क्या क्या याद रखूं?
याद करना या भूलना अथवा ‘मन’ में ‘रखना’ (जिसे सामान्यतः याद रखना कहते हैं), मानसिक नैसर्गिक सहजात क्रियाएं है। मस्तिष्क एक पूर्वनिधारित स्वमेव प्रक्रिया (आटो इन्स्टाल्ड प्रोग्राम) के अनुसार याद करता है या नहीं करता। इसके दो विभाग हैं-चेतन और अवचेतन। दोनों बैठकर तय करते हैं कि कितना चेतन में रहेगा और कितना अचेतन में। चेतन बहिर्मुखी है और अवचेतन अंतमुर्खी है। इसलिए शरीफ़ दिखाई देनेवाले व्यक्ति को देखकर लोग कहते है- दिखता तो शरीफ़ है, मगर किसके मन में क्या है, कौन कह सकता है। यह जो आरोपित मन है, यह वास्तव में मस्तिष्क ही है, जिसके दो भाग हैं- जो बाहर दिख रहा है, वह चलता पुरजा है, कहां गंभीर रहना है, कहां हंसोड़ बनना है, कहां अनुशासित रहना है और कहां हो-हल्ला करना है, यह सक्रिय मन करता है। जो शांत और घुम्मा मन है, वह कोमल भी है और कठोर भी। सत्य और मर्म का विशेषज्ञ है। वह अपने पत्ते दबाकर रखता है। वह रहस्यमय है और निर्णायक है। वह हमेशा न्यायशील नहीं होता, वह ऐसे निर्णय भी ले सकता है जो अन्यायपूर्ण लगें। अवचेतन भी तो पूर्व अनुभवों और अध्ययनों का जखीरा, खजाना या कबाड़ ही है। जखीरा अर्थात बिना शीर्षक की अकूत सम्पदा, ख़जाना अर्थात बहुमूल्य और उपयोगी अनुभव, तदनुसार विचार, कबाड़ अर्थात बेतरतीब, उपयोगी-अनुपयोगी सामग्री का मूल्यामूल्य भंडार। इन सारी सम्पदाओं का जीवन पर और मृत्यु पर प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष प्रभाव पड़ता है। व्यक्तित्व का निर्धारण इन्हीं ख़जानों या कबाड़ के बाह्य प्रच्छेपण से बनता है।
अब मैं प्रायः कोई न कोई रिजाल्यूशन या संकल्प लेता हूं। साप्ताहिक, पाक्षिक मासिक या वार्षिक। उसी के हिसाब से काम भी करता हूं। सन 2023 तेइस में संकल्पित हुआ था कि सर्वथा यथासंभव-सकारात्मक रहूंगा और सोचूंगा। हालांकि रहना और सोचना भी पूर्णतः वैयक्तिक कार्य नहीं है। जिस मानसिक समाज में आप रह रहे हैं और जिन भौगोलिक परिस्थितियों में आप जी रहे हैं, वह सर्दी, गर्मी और बरसात की बंधुआ मज़दूर नहीं हैं। भूगोल के अवचेतन में क्या है, इसे धरातल और वायुमंडल क्या जाने। भूकम्प और सुनामी क्या धरातल के हाथों की कठपुतलियां हैं। मनुष्य जो स्वयं एक समय के हाथों की कठपुतली है, वह क्या समय को मनचाहे कपड़े और आभुषण पहनाकर नचा सकता है? कहने का तात्पर्य यह है कि संकल्प मेरा निर्णय है, उसे पूरा होने देना या नहीं होने देना, समय और मानसिक-समाज का काम है। पर मेरे संकल्प पूरे हुए। लेकिन 2024 आते ही मानसिक समाज ने मेरे मन का वातावरण फिर बदल दिया।
