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स्मृति के शिलालेख

 'राग दरबारी'  : विद्रूपताओं और विडंबनाओं की जुगलबंदी 


      130 से अधिक पुस्तकों के लेखक, उपन्यासकार व व्यंग्यकार श्रीलाल शुक्ल को लोग 'राग दरबारी' के लेखक के रूप में जानते हैं। उनको पढ़नेवालों ने लिखा है -"श्रीलाल शुक्ल का व्यक्तित्व द्वंदात्मक था। वे सहज लेकिन सतर्क, विनोदी लेकिन विद्वान, अनुशासनप्रिय लेकिन अराजकता का बहुविध मिश्रण थे। इसी क्रम में श्रीलाल शुक्ल प्रशासनिक अधिकारी की शुष्कता और रूक्षता के बावजूद शास्त्रीय  संगीत और सुगम संगीत दोनों पक्षों के रसिक-मर्मज्ञ थे। यही नहीं, श्रीलाल शुक्ल जी ने गरीबी झेली, संघर्ष किया, मगर उसके विलाप से लेखन को नहीं भरा। इसका कारण यह रहा कि समाज संरचना की दृष्टि से चारों ओर से उन्हें  जन्म से ही ऐसे मजबूत कवच का आवरण मिला जिसमें निर्धनता के बावजूद सम्मान, संघर्ष के बावजूद सहयोग और प्रोत्साहन तथा त्रुटियों के बावजूद सहानुभूति ने घेरे रखा। उन्हें बाधा हुई तो स्वास्थ्यगत कारणों से, क्योंकि 'देह धरे को दंड' तो राजा भी भोगता है, रंक भी। कुलीन भी भोगता है और वंचित भी। इसीलिए शैक्षणिक एवं स्वास्थ्यगत बाधाओं के कारण वे केवल 10 उपन्यास, 4 कहानी संग्रह, 9 व्यंग्य संग्रह, 2 निबंध, 1 आलोचना की पुस्तक ही रच सके। अगर स्वास्थ्य कारण न बनता तो साहित्य उनके लेखन से और समृद्ध होता। 
         उनका पहला उपन्यास 'सूनी घाटी का सूरज' 1957 में प्रकाशित हुआ। उनका सबसे लोकप्रिय उपन्यास 'राग दरबारी' 1968 में छपा। 'राग दरबारी' श्रीलाल शुक्ल का आखिरी उपन्यास था, जिसे 1976 में पढ़ते हुए मैं राजनांदगांव से चालीसगांव पलक झपकते पहुंच गया। 'रागदरबारी' व्यंग्य का एक अलौकिक और तिलिस्मी उपन्यास है, वरना यह कैसे संभव था कि विश्वविद्यालय की परीक्षा देकर निकला, बादलपार की घाटी में रहनेवाला लगभग वनवासी छात्र, अपलक रहकर भी, पलक झपकते सैकड़ों किलोमीटर दूर कैसे पहुंच गया। न भूख, न प्यास। ख़ैर इसका तो प्रश्न ही नहीं था। निर्धन वनवासियों को भूख लगती न प्यास। 
        यानी 'रागदरबारी' में जादू तो है। श्रीलाल शुक्ल के अग्रज हरिशंकर परसाई ने व्यंग्य की जो दुनिया बनाई थी, रागदरबारी ने उसमें एक नया राग और एक नई ताल जोड़ा था। रागदरबारी के पात्र बादलपार के मैदानी क्षेत्रों में भी दिखाई देते थे और रुखड़ के गांव में भी। यह सोचकर अच्छा लगता है कि घोर भ्रष्ट समाज ही वह सांस्कृतिक डोर है, जो संपूर्ण भारत को बांधे हुए है। इसीलिए तो लेखक के लखनऊ से हजारों मील दूर रहनेवाला अधपढ़ा छात्र भी अपने आसपास की दुनिया को पढ़ने लगता है। 
         अस्सी और नब्बे के दशक में 'रागदरबारी' को पढ़ने की ऐसी होड़ लगी कि किताबें ख़त्म हो गईं। हालांकि प्रकाशन जगत भी एक वाणिज्यिक प्रबंधन है। कितनी किताबें छापनी हैं और कैसे व्यवस्था के सूत्रों के माध्यम से उन्हें शासन के अधीनस्थ महाविद्यालयों, विद्यालयों और उनके ग्रंथालयों सहित सार्वजनिक ग्रंथालयों में भेजी जानी है। कैसे विधायकों और सांसदों की निधियों में से अधिपत्रों (सर्कुलर्स) के कल्छुर से किताबें ऐसी जगहों में भी पहुंचायी जानी है,जहां उसकी जरूरत नहीं है। पुस्तक विक्रेता 30 से 40 प्रतिशत 'शिष्टाचार' माननीय और मान्यवरों तक पहुंचा ही देते हैं। जिन्हें अक्ल नहीं है  वे ही इस शिष्टाचार को कमीशन कहते हैं। 
