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बुंदेलखंडी ईसुरी

बुंदेलखंडी ईसुरी 

  बुंदेलखंड के सर्वाधिक लोकप्रिय कवि ईसुरी आज भी बुंदेलखंडी बोली के शीर्ष कवि के रूप में याद किये जाते हैं। ईसुरी की रचनाओं में ग्राम्य संस्कृति एवं सौंदर्य का वास्तविक और जीवंत चित्रण मिलता है। उनकी ख्‍याति फाग पर लिखी  रचनाओं के लिए है जो युवाओं में बहुत लोकप्रिय हुईं। विद्वानों के अनुसार 'ईसुरी की रचनाओं में निहित बुन्देली लोक जीवन की सरसता, मादकता और सरलता और रागयुक्त संस्कृति की रसीली रागिनी से मदमस्त करने की क्षमता है। ईश्वरी की रचनाएँ प्रगति वर्द्धक जीवन श्रंगार, सामाजिक परिवेश, राजनीति, भक्तियोग, संयोग, वियोग, लौकिकता, शिक्षा चेतावनी, काया, माया पर आधारित है।'

बुंदेली काव्य के पितृ-पुरुष ईसुरी को विश्वविद्यालय के बुंदेली पाठ्यक्रम में सम्मिलित किया गया है जो मध्यप्रदेश के शीर्षोत्तर से लेकर दक्षिणान्त बालाघाट, छिन्दवाड़ा, सिवनी और बेतुल के कुछ अंशों में बोली जानेवाली महत्वपूर्ण भाषा और बोली रही है। विश्वविद्यालयों में सम्मिलित दूसरी 'बोली'(भाषा) 'बघेली' पूर्वोत्तर मध्यप्रदेश शहडोल से रीवा तक आज भी बोली जाती है। इन दोनों के साहित्य में शोध भी हो रहे हैं। प्रदेश के पश्चिमोत्तर में खंडवा, इंदौर से खरगौन तक बोली जानेवाली इस बोली का भी साहित्यिक महत्व है और विश्वविद्यालयों में इनके शोध प्रकोष्ठ इस दिशा में बड़ा काम कर रहे हैं।
पंवारी और लोधांति सिर्फ़ बालाघाट तक सीमित नहीं है और लोकसभा में गृह मंत्री से पूछे गए प्रश्न के उत्तर में यह बताया गया था कि इनके 38 प्रस्तावित 'राजभाषाओं' के साथ स्वीकृति पर विचार चल रहा है। इस पटल को इस दिशा में इतना समृद्ध करें कि इस खंड से इन बोलियों को व्याघ्रनाद (roar of tiger) मिल सके। साहित्य का उद्देश्य साहब बनना नहीं, सहचर बनना है।  साहित्य के 'छन्द- कौशल' में विशिष्टता, जन से क़रीब से जुड़ने में है, उससे दूर जाने में नहीं। 


ईसुरी की  बानगियाँ :


1. बानी


बानी सब सौं बोलौ मीठी बानी! थोरी है जिंदगानी!

जेइ बानी सुर लोक पठावै, जेई नरक निसानी॥

जेइ बानी हाती चड़वाबै, जेई उतारै पानी॥

जेई बानी सों तरे ‘ईसुर’ बड़े बड़े मुनि ज्ञानी॥


शब्दार्थ :बोलौ : बोलिये/बोलो।जेइ : यही, यह ही। हाती : हाथी। चड़वाबै : चढ़ाती है, बैठाती है। उतारे पानी : अपमानित करवाती है। तरे : पार उतरे, सफल हुए, प्रतिष्ठित हुए।

व्याख्या : परम्परा का व्यावहारिक अनुसरण करते हुए कवि ईसुरी कहते हैं कि इस ज़िन्दगी बहुत थोड़ी, छोटी है इसलिये सब से मीठी वाणी बोलना चाहिए। यह वाणी स्वर्ग भी पहुंचाती है और नर्क में भी डालती है।  यह वाणी हाथी पर सवारी भी करवाती है और अपमानित भी करती है। इस वाणी के सम्यक उपयोग से बड़े बड़े ऋषि और ज्ञानियों को सफलता के शीर्ष पर पहुंचने का अवसर मिला है। 

साम्य १. प्रखर कवि कबीरदास जी का प्रसिद्ध दोहा (साखी, साक्षी, गवाही, परवाना) इसी बात को प्रतिपादित करता है। कबीर ने कहा- 

ऐसी बानी बोलिये, मन का आपा खोय।

औरन को सीतल करे, आपहुं सीतल होय।।

 २. 'बातन हाथी पाइए, बातन हाथी पांव'  एक बहुप्रचलित लोकोक्ति या कहावत है जिसका अर्थ है कि (अ) बातों से हाथी पर बैठने का अवसर भी मिलते हैं और बातरोग से हाथीपांव भी हो जाता है।

(आ)  बातों से हाथी की सवारी (राजपद) भी मिलता है  और बातों से मृत्यु दंड भी। लोकांचलों में बातचीत के समय अकसर दोहराई जाती है, कोई अच्छा बोले तब भी और कोई बुरा बोले तब भी। दूसरे अंश को कबीर के सन्दर्भ में भी प्रायः जोड़ा जाता है। 


2. ओरे


पर गए इन सालन में ओरे! कऊँ भौत कउँ थोरे!

