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जीवन की उलटबांसियां

सुबह चाय के साथ चुहल का दौर भी चल रहा था। चाय में मिठास थी और मैं छेड़छाड़ का नमक उसमें डाल रहा था। खिड़की पर तभी एक बिल्ली आकर बोली ,‘मैं आउं ?’
‘ये कहां से आ गई।’ पत्नी ने कहा।
‘बहन से मिलने आई होगी।’ -मैंने कहा।
‘मम्मी आप को बिल्ली कह रहे हैं।’ -पुत्री ने मां को उकसाया।
‘कहावत है न -हमारी बिल्ली हमीं को म्यांउं’ -पत्नी मुस्कुराई।
‘कहावत गलत है। होना था, ‘हमारी बिल्ली हमीं को खाउं’ -मैंने काली मिर्च भी डाल दी
पत्नी आंख निकालकर बोली-‘अब गुर्राउं ?’
‘हमसे क्या पूछती हो , हम तो चूहे हैं’ -यह देखने में था तो समर्पण ,मगर बम था। पुत्री ने मां की वकालत की-‘ पापा अभी गणेशेत्सव गया है। हमने देखा कि एक चूहा भी हाथी को ढो सकता है।’
यह मेरे लिए हाइड्रोजन बम था। मैं चैंककर ,आश्चर्य से पुत्री को देखने लगा। वह हंसते हुए बोली ‘क्या हुआ पापा ,ठीक तो कह रही हूं।’
पत्नी मेरी कैफियत समझ गई। बोली-‘चल हमारा काम खत्म। इनको चारा मिल गया। नास्ता पकाने लगे हैं।’
मैं सचमुच नशे की हालत में डाइनिंग से रीडिंगरूम तक आया। बात निकली है तो अब दूर तक जाएगी और मैं सोच के धागों में बंधा हुआ चुपचाप घिसटता रहूंगा। ‘एक चूहा हाथी को ढोता है।’ अद्भुत बिंब हैं। अनोखे प्रतीक। गणेश-वाहन चूहे की प्रतीक-छाया में मैं चूहा तो दिखाई दे रहा हूं , मगर गुहस्थी के हस्तीवत् गुरुभार को ढो भी रहा हूं। यह बच्ची का काम्प्लीमेंट था। एक चम्मच में उसने दो गुलाब जामुन निकाले थे। मम्मी और पापा दोनों की बातें एक पासंग में थी। एक रत्ती फर्क नहीं।
विसंगतियों के ये प्रतीक और बिंब हमारे मनीषियों और गल्प-जीवियों ने बुने हैं। जीवन को वास्तविकता के गरल की जगह आध्यात्मिकता का मधुपान कराया है । जीवन की विसंगतियों को कैसे अद्भुत ढंग से प्रस्तुत किया है। गणेश जैसे विशालकाय को चूहे की पीठ पर बैठाया है। तुलसीदास ने तभी कहा:‘केशव कहि न जाये का कहिए। देखत तव रचना विचित्र अति, समुझि मनहिं मन रहिए।’
लेकिन मन ही मन रहने या रखनेवाले दिखते कम है, पर हैं जरूर। हम उत्सव मनाते हैं और गणेश को चूहे पर बैठाते हैं। बड़े चूहों पर सवारी करते हैं। इस आध्यात्मिक बिंब की प्रतीकात्मकता को राजनीति अपने ढंग से ले रही है। सामंतांे ने अलग ढंग से लिया। पूंजीपतियों ने अलग। माक्र्सवादियों ने बिल्कुल कहानी पलट दी।
साम्यवाद और पूंजीवाद की द्वंद्वात्मकता पर एक कहानी याद आती है ; जो आजकल एक नेटवर्किंग कंपनी का विज्ञापन बनी हुई है। कहानी का मूल शीर्षक है ‘द पाइड पाइपर आफ हेमलिन’। कहानी समस्या के निदान की पुरानी नेटवर्किंग का चित्रण है। हैमलिन शहर चूहों से परेशान है। एक पाइड पाइपर (शहनाई वादक ) वक्त की नजाकत को समझता है और अपने प्रडक्ट को बेचने के लिए स्वयं को चूहों को पकड़नेवाला (चूहापकड़) कहकर प्रस्तुत करता है और शहनाई बजाता हुआ वह सारे चूहो को संमोहित करके नदी में डुबो भी देता है। यह पूंजीवाद है। धन-संग्रह की एक कला।
साम्यवाद चूहों को संगठित करके क्रांति का हंसिया चलाते हैं ,हथौड़ा पीटते है। जिन्हें सामंतवादी और भव्यतावादी लोग श्रमिक और हीन समझते हंै ,उन्हें उपेक्षित करते है। अपने को सिंह और उन्हें चूहा समझते हैं। साम्यवाद उन्हीं चूहों को संगठित बलों में बदल देता है। शेर और चूहे की कहानी भी यहां पढ़ी जा सकती है जो जाल में फंसे शेर को चूहे द्वारा मुक्त कराना चित्रित करती है।