      व्यवस्था का मज़ाक उड़ानेवाली इस ऐंद्रजालिक किताब को दिखाने की व्यवस्था भी वृहद स्तर पर की गई। यह भी इस पुस्तक का जादू था कि बिना पढ़े लिखे लोगों ने भी इसे घर में ही देखते हुए पढ़ा। 
      ऐसा क्या था 'रागदरबारी' में। संगीत का जादू समझ में आता है। भैंस को छोड़कर अन्य जानवर संगीत सुनकर डोलने लगते हैं, ऐसा सुना है। सुना है कि एक पुराण भी इसको प्रमाणित करता है। यह भी सुना है कि पेड़ पौधों को भी संगीत सुनकर फूलने का मन हो जाता है। लेकिन शब्दों से भी किसी को बांधा जा सकता है क्या? 
       इसका कुछ प्रयोग करते चलें। दोस्तों मेरा नितांत व्यक्तिगत मत है कि किसी लेखक की लोकप्रियता में नामी प्रकाशक का बहुत बड़ा योगदान होता है। बड़ा प्रकाशक किसी ऐसे लेखक को प्रकाशित नहीं करता- 
१. जिसके पास बिकने की संभावना न हो।
२. जिसके बेहतर जनसंपर्क न हों यानी किताब खपाने की क्षमता न हो।
३. जिसका कोई व्यक्तित्व, पद, सामाजिक आधार न हो।
४. जो सम्भ्रांत कुल से संबंधित न हो मतलब जिसकी आलोचना हो तो वो धड़ाम से ज़मीनदोज़ न हो जाए और जाने अनजाने लोग भी उसके समर्थन में न निकल आएं। 
       भारत के एक सबसे बड़े प्रकाशक ने श्रीलाल जी को प्रकाशित करते हुए बेहद जादुई अंदाज में लिखा-"यह राग उस दरबार का है जिसमें हम देश की आजादी के बाद और उसके बावजूद पड़े हुए हैं। कथा-भूमि है एक बड़े नगर से कुछ दूर बसा हुआ गाँव शिवपालगंज, जहाँ की जिन्दगी प्रगति और विकास के समस्त नारों के बावजूद, निहित स्वार्थों और अनेक अवांछनीय तत्त्वों के आघातों के सामने घिसट रही है। शिवपालगंज की पंचायत, कालेज की प्रबन्ध- समिति और कोआपरेटिव सोसाइटी के सूत्रधार वैद्यजी साक्षात् वह राजनीतिक संस्कृति है जो प्रजातन्त्र और लोकहित के नाम पर हमारे चारों ओर फल-फूल रही है।"
         यह विज्ञापन किताब के आवरण(कवर) के पिछले पृष्ठ पर है। किताब चुनने के पूर्व लोग प्रायः अगले और पिछले पृष्ठ की ही सर्वप्रथम पड़ताल करते हैं। मैंने भी यही किया और इसी क्रम में आपको भी पढ़ा-दिखा रहा हूं। 
       आप देखेंगे कि मैने इस लेख के प्रारंभ में ही, इस पुस्तक के आवरण का अगला पृष्ठ, पिछला पृष्ठ, आरंभ और अंत के उद्धरण दे दिए हैं। भारत सरकार ने श्रीलाल शुक्ल जी पर जो डाक टिकट ज़ारी किया, वह भी कोलॉज में है।
     किताब का आवरण एक महिला ने बुना है। प्रकाशक ने पश्चावरण में उनका नाम मृणालिनी मुखर्जी दिया है। आप देख सकते हैं कि 'मुख-आवरण' पर, क्रोशिए से बुना हुआ उल्लू, ठंडी आंखों से पाठकों का आव्हान कर रहा है। जिसने भी मुखावरण का चयन किया है, वह बहुत ड़कों के साथ बलात्कार करने के लिए हुआ है। जैसे कि सत्य के होते हैं, इस ट्रक के भी कई पहलू थे। पुलिसवाले उसे एक ओर से देख- कर कह सकते थे कि वह सड़क के बीच में खड़ा है, दूसरी ओर से देखकर ड्राइवर कसेह सकता था कि वह सड़क के किनारे पर है। चालू फ़ैशन के हिसाब से ड्राइवर ने ट्रक का दाहिना दरवाजा खोलकर डैने की तरह फैला दिया था। इससे ट्रक की खूबसूरती बढ़ गयी थी; साथ ही यह खतरा मिट गया था कि उसके वहाँ होते हुए कोई दूसरी सवारी भी सड़क के ऊपर से निकल सकती है। 
        
