जिनमें निश्छल दर्द हुआ है उन गीतों ने मुझे छुआ है। मुख्य-मार्ग में रेलम पेला पथपर मैं चुप चलूं अकेला खेल-भूमि पर हार जीत का कोई खेल न मैंने खेला । बहुत हुआ तो चलते चलते कांस-फूल को गोद लिया है। फिसलन हैं ,कंकर पत्थर हैं मेरे घर गीले पथ पर हैं भव्य-भवन झूठे सपने हैं अपने तो चूते छप्पर हैं। छल प्रपंच के उजले चेहरे निर्मल मन में धूल धुआं है। मंगली हैं मेरे सब छाले दिए नहीं मन्नत के बाले मेरी नहीं सगाई जमती कोई सगुन न मेरे पाले हाथों कष्टों की रेखाएं सर पर मां की बांझ दुआ है। फिर भी मैं हंसता गाता हूं जिधर हवा जाती जाता हूं दिल में जो भी भाव उपजते गलियों में लेकर आता हूं बोया बीज न फसल उगाई खुले खेत भी कहां लुआ है। 080909