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Showing posts from September, 2025

शानी का पूरा नाम

 शानी का पूरा नाम ...  'नाम में क्या रखा है।' यह बड़ा लोकप्रिय कथन है और अंग्रेजी लैटिन के जानकार बताते हैं कि विलियम शेक्सपीअर के किसी नाटक में कोई पात्र यह कथन करता है। लेकिन सच्चाई यही है कि अधिकांश लोग धन, जन, काम और नाम के लिये ही जीते हैं। उसे ही पुरुषार्थ मानते हैं।  पर देखा यह जाता है व्यक्ति के काम के पीछे उसका नाम गौण होकर, काम की पीठ पर सवार होकर चलता रहता है। पैरासाइट की तरह , पिस्सू या अमरबेल की तरह। आज भी कालिदास का मूल नाम किसी को नहीं मालूम। तुलसीदास  का नाम रामबोला भी अनुमान या कथा ही है। राहुल सांकृत्यायन, नागार्जुन, धूमिल आदि के नाम जानने के लिए हड़प्पा की वापी खोदनी पड़ती है।  मैं भी कुछ क्षण के लिए इस चक्कर में पड़ गया। मैं उन लोगों में से नहीं हूं जिनका भरोसा ज्ञान के मामले में भी कट्टर 'मैं' को अंगद की तरह एक स्थान पर जमाये रखते हैं। आस्था के मामले में एक ही बात को आंख मूंदकर पकड़े रखना भक्ति की सार्थकता हो सकती है। तर्क के हाथपांव बांधकर पत्थर के साथ कसकर समुद्र में फेंक देना सच्चा अनुगमन हो सकता है,  मगर ज्ञान के रास्ते में निरंतर तार्कि...

गुलशेर खां शानी : शालवनों का द्वीप

  गुलशेर खां शानी: शालवनों का द्वीप गुलशेर खां शानी             ज़िद आख़िर ज़िद होती है। कुछ मिले न मिले, बात लग जाये तो फिर पहाड़ खोद कर रास्ते निकालना मुश्किल नहीं होता। अब चाहे फरहाद हो या दशरथ मांझी, या मुझे भी इस फेहरिस्त में शामिल होने में कोई शर्म या झिझक नहीं।            बड़ी निराशा, व्यथा और पीड़ा की बात है कि बहुत ही ज़रूरी और महत्व की मूल्यवान पुस्तकें अब न दुकानों में मिलती न ऑन लाइन विक्रेताओं के पास। पीडीएफ तक नहीं। कहाँ गयी किताबें? कैसी साजिशों और किसकी साजिशों का शिकार हो गईं ये?              पिछले दशकों में, शायद नब्बे के दशक से बस्तर, नक्सल, सलवा जुडूम, एस पी ओ, आदि बहुत चर्चित हुए हैं। जंगल सत्याग्रह, जल, जंगल और ज़मीन, आदिवासी विमर्श, और बस्तर का असंतोष बड़ी चरचा में हैं। जंगल काटकर उद्योग स्थापित करना या इमारती लकड़ियां स्मगल करना एक परम्परा की तरह अंग्रेजों के समय से चला आ रहा। वनवासियों का शोषण बेगारी, विस्थापन सब आम बात की तरह हर सरकार का अघोषित एजेंडा रहा है। वन कर्मियो...