अपनी शक्ति के अनुसार 2024 को मैं ‘अध्ययन-काल’ के रूप में देख रहा हूं। अध्ययन-काल प्रायः प्रतीक्षा एवं परिवीक्षा का काल होता है। अंग्रेजी में सरलीकृत करें तो ‘वेट एण्ड सी’ काल। यद्यपि यह संभव नहीं है कि जो मस्तिष्क दिन रात सक्रिय रहकर आपको रूपायित कर रहा है, उसे आप कैसे संयमित कर सकते हैं? उपाय संकल्प है जिसकी सूचना आपको मन या मस्तिष्क (मैं मन को मस्तिष्क से भिन्न-सत्ता नहीं मानता) के दोनों सदनों, चेतन और अवचेतन को देनी होती है। तभी मर्यादा और संयम का संकल्प फलीभूत होता है।
मन या मस्तिष्क के कारण मनुष्य एक विचारशील प्राणी है। वह निरन्तर कुछ न कुछ विचार करते रहता है। लेकिन विचारों की बाढ़ में संयम रखने के लिए संयम का बांध बनाना पड़ता है। विचार को परिसीमित करना पड़ता है। विचार को किसी एक वस्तु या धारणा में केन्द्रित करके उसी में टिके रहने या बंधे रहने का कड़ा अभ्यास करना पड़ता है। ध्यानपूर्वक किसी एक धारणा में बंधे रहने को कुछ अभ्यासी ध्यान कहते हैं। किसी एक वस्तु, विचार या धारणा में बंधे रहना ही बांध बांधने जैसा है। अब मन या मस्तिष्क अनावश्यक विचारों से मुक्त हो जाता है।
विचारों से त्रस्त होकर मन कभी-कभी विचार-शून्य हो जाना चाहता है। विचारों का यह मोह भंग सबको होता होगा। सब विचारों से परेशान हैं। इतना विचार करके क्या मिलेगा? किसी से विचार बांट भी नहीं सकते। सबके पास विचार, अपने-अपने विचारों का भंडार है। बैठकर विचार करने से सब घबरा जाते हैं, डर कर भाग जाते हैं। तुम भी अपने अंदर आयी हुई विचार की आंधी से घबरा जाते हो, पर तुम कहां भागोगे। तब तुम यह जो टिड्डीदल की तरह विचारों का हमला हो रहा है, उससे बचने का उपाय ढूंढने लगते हो। डॉक्टर से पूछते हो कोई ऐसी दवा हो तो दीजिए। अब डाक्टर क्या बताएगा। इसकी दवा तो बहुत से लोग गली-गली और नुक्कड़ में देते मिल जाते हैं। वह कारगर नहीं है। स्थायी नहीं है। स्थायी साधन यही है कि विचार को रोकने की चेष्टा करो, अभ्यास करो। इसे चाहो तो साधना कह लो। धीरे धीरे अनर्गल विचारों की बारिशें थम जाती हैं। तुम्हारी चेष्टा, तुम्हारी साधना सफल हो जाती है।
मैंने भी एक दिन यह संकल्प लिया कि कुछ न सोचने को एक दिन सौंप देना चाहिए। यह आपके हाथ में है। आप ही सोच सोचकर विचारों को आमंत्रित करते हो। आपको लगता है, आपके विचारों की जरूरत दुनिया को है। आप सोचने की आदत डाल लेते हो। जब इनके ग्राहक नहीं मिलते तो सारा माल सड़ने लगता है। अब तुम सोचते हो उत्पादन बंद किया जाये। तब तुम्हें मशीन बंद करने का होश आता है। तब तुम हड़बड़ाकर उपाय करने लगते हो। तब तुम एक सार्थक विचार करते हो कि कैसे? और उपाय मिल जाता है। तुम समझ जाते हो कि आते हुए विचारों पर ध्यान ही न दो, कच्चा माल ही न खरीदो। बना हुआ अगर नष्ट हो रहा है तो उस पर ध्यान न दो।