हर विसंगति अपनी मुक्ति के लिए अलग कहानी बुनती है। मनुष्य की सोच का विरेचन करती है। भारतीय मनीषा ने गणेश के विशालकाय व्यक्तित्व को चूहे के हीनकाय अस्तित्व पर ढोने की कल्पना क्यों की ? समाज के सबसे अंतिम व्यक्ति की बात करनेवाले घोषपत्रों के साथ इसे मिला कर देखूं या न देखूं। हमारी परम्परा विसंगतियों के बिम्बों और प्रतीकों से भरी पड़ी है। गणेश के पिता शंकर ने देवलोक के जीवों को बचाने के लिए न केवल जहर पिया बल्कि अपने पुत्र के वाहन चूहे के शत्रु नाग को गले से लिपटा लिया। स्वयं बैल पर बैठे और पत्नी को सिंह की सवारी कराई। पति और पत्नी के बीच तो प्रायः तू-तू मैं-मैं होती ही रहती थी , बैल और सिंह केसे निबाहते रहे हांेगे ? बड़े बेटे के वाहन मयूर से अपने कण्ठहार नाग की रक्षा उन्होंने कैसे की होगी ? मोर केे लिए तो सांप का मांस ही प्रिय है। कभी सोचना पड़ता है कि हम ‘समवेत के संगच्ध्वम्’ को स्वीकार करते हैं या जंगलराज की सच्चाई को ?
और फिर कबीर याद आते हैं जो अपनी द्वंद्वात्मकता को रहस्यवाद के मुठिये1 से बुनते हैं। कबीर कहते हैं: एक अचम्भा देखा रे भाई ! ठाढ़ा सिंह चरावै गाई।
पहले पूत पीछे भई माई । चेला के गुर लागै पाई।
जल की मछली तरुवर ब्याई। पकड़ि बिलाई मुरगे खाई।
बैलहिं डारि गूंनी घर आई। कुत्ता को ले गई बिलाई।
तल तरि साखा ऊपरि मूल। बहुत भांति जड़ लागै फूल।
- कबीर की उलटबांसियों के पूरे मिज़ाज़ में ही अचम्भा है। अचम्भा है कि सिंह गायों का पालक बना हुआ है। रक्षक जहां भक्षक बने हुए हैं वहां भक्षकों को रक्षक बनाना आजकल व्यंग्य बन जाता है। प्रजातंत्रीय घोषणापत्रों ने ऐसे व्यंग्य बहुत किये हैं।
- अचम्भा ही है कि पहले बेटे हुए और बाद में माताएं। जीव को माया कहुत बाद में दबोचती है। अगर व्यवसाय या मुद्रा-स्वार्थ का वाणिज्यशास्त्र देखें तो एक समय बाद मां सिर्फ होर्डिंग रह जाती है और पुत्र के पीछे बहुएं (मायायें) राज्य करती है। यह नीति की नहीं अर्थशास्त्र की मजबूरी है।
-अचम्भा ही है कि जल के बिना न रह सकने वाली मछलियां हवा मे अपने बच्चे देती है। बिल्ली को पकड़कर मुरगियां खाने लगती हैं। बैलों के बिना भरे हुए मालवाली गाड़ियां गोदामों में पहुंच जाती हैं। भड़ियाई के लिए प्रसिद्ध बिल्लियां वफादारी के लिए विख्यात कुत्तों को लेकर चम्पत हो जाती हैं। भारतीय पुरुष विदेशी हो जाते हैं।
-अचम्भा ही है कि शाखाएं नीचे तल के नीचे चली गई हैं। भूमिगत हो गई हैं और जड़ों में बहुत प्रकार के फूल-फूले हुए हैं। जड़बुद्धि फल-फूल रहे हैं, ऐसी बातें कहकर बहुत से भारी-भारी विद्वान लोग आहें भरते हैं और फिर भी केवल परिचितों को ,गांठ के पूरों को उछालते रहने से बाज नहीं आते। उन्हें अपने बिलाने का खतरा है। गांठ के पूरे ही उन्हें उबार सकते हैं।
अचम्भा से भरे हुए हैं कबीर। वैसे बहुत दूर और बहुत देर तक चलने के बाद सब कुछ अचम्भा ही लगने लगता है। किस-किस की चर्चा की जा सकती है ? जब जगत के ईश को जल के ऊपर सहसफनी नाग के बिस्तर पर लेटे हुए हम देखते हैं और देखते हैं कि लक्ष्मी उनके पैर चांप रही है तो क्या अचम्भा नहीं होता ? क्या अचम्भा नहीं है कि हम कांटों में गुलाब और कीचड़ में कमल को खिलते देखते रहते हैं। ज़िन्दगी की उलटबांसियों को कहां तक सीधा करने की कोशिश करेंगे हम आप। तस्मात् युद्धाय उत्तिष्ठ धनंजय के भाव से संघर्ष करते रहें।ज्यादा है तो बिल्ले और चूहे यानी टाम और जैरी के कार्टून देखकर मन बहलाते रहें।