          इस खूबसूरती को पीकर हंसते हुए आप आगे बढ़ते हैं और बिना पलके झपके किताब के अंत पर पहुंचते हैं। 408 पृष्ठों की इस पुस्तक के अंतिम पृष्ठ पर इस किताब का अंत ऐसे हुआ, मुलाहिजा हो - 
             इसका कोई जवाब न पाकर वे रंगनाथ को पुचकारने लगे। 'आप' से 'तुम' पर उतरकर बोले, "मैं तो तुम्हें घर का आदमी मानकर कह रहा हूँ। आख़िर करोगे क्या? कहीं-न-कहीं नौकरी ही तो करोगे न? यहाँ तो खन्ना ने अपने मन से इस्तीफ़ा दिया है। वहाँ क्या पता सचमुच ही कोई खन्ना कान पकड़कर निकाला गया हो। इससे कहाँ तक बचोगे बाबू रंगनाथ? जहाँ जाओगे, तुम्हें किसी खन्ना की ही जगह मिलेगी।"
         कहकर वे चबूतरे से कुछ दूर खड़े हुए मदारी की तरफ़ मुखातिब हुए और हाथ के पुरजोर इशारे से उसे जहन्नुम में जाने की सलाह देने लगे।
         प्रिंसिपल ने यह बात बड़े आश्चर्य से सुनी। फिर उदास होकर बोले, "बाबू रंगनाथ, तुम्हारे विचार बहुत ऊँचे हैं। पर कुल मिलाकर उनसे यही साबित होता है कि तुम गधे हो।"
        
         इस पवित्र वार्त्तालाप के साथ पुस्तक समाप्त हो चुकी है। लेखक ने बाद के पांच वाक्य केवल पुड़ा बांधने के लिए लपेटे गए धागों की शक्ल में लिखे हैं। उन चार पंक्तियों से आप क्यों वंचित रहें। उन्हें भी हाथ से नहीं, आंख से छूकर देख लीजिए। प्रस्तुत हैं बिल्कुल अंतिम पंक्तियां - 
                                      