आँगे सुनत परत हे होहे सब दिन-रात चबोरे॥

कोनउ ठीक कायदा ना रए, धरै विधाता तोरे॥

कैसे जियत गरीब-गुसा-मन, छिके अन्न के दोरे॥

‘ईसुर’ कैउ करे है ऐसे, कंगाली में कोरे॥


शब्दार्थ :सालन : वर्षों, सालों। ओरे : ओले, आसमानी बर्फ़ के टुकड़े। कऊं /कहुं : कहीं। भौत : ज़्यादा, बहुत। थोरे : थोड़े। सुनत परत हे : सुनाई पड़ता है। चबौरे : चना आदि भुने हुये अनाज चबाना। कोनउ : कोई भी। रए : रहे। धरै विधाता तोरे : विधाता तोड़कर धर(रख) रहा है। जियत : जी रहे हैं। गरीब-गुसा-मन : ग़रीब गुरबा लोग। छिके अन्न के दोरे : भरपूर अन्न की विपन्नता। दरिद्रता की मार। कैउ करे : कौन करता है। कंगाली में कोरे : कंगाली में दीन हीन।

व्याख्या : यह एक समस्या मूलक पद है जिसमें कृषि पर ओलापात और  उससे उत्पन्न दुर्भिक्ष का चित्रण है। कवि कहते हैं कि इस वर्ष ऊगी हुई फसल पर ओलों की बरसात हुई है। कहीं थोड़ी, कहीं ज़्यादा हुई है पर कष्टकारी हुई है। हर ओर इस तरह की आशंका हो रही है कि आनेवाले दिनों में खाने की भीषण समस्या हो जाएगी। यह तो ठीक नहीं हो रहा है। विधाता ने तो हमें तोड़कर रख दिया है। अन्न के अभाव में गरीब लोग कैसे जिएंगे, सब भूख से मर रहे हैं। इस तरह कौन किसी को कंगाल और अनाथ छोड़ देता है? 

3. रगदायी


पर गई लरकन की रगदाई बउ बरसान कहाई।

धोबन ज्वाय देत धोंबे खों, अब नइँ होत धुआई॥

सोरें धोउत बसोरन चिक गई, नाँइ करत है नाई॥

कैसी करें रंज के मारें घर में आफ़त आई॥

मंगन सौ घर हो गऔ ‘ईसुर’ मांगन लगे खबाई॥


शब्दार्थ :लरकन : लड़कों/संतानों।रगदायी : जनसंख्या विस्फोट। रगड़ा। बहुतायत।बउ : मां, जननी। बरसान  : अतिवृष्टि, छप्पर फाड़ बरसात। कहाई : कहलाई। धोबन: वस्त्र ढोनेवाली। ज्वाय देत : जवाब दे देती है, मना कर देती है। धोंबे खों : धोने के लिये। सोरें धोउत : अहाता धोते धोते सफ़ाई कर्मी चिढ़ गई है। अब नइँ होत धुआई : अब साफ़ सफ़ाई नहीं हो रही है।नाँइ करत है नाई : नाई (नापित) नाही (नाईं, नहीं,मनाही) करने लगे हैं। मंगन सौ घर : मांगने वालों भिखारियों का घर। खबाई : खाने की वस्तु, खाना। मांगने लगे।

व्याख्या : यह पद जनसंख्या विस्फोट पर बड़े व्यंजनापूर्ण ढंग से प्रहार करता है। कवि कहते हैं - संतानों का ऐसा ढेर लग गया है कि मानों को बादल फोड़ बरसात कहा जाने लगा है। संतानों के इतने कपड़े निकलने लगे हैं कि धोबन की धोने की शक्ति जवाब देने लगी यानी समाप्त हो गयी है। आंगन और अहाता धोने वाली बसोरन, बुहारकरनेवाली भी चिढ़ गयी है। नाईं ने इतने बच्चों के सिर मूड़ने से मना कर दिया है। इन सब के कष्टों से घर में मुसीबत आ गयी है। घर जैसे मंगनों भिखारियों का घर हो गया है, हर समय खाना मांगने की गुहार मची हुई है।

™ बुंदेलखंडी (गृहमंत्रालय का अधिपत्र, आठवीं अनुसूची 38 भाषाएं , ख ग घ)

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