समुद्र के किनारे क्या होता है कि बैठे हो समुद्र के किनारे, शांति के लिए। उत्ताल लहरें आती हैं, तुम ध्यान नहीं देते। वह छूकर चली जाती है। फिर ज्वार का एक महादल आता है और तुम्हें पूरा डुबाकर चला जाता है। तुम तब भी ध्यान नही देते। आख़िर ज्वार भाटे में बदल जाता है। लहरें अब तुम्हारे पास आने से भी कतराती हैं। तुम शांति पूर्वक सूर्योदय या सूर्यास्त का आनंद उठाने लगते हो। यही अनावश्यक विचारों से बचने का रास्ता है।
विचारों और घटनाओं का एक परिणाम होता है-छाप छोड़ना। अच्छे बुरे विचार, मोहक या भयावह घटनाएं छाप छोड़ जाती हैं मनपर, मस्तिष्क पर। इन्हें याद कहते हो। ये लटकी रहती हैं तुम्हारे अंतः-कक्षों में झूमरों की तरह, चीनी चाइम्स की तरह। अच्छी यादें खुशियां देती हैं, बुरी यादें दुखी करती है। किसी से बंधने लगते हो, किसी से मुक्त होने के उपाय करने लगते हो। और यह सबके साथ होता है। एक लेखक ने अपनी आत्मकथा को नाम दिया है-‘क्या भूलूं क्या याद रखूं?’ यह नौबत आ जाती है जब सब कुछ अच्छा अच्छा हो और तुम उसे अपना खजाना बना लो। अगर उसमें से चुनना पड़े तो असमंजस की स्थिति आ जाती है कि किसे चुन लूं, किसे छोड़ दूं। यादों के मामले में भी ऐसा ही है-‘क्या भूलूं, क्या याद करूं?’ कोई मदद करने नहीं आता। अगर इन स्मृति विस्मृति की किताब बनाई तो लोग चपेटे में आते हैं। आयोजन होते हैं, ईनाम बंटते हैं और लोग उसकी स्मृतियां संजोकर रखते हैं।
तारीखों की भी अपनी छापें होती हैं। जन्मदिन तो सभी मनाते हैं। पुण्य तिथियां भी मनाई जाती हैं। जो हैं या जो नहीं हैं, उन्हें याद करने का यह सामूहिक तरीका है। जो ध्यान करते उन्हें ध्यान रहता है कि किसकी जन्मतिथि या पुण्य तिथि मनाई जानी है। अपना अपना शौक और रुचियों से वे चुनाव कर लेते हैं कि किसकी याद करनी है।
जैसे आज 7 जुलाई है। कुछ लोग सत्रहवीं शताब्दि (1656) में, आज की तारीख में जन्मे सिक्खों के आठवें गुरु हरकिसनजी को याद कर रहे हैं। संगीत प्रेमी 1914 में 7 जुलाई को जन्मे संगीतकार अनिलकृष्ण विश्वास को याद कर रहे हैं। आजकल विश्वस्तर पर लोकप्रिय खेल क्रिकेट के प्रति पागलपन है। एक सफलतम खिलाड़ी हुए हैं- कप्तान महेन्द्र सिंह धोनी। आज ही की तारीख में सन 1961 में उनका जन्म हुआ। उसकी मुबारकबादें बांटी जा रही हैं। साहित्य प्रेमी एक ही कहानी ‘उसने कहा था’ से अमर हुए हिमाचलमूल (गुलेर) के राजस्थान जयपुर में जन्मे लेखक चंद्रधर शर्मा गुलेरी को याद कर रहे हैं। गुलेरी का जन्म आज से लगभग डेढ़ सौ साल पहले 1883 की 7 जुलाई को हुआ था।
मनुष्य यादों के सहारे जीता भी है और मरता भी है। याद विचारों की छाप है। विचार मनुष्य को मनुष्य बनाता है। मगर विचारों पर संतुलन बनाना पड़ता है अन्यथा मनुष्य ही काम का नहीं रहता।
देख रहे हैं न आप, मैं आज विचारों को स्थगित करना चाहता था लेकिन उलझ गया। क्या करें, कुछ चीजें कंट्रोल ही नहीं होती। पर कंट्रोल तो करना ही पड़ेगा। अतःविश्राम,समाप्त।
7.7.24, रविवार
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