            इस खूबसूरती को पीकर हंसते हुए आप आगे बढ़ते हैं और बिना पलके झपके किताब के अंत पर पहुंचते हैं। 408 पृष्ठों की इस पुस्तक के अंतिम पृष्ठ पर इस किताब का अंत ऐसे हुआ, मुलाहिजा हो - 
             इसका कोई जवाब न पाकर वे रंगनाथ को पुचकारने लगे। 'आप' से 'तुम' पर उतरकर बोले, "मैं तो तुम्हें घर का आदमी मानकर कह रहा हूँ। आख़िर करोगे क्या? कहीं-न-कहीं नौकरी ही तो करोगे न? यहाँ तो खन्ना ने अपने मन से इस्तीफ़ा दिया है। वहाँ क्या पता सचमुच ही कोई खन्ना कान पकड़कर निकाला गया हो। इससे कहाँ तक बचोगे बाबू रंगनाथ? जहाँ जाओगे, तुम्हें किसी खन्ना की ही जगह मिलेगी।"
         रंगनाथ का चेहरा तमतमा गया। अपनी आवाज को ऊँचा उठाकर, जैसे उसी के साथ वह सच्चाई का झण्डा भी उठा रहा हो, बोला, "प्रिंसिपल साहब, आपकी बातचीत से मुझे नफ़रत हो रही है। इसे बन्द कीजिए।"
          इसके बाद वार्ता में गतिरोध पैदा हो गया। मदारी, जहन्नुम में जाने के बजाय, वहीं पर जोर-जोर से गाने लगा था और उसकी डुगडुगी अब एक नयी ताल पर बज रही थी। कुछ दूरी पर कुछ कुत्ते दुम हिलाते, कमर लपलपाते भूंक रहे थे। लड़के घेरा बाँधकर खड़े हो गये थे। दोनों बन्दर मदारी के सामने बड़ी गम्भीरता से मुँह फुलाकर बैठे हुए थे और लगता था कि ये जब उठेंगे तो भरतनाट्यम् से नीचे नहीं नाचेंगे।                      
         एक सामान्य और जमीनी पाठक की भांति मेरे मन में पुस्तक किस खाने में और कैसे रखी है, केवल इसकी चर्चा की। एक समीक्षक की भांति इसका शल्यान्वेषण नहीं किया। उपन्यास के तत्व, गुण-धर्म, कथ्य का वैशिष्ट्य, चरित्रों की अन्विति और निर्वाह, चरित्रों की भाषा और लेखक की भाषा, लेखक की शैली और नवाचार, संवादों के विश्लेषण और व्याप्ति, उपन्यास की प्रकृति और प्रकार, उपन्यास का सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक और सांस्कृतिक मूल्यांकन, उपन्यास में मूल्यगत अवधारणा, दशा और दिशा, विमर्श और उत्कर्ष, उपन्यास का उद्देश्य आदि को घेरते हुए कोई  शोध का लालच भी पाठकीयता को नहीं है। फिर भी कुछ कहना ही हो तो ख सकते हैं कि उपन्यास एक निर्मल, अप्रदूषित, अराजनैतिक, वाद विवाद से मुक्त, संप्रदाय और धार्मिक आस्थाओं को छुए बिना सरल और सहज ढंग से बदलते समाज की मूल्यहीनता का अमूल्य और सरस चित्रण है। यह एक व्यंग्य मूलक उपन्यास है,ऐसा कहते हुए भी संकोच होता है। यह तो सम्भ्रांत और कुलीन शिष्टाचार से युक्त एक जिम्मेदार अधिकारी का पारदर्शी रोजनामचा है।      
      आज प्रसंगवश 'राग-दरबारी' की स्मृति हो आई। वर्ष 2024 अपनी समापन शय्या पर है। उसकी जबान लड़खड़ा रही है और हाथ कांप रहे हैं। जैसे वह पार्किन्सन से ग्रस्त हो। जिस चीज़ को भी वह पकड़ना चाहता है वह उससे छूट जाती है। इस जाते हुए साल की हालत मेरे पड़ोस में रहनेवाले डॉक्टर के जैसी है जो पार्किंसन से इस बुरी तरह ग्रस्त था कि न स्टेथस्कोप से धड़कन गिन सकता था न इंजेक्शन लगा सकता था। प्रिस्क्रिप्शन भी बोलकर लिखवाता था।  
    यही हाल अंतिम दिनों में 'राग दरबारी' के लेखक श्रीलाल शुक्ल का हो गया था। आयु के 86 वें वर्ष में बीमारी बुरी तरह बिगड़ गई तो 16 अक्टूबर 2011 को उन्हें सहारा अस्पताल लखनऊ में भर्ती कराया गया। 12 वें दिन 28 अक्टूबर 2011 को उनके कांपते हाथों से सांसों की माला ही छूट गई। उन्होंने 31 दिसंबर 1925 को दुनिया को व्यवस्थित करने के लिए आँखें खोली थीं।  125 वें जन्मदिन की उनकीz!
                                       @ डॉ. रा. रा. कुमार, ३०.१२.२४,