1. कपड़ा बुनने के लिए धागे की भरनी।
03/04.11.09 , मंगल-बुध.

Comments

बहुत् विचार्Nणीय प्रश्न हैं एक ही बार पढ कर उत्तर दे पाना सहज नहीं है । जल्दी मे शुभकामनायें दे कर जा रही हूँ सवस्थ होते ही जाजिर होती हूँ धन्यवाद्
RAJNISH PARIHAR said…
bahut hi achha likha hai,aur bada yaksh prshan uthaya hai aapne....
भाई सा,
बेहतर विचार आलेख...व्यंग्य के छौंक के साथ...
बहुत ही अच्छा लगा...
R. Venukumar said…
- कबीर की उलटबांसियों के पूरे मिज़ाज़ में ही अचम्भा है। अचम्भा है कि सिंह गायों का पालक बना हुआ है। रक्षक जहां भक्षक बने हुए हैं वहां भक्षकों को रक्षक बनाना आजकल व्यंग्य बन जाता है। प्रजातंत्रीय घोषणापत्रों ने ऐसे व्यंग्य बहुत किये हैं।

-अचम्भा ही है कि शाखाएं नीचे तल के नीचे चली गई हैं। भूमिगत हो गई हैं और जड़ों में बहुत प्रकार के फूल-फूले हुए हैं। जड़बुद्धि फल-फूल रहे हैं, ऐसी बातें कहकर बहुत से भारी-भारी विद्वान लोग आहें भरते हैं और फिर भी केवल परिचितों को ,गांठ के पूरों को उछालते रहने से बाज नहीं आते। उन्हें अपने बिलाने का खतरा है। गांठ के पूरे ही उन्हें उबार सकते हैं।
अचम्भा से भरे हुए हैं कबीर।

बहुत ही गवेषणापूर्ण चित्रण ...अनुभूतियों और अभिव्यक्तियों का ऐसा स्वर्ण-सुगंधि सम्मिश्रण बहुत कम देखने मिलता है...अभिवादन प्रणाम नमन...
मेरे ब्लॉग पर आपका स्वागत है प्रेरणा देने के लिए आभार
आपका लेख बहुत सटीक है कृपया जारी रखें
रचना दीक्षित
कृपया ये वर्ड वेरिफिकेशन निकाल दें आपके ब्लॉग पर इसके पहले भी कई बार आई पर वर्ड वेरिफिकेशन से परेशान हो गयी बाकी लोग भी परेशान होंगे
रचना दीक्षित
Dr.R.Ramkumar said…
निर्मलाजी !
आप अस्वस्थ हैं यह जानकर दुख हुआ। सुख दुख यूं तो आने-जाने हैं और पहुंचे हुए कहते हैं कि सुख का मजा लेना हो तो दुख का भी स्वाद चखना चाहिए।
आप शीघ्र स्वास्थ्य-लाभ लेकर लौटें यही कामना है।

रजनीश जी !
गंभीरता पूर्वक ब्लाग पढ़ने और टिप्पणी करने का धन्यवाद ! कोई भी रचनाकार शेष-पांडव नहीं होना चाहता इसलिए सटीक उत्तर खोजने का प्रयास हमेशा करते रहता है। यह संभव होता है रचनाकार मित्रों से लगातार संवाद करने से। कृप्या यह संवाद बनाएं रखें।

रविभाईसा !
आपकी टिप्पणी उत्साहित करती है। कुछ लम्बी बातचीत की इच्छा है। देखें वक्त कब अवसर देता है।

वेणुकुमार जी !
आपकी टिप्पणी के लिए हृदयशः धन्यवाद।
वो कहा है न ‘ताड़ने वाले कयामत की नजर रखते है’। आपकी टिप्पणी प्रेरणास्प्रद है।

रचनाजी!
ब्लाग में आने और टिप्पणी का धन्यवाद।
वर्ड वेरीफिकेशन की ओर ध्यान नहीं था। आपकी असुविधा और अन्यों की असुविधा को देख सोचकर इसे ढूंढकर हटा दिया है। कृप्या तसल्ली कर लें।

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