम लेते हो। दम भी कहां लेते हों। एक काम खतम तो दूसरा शुरू कर देते हो। करते ही रहते हो। चाहे दीवार की सेंध हो ,चाहे कपड़ों का कुतरना हो , बाथरूम से साबुन लेकर भागना हो। साबुन चाहे स्त्री की हो या पुरुष की, तुमको चुराने में एक सा मज़ा आता है। सलवार भी तुम उतने ही प्यार से कुतरते हो , जितनी मुहब्बत से पतलून काटते हो। तुम एक सच्चे साम्यवादी हो। साम्यवादी से मेरा मतलब समतावादी है, ममतावादी है। यार, इधर राजनीति ने शब्दों को नई नई टोपियां पहना दी हैं तो ज़रा सावधान रहना पड़ता है। टोपी से याद आया। बचपन में मेरे लिए तीन शर्ट अलग अलग कलर की आई थीं। तब तो तुम कुछ पहनते नहीं थे। इसलिए तुम बिल से मुझे टुकुर टुकुर ताकते रहे। मैं हंस हंस कर अपनी शर्ट पहनकर आइने के सामने आगे पीछे का मुआइना करता रहा। ‘आइने के सामने मुआइना’ , अच्छी तुकबंदी है न! तुम्हें याद है ,तुम्हारी एक तुकबंद कविता किताबों में छप...

फिर बसंत आया

इस बार बसंत जल्दी आ गया। जल्दी आनेवाले को बेमौसम कहते हैं। देर से आनेवाले को भी बेमौसम कहते हैं। इसका मतलब है कि सबका अपना एक समय होता है ,जिसे मौसम कहते हैं। आम का मौसम ,जाम का मौसम, शाम का मौसम , फिर एक और जाम का मौसम , काम का मौसम , अंततः राम का मौसम। पतझर का भी मौसम होता है। वह बसंत के पहले भी आता है और बाद में भी आता है। पहले आकर वह जासूसी करके चला जाता है कि रास्ता साफ है, अब बसंत आ सकता है। यानी बसंत उस खूसट और खुर्राट आब्जर्वर की तरह होता जो पहले क्षेत्र का मुआयना करने आता है तथा जिसे कार्यकत्र्ता घास तक नहीं डालते। कार्यकत्र्ता हरे हरे पत्ते लेकर आनेवाले बसंतनुमा उम्मीदवार को हरी हरी घास डालते हैं।सौदा इस हाथ दे ,उस हाथ ले का होना चाहिए। वोट चाहिए तो नोट बांटने की व्यवस्था करो। व्यवस्था करनी हो तो नोट बांटो। कहा जा सकता है कि गड़बड़ी की आशंका से बसंत हड़बड़ी में जल्दी आ गया है। लोग समझ ही नहीं पाए और वह आ गया। न खांसा ,न खकारा। लोगों की हालत गफ़लत में सोये हुए उस जोड़े की तरह हो गई जो यह समझ रहा था कि बच्चे स्कूल में हैं। बुढ़उ बाजार गए हैं। पड़े रहो आराम से। क्या प...