परिशिष्ट : (संक्रमण/स्वैच्छिक पठनार्थ)
राग दरबारी, पृष्ठ 94, 
      गुटबन्दी के उद्देश्य से न होकर ये काम व्यक्तिगत कारणों से होते थे और इस तरह लड़कों की गुण्डा- गर्दी की शक्ति व्यक्तिगत स्वार्थों पर नष्ट होती जाती थी, उसका उपयोग राष्ट्र के सामूहिक हित में नहीं होता रहा था। गुटबन्दों को अभी इस दिशा में भी बहुत काम करना था।
यह सही है कि वैद्यजी को छोड़कर कालिज के गुटबन्दों में अभी अनुभव की कमी थी। उनमें परिपक्वता नहीं थी, पर प्रतिभा थी। उसका चमत्कार साल में एकाध बार जब फूटता, तो उसकी लहर शहर तक पहुँचती । वहाँ कभी-कभी ऐसे दाँव भी चले जाते जो बड़े-बड़े पैदायशी गुटबन्दों को भी हैरानी में डाल देते। 

राग दरबारी, अध्याय तेरह, पृष्ठ 127,
    तहसील का मुख्यालय होने के बावजूद शिवपालगंज इतना बड़ा गाँव ना था कि उसे टाउन एरिया होने का हक़ मिलता। शिवपालगंज में एक गाँव-समिति थी और गाँववाले उसे गाँव-सभा ही बनाये रखना चाहते थे ताकि टाउन एरियावाली दर से ज्यादा टैक्स ने देना पड़े। इस गाँव-सभा के प्रधान रामाधीन भीखमखेड़वी के भाई थे जिनकी सबसे बड़ी सुन्दरता यह थी कि वे इतने साल प्रधान रह चुकने के बावजूद न तो पागलखाने गये थे, न जेलखाने। गँजहों में वे अपनी मूर्खता के लिए प्रसिद्ध थे और उसी कारण, प्रधान बनने के पहले तक, वे सर्वप्रिय थे। बाहर से अफ़सरों के आने पर गाँववाले उनको एक प्रकार से तश्तरी पर रखकर उनके सामने पेश करते थे। और कभी-कभी कह भी देते थे कि साहेब, शहर में जो लोग चुनकर जाते हैं उन्हें तो तुमने हजार बार देखा होगा, अब एक बार यहाँ का भी माल देखते जाओ । 

राग दरबारी, अध्याय अट्ठाईस, पृष्ठ 295,
          उस गाँव में एक दुखी लड़का था जिसका नाम रुप्पनबाबू था। कुछ दिन पहले उसका रोब लम्बा-चौड़ा और रुतबा ऊँचा था, क्योकि उसके बाप का नाम वैद्यजी था और इसके अलावा उसका अपना भी एक नाम था। वह दसवें दर्ज में कई वर्षों से पढ़ रहा था और विद्यार्थियों का लीडर था । तहसीलदार उसका हमजोली, थानेदार उसका दरबारी और प्रिंसिपल उत्तका मातहत था। वह बहुधा कॉलिज के मास्टरों के व्यवहार और आचरण से असन्तुष्ट रहता था और मास्टर लोग उसे, "भयानां भयं भीषणं भीषणाणाम्" और पिताओं का पिता मानते थे। घर पर उसकी हैसियत एक तेज-तरीक बछेड़े-जैसी थी और यह निश्चय था कि देश के राजनीतिक- चरागाह में स्वच्छन्द चरनेवाली होनहार सन्तानों की तरह किसी दिन वह भी चरने की कला सीख जायेगा और बाप के मर जाने पर इधर-उधर के रास्तों में साल-छः महीने बिताकर किसी दिन वह अपने बाप की जगह पर ही जुगाली करता हुआ दिखायी देगा ।

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